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मंगलवार, 29 मई 2012

अदब के लठैत




"एक विशेष माहौल और परिवेश में मेरा जन्म हुआ और परवरिश हुई। यह लोग मुझसे ऐसी आशा क्यों करते हैं कि मैं उस जीवन का चित्रण करूँ जिससे मैं परिचित नहीं? गाँव की ज़िन्दगी से कुछ हद तो मैं वाक़िफ़ हूँ क्योंकि उसका मुझे अनुभव था लेकिन वह अनुभव एक बड़े फ़ासले का था। तरक़्क़ी पसन्द लोगों ने मुझको बहुत बुरा-भला कहा और इस तरह मज़ाक़ उड़ाया मानो मैं लोक-आन्दोलन की विरोधी हूँ।"

किसी मौक़े पर यह बयान दिया था मरहूम मुसन्निफ़ा क़ुर्रतुल ऐन हैदर उर्फ़ ऐनी आपा ने। हिन्दुस्तानी अदब में ये बड़ी पहचानी प्रवृत्ति है, हमारे कुछ जोशीले वामपंथी लठैत समय-समय पर अदीबों को ढोर की तरह हांका और पीटा करते हैं। चोट खाए साथियों से अपील है कि उनकी आलोचनाओं को मानस से फटकार दें, हौसला बनाए रखें और जिस दुनिया को वे देखते-समझते हैं उसी पर अपनी उंगलियों को चलाते रहें।  


शुक्रवार, 25 मई 2012

निहितार्थ




प्रश्न: आर्य इस देश के निवासी हैं, हड़प्पा और ऋगवेद की सभ्यता में अन्तर नहीं है, एक ही सभ्यता है ऋगवेद के रूप में आर्यों की, जो हड़प्पा की नगर सभ्यता- तथाकथित नगर सभ्यता के रूप में है- ये सारी बातें संघ परिवार की संस्थाएं भी कह रही हैं (और आप भी कह रहे हैं)। मेरी पीढ़ी के लोग और नवयुवक लोग - सभी की तरफ़ से मैं आप से यह जानना चाहता हूँ कि आपका एजेण्डा और उन लोगों का एजेण्डा जिन्होने बाबरी मस्जिद गिरायी थी, एक ही दिखाई पड़ता है, क्यों? यह सिर्फ़ संयोग है? क्या इसमें सम्बन्ध है? 

यह सवाल नामवर सिंह ने रामविलास शर्मा से एक साक्षात्कार के दौरान किया था सन २००० में कभी, और मंगलेश डबराल ने उसे एक टेप रिकार्डर पर रिकार्ड कर  लिया था। यह साक्षात्कार तद्भव के २५वें अंक में प्रकाशित हुआ है (पहले के किसी अंक में भी छपा था, इस अंक में दुबारा छपा है)। यह बातचीत बेहद दिलचस्प इसलिए है कि इसमें से हिन्दी साहित्य की एक विशेष प्रवृत्ति का पता मिलता है। नामवर जी के सवाल और रामविलास जी के उत्तर, ऐसा लगता है कि दो अलग-अलग दुनियाओं से हैं। अब जैसे देखिये ये जो सवाल किया गया है, उसके जवाब में रामविलास जी बताते हैं कि.. 

(पूरे तर्क देखने के लिए तद्भव देखें.. मैं संक्षेप में मूल बिन्दु दे रहा हूँ)

१. भारत जैसे देश में अपनी संस्कृति और इतिहास का अध्ययन फ़ासिस्टों के हाथों में छोड़कर आर एस एस जैसी संस्थाओं से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। 
२. भारत में आर्यों की कोई अखण्ड इकाई नहीं थी, जैसा कि पूंजीवादी इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकार दोनों मानते हैं, 
३. नस्ल मे आधार पर भारत या संसार में किसी समाज का संगठन नहीं हुआ,
४. ऐतिहासिक भाषा विज्ञान, भाषाओं का अध्ययन नस्ली आधार पर करता रहा है, 
५. किसी आदि भाषा से अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ है.. उसके बदले गण भाषाएं थीं।

इसके जवाब में नामवर जी विषय की इन सारी बारीक़ियों पर कोई बात नहीं करते। वे वापस अपनी मूल चिन्ता पर लौट जाते हैं,  कि आर्यों का मूल स्थान क्या था, इस प्रश्न के जवाब के राजनीतिक निहितार्थ होते हैं और रामविलास जी को उस का फ़िक्रमंद होना चाहिये और आर्यों के भारत का मूल निवासी होने से पैदा होने वाली फ़ासिस्ट राजनीति का खण्डन करना चाहिये। इस के जवाब में रामविलास जी वापस विषय की बारीक़ी में लौटते हैं- 

१. हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए वैदिक भाषा आदिभाषा है और आर्यभाषा परिवार की सारी भाषाएं वैदिक संस्कृत से निकली हैं, और ये बात पूंजीवादी भाषाविज्ञान भी मानता है। 
२. मैं गणभाषाओं की बात करता हूँ.. मराठी में तीन लिंग होते हैं, बंगला में एक भी नहीं होता- दोनों भाषाएं कैसे संस्कृत से निकल सकती हैं? गणभाषाओं का व्याकरण अलग है, शब्द भण्डार अलग है। 
३. वैदिक संस्कृति, हिन्दू संस्कृति नहीं है। (यानी हिन्दू संस्कृति में दूसरे तत्व में मिले हुए हैं) 
४. हिन्दू कट्टरपंथी और इस्लामिक कट्टरपंथी दोनों ही जातीयता का विरोध करते हैं, 
५. जबकि आर्य विभिन्न गणों में विभाजित थे, उनकी संस्कृति और भाषाओं में फ़र्क़ था, वे आपस में लड़ते थे, ऐसा कोई मार्क्सवादी इतिहासकार भी नहीं स्वीकार करता (परोक्ष रूप से वे भी जातीयता  के पहलू को अनदेखा करते हैं)  
६. आर्य भारत में रहते थे, उनके साथ द्रविड़ और मुण्डा लोग भी रहते थे, अन्य भाषाभाषी लोग भी रहते थे, हिन्दू राष्ट्रवादी उनकी बात नहीं करते, मैं करता हूँ.. मैंने उस पर किताबे लिखी हैं.. 

रामविलास जी के लम्बे जवाब के बाद नामवर जी इन मसलों पर चर्चा नहीं करते, वे वापस अपने मूल बिन्दु पर लौटते हैं- आप के ग्रंथो से जो राजनीति निकलती है उसका लाभ हिन्दू राष्ट्रवाद उठाता है। रामविलास जी कहते हैं- मैं जो लिख रहा हूँ वह हिन्दू राष्ट्रवाद का बिलकुल उलटा है, तुम न समझो तो मैं क्या करूँ। 

पूरी बातचीत में रामविलास जी विषय की बारीक़ियों की बात करते रहते हैं और नामवर जी निष्कर्षो के निहितार्थ की। और रामविलास जी कुछ बेचैन और चिड़चिड़े भी समझ में आते हैं। शायद इस वजह से कि रामविलास जी बार-बार अपने खोजे हुए सत्य पर बल दे रहे हैं और नामवर जी उसके सम्भावित उपयोग के भय की ओर उन्मुख हैं। इसको पढ़ते हुए चर्च और कोपरनिकस के अन्तरविरोध की याद हो आई, चर्च भी कोपरनिकस के आनुसंधानिक सत्य को झुठलाने पर आमादा था। हालांकि उस सत्य और इस सत्य की कोई तुलना नहीं। और मेरा आशय यह भी नहीं कि रामविलास जी की अवधारणा सत्य ही है। दिल को खटकने वाली बात इतनी सी है कि क्या इसी वजह से कोई बात न कही जाएगी कि वो पार्टीलाइन नहीं है या फिर कोई उसका ग़लत इस्तेमाल कर लेगा? 

फिर भी मेरे लिए यह संवाद पढ़ना बहुत मनोरंजक रहा। एक तो इसलिए भी कि हमारी भाषा के दो महापुरुषों का संवाद हम कमज़र्फ़ों की तरह ही उछलता-कूदता सा चलता हुआ मिला और दूसरे बड़ी वजह यह कि इसको पढ़कर दो विद्वानों के अलग-अलग मानसिक संगठन से रूबरू भी हुए। एक जो पूरी तरह अपने अनुसंधान में डूबा, राजनैतिक रूप से गहरे तौर पर प्रतिबद्ध मगर अपने निष्कर्षों को लेकर सिर्फ़ इस वजह से शर्मिन्दा नहीं कि किसी को लग सकता है कि वो फ़ासिस्ट इस्तेमाल के है; और दूसरा जो साहित्य और अनुसंधान को लगातार उनके राजनैतिक निहितार्थों से तौलता हुआ।

हिन्दी साहित्य रामविलास जी के अनुसंधान के कठोर अनुशासन, और अपने खोजे हुए सत्य के प्रति आग्रह का कितना अनुगामी हुआ है, कहना मुश्किल है। हो सकता है कुछ झक्की जीव यश और प्रसिद्धि के प्रलोभनों से दूर किसी आधुनिक मड़ई में अपनी गहरी साधना में लगे पड़े हों, और आने वाले दिनों का समाज उनके श्रम और साधना का ऋणी रहे, इस वक़्त उनके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इस वक़्त हम जिनके बारे में कह सकते हैं वो हैं एक पिटे-पिटाए राजनैतिक सत्य की लीक पकड़कर चलने वाले और फ़टाफ़ट कुछ पहचान, मान, प्रकाशन, पुरस्कार, और सामाजिक प्रतिष्ठा लूट लेने के लिए आतुर शिष्यों की भीड़, जिनके लिए साहित्य सिर्फ़ एक राजनैतिक निहितार्थ है, उस से ज़्यादा कुछ नहीं। कुछ और लोग भी हैं, पर वो इस मुख्य धारा से बाहर किसी छोटी धारा में हैं, या एकदम हाशिये पर हैं। 

***  

(जहाँ कहीं भी कोष्ठक आया है, उसके भीतर मेरे शब्द हैं) 





रविवार, 21 नवंबर 2010

गीत का सिमसिमी जादू


पिछले दिनों गीत चतुर्वेदी का दूसरा कहानी संग्रह ‘पिंक स्लिप डैडी’ प्रकाशित हुआ। संग्रह में तीन लम्बी कहानियां हैं और तीनों ही महानगरीय जीवन के संकटों के आख्यान हैं। पहली कहानी गोमूत्र एक निम्नमध्यमवर्गीय दृष्टिकोण से कर्ज़ आधारित अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक व्यथाओं की कथा है। किताब की आख़िरी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ मंदी के दौर में एक कौरपोरेट संरचना के भीतर से उसकी जटिलताओं का अक्स मानवीय आईने में दिखलाती कहानी है। हालांकि २००९ में लिखी इस कहानी का मूलाधार २००९ में ही प्रदर्शित अमरीकी फ़िल्म ‘अप इन दि एअर’ से कुछ मिलता है मगर गीत की कहानी में अपनी क़िस्म की परते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘सिमसिम’, ज़िन्दगी की शुरुआत करते एक नौजवान और ज़िन्दगी की अंत पर खड़े मगर अपनी ज़िन्दगी की शुरुआती स्मृतियों में उलझे और तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी सम्बन्ध की कहानी होने से अधिक उस छवि की कहानी है जो इन दोनों चरित्रों को एक साथ रखने से बनती है। इस कहानी में किसी फ़िल्म की पटकथा जैसी बुनावट और गति है। वैसा ही कहानी के वातावरण का स्पन्दन पाठक अपने रोमों, पोरों में महसूस कर सकता है, जैसा अनुभव फ़िल्म देखते हुए होता है। और आधुनिक सार्थक फ़िल्मों ने जिस तरह की पुरातन क़िस्सागोई से दुश्मनी ले रखी है, वो यहाँ भी मौजूद है।

मेरी समझ में शिल्प की दृष्टि से गीत की यह कहानी बड़ी अनोखी और बेजोड़ है। गीत की काव्य प्रतिभा भी इस कहानी में सबसे अधिक उभर कर आती है। ऐसा लगता है कि गीत भी मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता और उपन्यास (या लम्बी कहानी) में कोई मौलिक फ़र्क़ नहीं मानते। विनोद जी ने एक जगह कहा है, “उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है।”

गीत की कहानियों में विचारों की, अनुभवों की ख़ूब चहलक़दमियाँ हैं। उनके पास कहने को बहुत कुछ है। किसी सामान्य सी रोज़मर्रा की भी घटना में वे बहुत कुछ देख लेते हैं। गीत अपने चरित्रों को बख़ूबी जानते हैं, उनके अनुभवों को बारी़कियों से पहचानते हैं। उनके परिवेश और सामाजिक दबावों को समझते हैं और देश-दुनिया की राजनैतिक-आर्थिक सच्चाईयों से उनके तार कैसे जुड़ते हैं, इसकी समझदारी भी रखते हैं गीत। और अपनी बेहद समृद्ध भाषा के मार्फ़त उनके अनुभवों और उनके मनोजगत के मर्म को व्यक्त करने में वे माहिर हैं।

किताब का कहीं से भी खोलकर पढ़ना शुरु कर दीजिये, आप को ख़ुले हुए दो पन्नों के बीच ही ऐसा कोई टुकड़ा मिल जाएगा जो आपके द्वार जिये हुए यथार्थ को ही, पहचाने हुए अनुभव को एक नई नज़र से दिखाता हो। कोई चकित करने वाली बात ज़रूर मिल जाएगी उन दो पन्नों के बीच। यह गीत की ताक़त है। गीत की एक और ताक़त किसी भी सामान्य घटना को उसकी सम्भावना की भौतिक सीमाओं के पार खींच ले जाकर उसके अन्तरविरोध को उभारने में भी है, जिसे आम तौर पर जादुई यथार्थवाद के नाम से बताया जाता है।

गीत वैचारिक रूप से बहुत सचेत हैं। जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, जिस की कहानियाँ वे रच रहे हैं उसकी तमाम जानकारियाँ उनके पास है। और उस दुनिया के प्रति उनके सरोकार भी बहुत विकसित हैं, साथ ही उनके कलात्मक सरोकार भी। अपने शिल्प के प्रति भी वे बेहद सचेत हैं, ऐसा मालूम देता है। उनकी कहानियों में कोई तत्व यूँ ही ऊँघता हुआ, किसी बेहोशी में चला आया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी कहानी में सब कुछ सायास है, सोचा-समझा है।

लेकिन उनमें अजीब तरह का कुछ अनगढ़पन भी है। एक पाठक की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि कुछ बातों का अनावश्यक विस्तार है और कुछ चीज़ें जिन पर मैं और व़क्त गुज़ारने को तैयार था वो सूत्र गीत ने जल्दबाज़ी में निपटा दिये। लेकिन यह तो लेखक स्वयं ही तय करेगा कि किस तत्व को विस्तार कितना विस्तार देगा, और उसके पास तर्क भी होंगे इस चुनाव के पीछे। फिर भी पाठक शिकायत करने का तो हक़ रखता है।

मैं जानता हूँ कि उनकी कहानी की आलोचना करते हुए मैं साहित्य व कला के तमाम नए-पुराने आन्दोलनों से अपरिचित हूँ, सम्भवतः उनसे भी जिनको ध्यान में रखते हुए उन्होने अपने शिल्पगत चुनाव किए हैं, फिर भी एक पाठक के तौर पर मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कहने का अवसर ले रहा हूँ कि उनकी कहानी में अगर कोई कमज़ोरी है तो वह ये कि उसमें क़िस्सागोई का अभाव है।

गीत की कहानी कोई संस्पेंस कथाएं नहीं है। और सच बात तो ये है कि संस्पेंस कथा कभी सस्पेंस कथा नहीं होती। उसकी कहानी का ढांचा पहले से तय होता है। सिर्फ़ एक तत्व, एक तथ्य पाठक से छिपा लिया जाता है। और पाठक इस ढांचे में बड़े सुकून से बेचैन रहता है। जबकि जिस तरह की कहानियाँ गीत लिख रहे हैं वो पाठकों को वाक़ई में बेचैन कर सकती हैं क्योंकि वे न तो अपनी कहानी की दिशा की कोई पूर्वसूचना पाठक को देते हैं या कहानी को रोचक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करते हैं जैसे कि पुराने क़िस्सागो करते रहे हैं। और शायद इसी कारण से या किसी और कारण से पढ़ने वालों को लग सकता है कि वे चरित्रों से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे या रस की सृष्टि में कुछ कमी रह गई।

इन के बावजूद गीत एक बहुत प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं। वे युवा हैं और अभी तो यह शुरुआत है, आगे वे क्या और कैसे गुल खिलायेंगे इसे देखने की प्रतीक्षा है मुझे। और सच बात तो यह है कि उनकी प्रतिभा और महत्व का असली आकलन तो उनके बाद वाली पीढ़ी ही करेगी, जैसा कि हमेशा होता आया है।

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

विनोद कुमार शुक्ल : कुछ अनमोल वचन



  • मेरी रचनाएं मेरे बाद सब को सम्बोधित हैं पर सब सुनें, यह ज़रूरी नहीं। 
  • लिखने के कर्म से जो जुड़े हुए हैं वे अपने थोड़े से दायरे में जनता के सुनसान में होते हैं।


  • जब लिखा हुआ सुनसान में है तो लेखक भी है।


  • हम रचना में भाषा से अन्तर्निहित में जाते हैं। भाषा एक दूरी होती है, अर्थ के पहुँचने तक की यह दूरी पार करनी होती है।


  • लगातार जटिल होते संसार में कविता बार-बार अधिकतम अभिव्यक्त होती रहेगी। कविता अत्यन्त बौद्धिक, अत्यन्त अभिव्यक्ति के लिए होगी। अत्यन्त बौद्धिक होना अभिव्यक्ति की एक सरलता होगी।


  • अपनी लिपि में भाषा सुरक्षित रहती है, लिपि भाषा के लिए क़िले की तरह है।


  • जब भाषा नहीं थी, तब भी अभिव्यक्ति थी। परन्तु अभिव्यक्ति का स्थायित्व नहीं था जो लिखे जाने से बनता है।


  • उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है। और एक दस क़दम की कविता भी देर तक की चहलक़दमी होती है।


  • दूसरो की उँगली पकड़कर रचना के समीप उतना नहीं पहुँचा जा सकता, पर आलोचक की उँगली पकड़कर रचना से दूर जाया जा सकता है।


  • आलोचना का कोलाहल जनता का कोलाहल नहीं है।


  • रचना पाठक की शर्त पर नहीं होती, रचना की शर्त पर पाठक होते हैं।


  • यथार्थ सुख देता है तो स्वप्न जैसा और दुख देता है तो यथार्थ जैसा। 

  • अगर यथार्थ का एक यथार्थ है तो दूसरा यथार्थ कल्पना का भी है।


(कथादेश, अक्तूबर २०१० के अंक में प्रकाशित उनके साक्षात्कार से निकाले कुछ सूत्र) (रेखाचित्र: प्रमोद सिंह)



गुरुवार, 12 अगस्त 2010

सदाचार और छिनार


हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक अत्याचार की भावना से उबल रहा है। निन्दा और भर्त्सना प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए होंगे कि मैं विभूति नारायण राय के कुख्यात बयान और उससे उपजी प्रतिक्रियाओं की बात कर रहा हूँ। इसके पहले कि मैं अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल का उद्धरण देना चाहूँगा। वे इसी विवाद के सन्दर्भ में लिखती हैं-

"हम उस नैतिक आघात से सहमत नहीं है जो वेश्यावृत्ति या बेवफ़ाई के उल्लेख भर से मीडिया में आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन करते हैं कि यौनिकता के मसले गम्भीर मसले हैं, जिन पर और सार्वजनिक बहस और समझदारी की ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये से यौनिकता के मामले को और समझने के लिए हमें राय जैसे लेखकों को चुनौती देनी चाहिये ना कि सार्वजनिक नैतिकता में उलझना चाहिये।"

मैरी जौन ने सहज रूप से इस मामले के मूल में बैठी समस्या को रेखांकित कर दिया है। मेरी नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं आई जिसने इस मसले को नैतिक अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये से देखने की कोशिश की हो। उपकुलपति महोदय ने कहा, “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है।” उसके जवाब में कहा गया “..लेखिकाओं के बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है, बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक है।”

देखने में दोनों एकदम विपरीत बयान मालूम देते हैं मगर एक जगह जाकर दोनों एक हो जाते हैं- राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन को छिनाल के अपमानजनक विशेषण से नवाजते हैं तो वे छिनाल का इस्तेमाल इस अर्थ में करते हैं कि छिनालपन एक निन्दनीय कृत्य है जिस से बचा जाना चाहिये। और दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने वाले इस बात पर आपत्ति करते हैं कि राय गरिमामय हिन्दी लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग कर सकते हैं? ‘छिनाल’ के अपमानजनक होने पर दोनों की सहमति है! दोनों ही परोक्ष रूप से मान रहे हैं कि स्त्री का वांछित, नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला ही है।

एक और मज़े की बात यह है कि एक पेटीशन जो राय साहब को हटाने के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में भी इस छिनार शब्द का अनुवाद प्रौस्टीट्यूट किया गया है। जो निहायत ग़लत है। प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी या वेश्या शब्द है। रसाल जी के कोष में छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा, परपुरुषगामिनी, और इसकी उत्पत्ति छिन्ना+नारी से बताई गई है। इन्ही में इस शब्द की पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर महिला लेखकों पर हमला करने वाले विभूति नारायण राय और उनका उच्च स्वर से विरोध करने वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा कर देती है।

वैवाहिक सम्बन्ध से इतर दैहिक सम्बन्ध बनाने से जिसका चरित्र खण्डित होता हो, वह है छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े से भी दैहिक विचलन की कड़ी से कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही है हर समाज में। आज भी कई समाज ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को ही मिलती है, पुरुष को कुछ नहीं। इसी तरह के दोहरे व्यवहार, दोहरी नैतिकता का नतीजा है यह छिनार का शब्द।

स्त्री को अपने शरीर का स्वामित्व नहीं है। आज भी कई समाज व नैतिक परम्पराएं उसे गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं कराने देतीं। कई उसे परदे से बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री सम्पत्ति है इसीलिए उसका ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ होता है। उसकी कोख पर उसका नहीं उसके स्वामी का अधिकार है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य से यौन सम्बन्ध बनाये या गर्भधारण करे तो पापचारिणी कहलाती है। और सन्तान भी नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल तक सन्तान की माता के प्रति ही पूरे सत्यापन से कहा जा सकता था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। मगर फिर भी अज्ञात पिता होने से, या वैधानिक पति की सन्तान न होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / हरामी हो जाती थी/ है।

गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज स्त्री के लिए अपने शरीर पर स्वामित्व और अधिकार पाना मुमकिन हो गया है। इतिहास में पहली बार, सारे प्राणियों से अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है कि वह बिना गर्भधारण की चिंता किए दैहिक सुख ले सके जैसे आदमी लेता रहे हैं हमेशा। लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस की इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; वह उसे मातृत्व और पत्नीत्व के दायरे में ही क़ैद रखना चाहता है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, देवी होती है, सती-सावित्री होती है। स्त्री यदि भोग की, दैहिक आनन्द की बात करती है तो लोग असहज हो जाते हैं; कहते हैं कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात करो!

अपने साक्षात्कार में राय कहते हैं “इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।” मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे ही है जैसे कि बहुत सारे लोग मायावती की राजनीति से नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' फैला रही हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण की बात मत करो, योग्यता की बात करो। इसी तरह राय कह रहे हैं “देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है” मेरा कहना है कि ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस आधार से स्त्री वर्ग को हज़ारों सालों से पीड़ित किया गया हो वो थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार की उपभोग न करे, तो ये कैसे आज़ादी है? स्त्री का शोषण और उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय भूमिका में रहे। और फिर सबसे बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां स्वयं तय करेंगी कि वे किस बारे में लिखना चाहेंगी और किस बारे में नहीं।

अंत में मैं एक बात यह भी कहूँगा कि इस मसले पर विभूति नारायण राय के जो विचार हैं उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा किया जाय। ये सब साहित्य की अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न कि लोगों का मुँह बन्द करने की कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल में आ गए हैं और नारीवाद ने भी उन के अर्थों को पुनर्परिभाषित कर के समाज को अपना रवैया बदलने पर मजबूर किया है।

पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी पंजाब में आए एक नए बदलाव को पकड़ा। हज़ारों सालों से उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर गा रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। जबकि दलित मामलों के प्रति संवेदनशील उत्तर प्रदेश में इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा हो सकती है।

हिन्दी समाज की नैतिकता के रखवाले शब्दों के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील है और समाज के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि शब्दों को लेकर सदाचारी और असहिष्णु रवैये की एक अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती है।



शुक्रवार, 5 मार्च 2010

संस्कृति की अश्लील परम्परा उर्फ़ बहुत हुआ सम्मान

इलाहाबाद में अपने छात्र जीवन की शुरुआत के साथ ही अश्लील परम्पराओं से मेरा परिचय हो गया था। हमें हौस्टल के सीनियर्स ने फ़र्शी सलामी सिखलाई और जिस हौस्टल गीत को याद कर के उचित अवसरों पर सुनाने की हमें ताक़ीद की गई उसमें पुरुष के अंग विशेष के गुणगान किए गए थे। ऐसा बताया जाता था कि वह गौरवगीत हौस्टल के एक पूर्ववासी के पेन-प्रताप का ही परिणाम था।

हमारे रहते भी हौस्टल के एक वरिष्ठ वासी हिन्दी भाषा में अपने जौहर, साहित्य की इस अश्लील परम्परा को अर्पित करते रहे थे। उनके गीतों की लोकप्रियता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके गायन के सभी अवसरों पर हौस्टलवासियों का आनन्द और उत्साह राष्टगीत और राष्ट्रगान को गाने के मौक़ो से कई गुणा अधिक होता, और उसका उद्गम विशुद्ध, अनहत और मणिपुर से भी गहरे सीधे मूलाधार से होता। सभी सुनने वालों के अंग-अंग से हर्ष का सागर हिलोड़ें मारने लगता।

ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ये पाशविक वृत्ति की उपज थी, पर भाषा और गायन की मानवीय उपलब्धियों में आबद्ध था। शारीरिक उद्वेगों की ये सामाजिक अभिव्यक्ति थी। जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़ सभी को जोड़ देने वाली यह संस्कृति थी। जन संस्कृति थी। लेकिन किसी भी सभ्य हलक़ों में इस 'जन संस्कृति' को मान्यता नहीं थी। नहीं है।

हौस्टल में ही रहते हुए मेरा परिचय बनारस की उस परिपाटी से हुआ जिसकी आवृत्ति हर बरस होली के अवसर पर होती। अस्सी पर होने वाला इस विशिष्ट सम्मेलन की ख्याति दूर-दूर तक हो चली थी, जिसमें सार्वजनिक मंच से आदमी और औरत के गुप्त प्रसंगो, और सामाजिक मसलों में उन प्रसंगो के मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल, की चर्चा सस्वर गायन के ज़रिये की जाती। इस सम्मेलन में पढ़ी गई कविताओं का एक संकलन भी निकलता जो पढ़ना तो हर कोई चाहता लेकिन घर में रखना कोई न चाहता। इस सम्मेलन में भाग लेने वाले कवि आम तौर पर हास्य कवि ही होते और कविता की मुख्य धारा से उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होता।

बाक़ी कवियों को छोड़ दें और सिर्फ़ चकाचक बनारसी की ही बात करें। साल के ३६४ दिन चकाचक की पहचान एक हास्य कवि की ही बनी रही। ये भी पता चला है कि वे दूसरा कोई काम नहीं करते थे और कवि सम्मेलनों में हुई आमदनी के ज़रिये ही अपना खर्चा चलाते थे। लेकिन एक होली के दिन उनका रूप बदल जाता और वे सारी वर्जनाओं को छोड़ कर भाषा को खुला छोड़ देते। और फिर ऐसी कोई चीज़ निकलती जो बड़े-बड़े विद्वानों को किए जा रहे सम्मान को बहुत हुआ बताकर उनकी माता जी से सम्बन्ध स्थापित करने की घोषणा होती :

बड़े-बड़े विद्वान,
तुम्हारी...
बहुत हुआ सम्मान,
तुम्हारी...

इस विद्रोही तेवर की अनुगूँज मुझे दूर-दूर तक सुनाई दी है, सुदूर मुम्बई तक भी। भाषा की मुख्यधारा में पड़े हुए और उस से अड़े हुए दोनों तरह के लोगों के भीतर। इस तरह की ज़बरदस्त मक़बूलियत अच्छे-अच्छे साहित्यकारों की नहीं है जो साहित्य के शीर्ष पुरस्कार पाने के बाद भी जनता के प्यार और स्वीकृति से कटे होने के कारण एक प्रकार की कुण्ठा में जीते हैं। चकाचक की घोषणा शायद उन को भी सम्बोधित है कि बहुत हुआ सम्मान। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि चकाचक सभी तरह की कुण्ठा से मुक्त हो कर वैकुण्ठ हो गए होंगे। मुझे पता लगा है कि एक उनका एक संग्रह ही प्रकाशित हुआ और वो भी बहुत बाद में; सन २००४ में उनकी मृत्यु के कुछ पहले ही और उसमें भी उनकी सबसे लोकप्रिय कविताओं को जगह नहीं थी। वे सिर्फ़ लोगों के दिलों, ज़ुबानों और गुप्त खर्रों में ही बसी रहीं। ये वहीं चकाचक हैं जिनकी एक और कविता का मुखड़ा बहुत लोकप्रिय हुआ है:

हर अदमी परेसान ह
हर अदमी त्रस्त ह
मारा पटक के
जे कहे पन्द्रह अगस्त ह

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चकाचक की इसी चमक को याद करके मैंने इस बार होली बनारस में मनाने का फ़ैसला किया। इलाहाबाद तक आया था, फिर ऐसा मौक़ा मिले न मिले। तो वापसी के कार्यक्रम को रद्द कर के मैं बस इसी कार्यक्रम में शिरक़त करने के लिए बनारस पहुँचा। बनारस आ कर भाई अफ़लातून और अपने पुराने मित्र मेजर संजय से मालूम हुआ कि न तो अब होली का ये विशिष्ट कवि सम्मेलन अस्सी पर होता है और न उसे चमकाने के लिए चकाचक जीवित हैं। सम्मेलन की जगह बदल कर मैदागिन के एक मैदान में कर दी गई है क्योंकि अस्सी में रहने वाले परिवार, सम्मेलन के तीन-चार घण्टों के दौरान तय नहीं कर पाते थे कि अपने कान बन्द करें कि अपने बच्चों के।

होली तो नहीं खेली मगर भाई अफ़लातून और स्वाति जी के शानदार आतिथ्य का लाभ उठाया और अस्सी पर पप्पू की दुकान पर होली मिलन समारोह में गुलाल से रंगा गया। बनारस के तमाम राजनीतिक और साहित्यिक विभूतियों से मिलना हुआ। और इस साहित्य की इस अश्लील परम्परा पर विचार-विमर्श भी हुआ। मैं कह रहा था कि आने वालों साल में चकाचक को वैसे ही मान्यता मिल जाएगी जैसे पश्चिमी साहित्य में दि साद को मिली, डेढ़-दो सौ साल बाद।

मैं यह भी चाह रहा था कि मेरे हाथ इस अश्लील सम्मेलन के पुराने प्रकाशन मिल जायं लेकिन वे किसी के घर पर नहीं थे, कारण स्पष्ट है। अस्सी से निकलते-निकलते मैंने उत्साहित हो कर अपनी इस राय को भी गणमान्य व्यक्तियों के समक्ष रखा कि इस अश्लील साहित्य का एक ब्लौग रचा जाय और उसे जनता के लाभार्थ समर्पित कर दिया जाय। अफ़लातून भाई इस बात पर बहुत सहमत नहीं दिखे। न जाने वह कुछ देर पहले उदरस्थ किए भंग के गोले का असर था या मेरी बात का, वे सपाट नज़रों से मेरी तरफ़ देखते रहे। और मुझे अपनी राय पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करते रहे। सबसे विदा लेके मैं मैदागिन को चला आया।

सम्मेलन की सभी कुर्सियाँ काशी की जनता की तशरीफ़ों से घेरी जा चुकी थी। एक शरीफ़ आदमी ने अपनी तशरीफ़ सरका के मुझे भी अपनी तशरीफ़ टिकाने का निमंत्रण दिया; मैंने स्वीकार कर लिया। मंच पर और दर्शकों में सभी धर्म और वर्ग के लोग मौजूद थे। लोग हल्ला मचा रहे थे और संचालक बद्री विशाल की बहन के साथ अपने सम्बन्ध के प्रति इच्छुक और आतुर दिख रहे थे। हारकर बद्री विशाल ने सामान्य कविताओं के दौर को समाप्त करते हुए विशिष्ट सम्मेलन का आग़ाज़ किया। उसके बाद जो कुछ हुआ उस से अश्लील साहित्य के प्रति मेरा उत्साह धीरे-धीरे ठण्डा पड़ता गया।

मंच पर से जो पढ़ा जा रहा था वो अधिकतर फ़िल्मी गानों की पैरोडी या सस्ती तुकबन्दी के अलावा कुछ नहीं था। बीच में एक कवि, जिनका मैं नाम याद न रख न सका, ने ज़रूर शिल्प और कथ्य दोनों में एक स्तर दिखाया। उस एक को छोड़कर किसी भी कविता में कोई सामाजिक या राजनैतिक सच्चाई को टटोलने की कोई कोशिश नहीं दिखी। जिसका निष्कर्ष मैं यह निकालता हूँ कि कविता श्लील हो या अश्लील, वो आम तौर पर कूड़ा ही होती है। (इस पाठक चाहें तो 'बुरा न मानो होली है' की भावना से प्रेरित मान सकते हैं)।

लगभग एक घण्टे तक किसी बेहतरी की उम्मीद करने के बाद मुझे अपनी तशरीफ़ और देर वहाँ रखने में तकलीफ़ होने लगी और मैं उठ चला आया। बाद में मैंने अफ़लातून भाई से किए अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार करते हुए पाया कि अच्छा यही होगा कि साहित्य की अश्लील परम्परा को अपना स्थान खुद तलाशने दिया जाय। चकाचक के उत्तराधिकारियों को इन्टरनेट तक पहुँचने में मेरी सहायता की ज़रूरत होगी, यह सोचना अहमन्यता होगी। और रही बात चकाचक को उनका स्थान मिलने की तो कौन जानता है कि तमाम कहावतों का निर्माता कौन है? चुटकुले कौन बनाता है? भाषा की उस गुमनामी में हो सकता है कि चकाचक के लिए भी कोई कोना सुरक्षित हो!

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बाद में सोचते हुए अस्सी पर रामाज्ञा शशिधर की एक बात पर विचार करते हुए मैंने पाया कि ये बात ठीक है कि यह अश्लील परम्परा सिर्फ़ पुरुषवादी सोच या पुरुषों की अभिव्यक्ति है। पूरे का पूरा महिला वर्ग इस से कटा हुआ है। इस संस्कृति पर यह आरोप भी है कि यह महिला के प्रजननांगो को अपनी विकृति का निशाना बनाती है, इसलिए हिंस्र और पतनशील है। मेरा इस से मतभेद है। पहले तो ये कि प्रजनन के प्रति आदमी और औरत का नज़रिया अलग-अलग है। एक-दूसरे के प्रति आप उनसे एक ही जैसे व्यवहार की उम्मीद अगर करते हैं तो आप की उम्मीद निराधार है। प्रजनन के प्राकृतिक ज़िम्मेदारी है और आदमी की प्रजनन में भूमिका गर्भाधान के साथ ही समाप्त हो जाती है। उसके बाद पालन-पोषण में उसकी जो भूमिका है उसे निभाने में कोई सार्वभौमिक मानक नहीं रहा है।

विवाह संस्था का इतिहास से पता चलता है कि अलग-अलग समाजों में यह भूमिका बदलती रही है। और स्त्री को जितनी अधिक आर्थिक स्वतंत्रता मिली है उसने अपने यौन व्यवहार पर से पुरुषवादी बन्धनों को उतना ही तोड़ा है। विवाह की सामंती धारणा स्त्री की यौन शुचिता को एक ऐसे मूल्य की तरह प्रस्तुत करती है जो उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाता है। एक बार कौमार्यभंग हो जाने पर वह किसी सम्मानित पुरुष के योग्य नहीं रहती और उसके लिए आत्महत्या या किसी भयंकर अपमान और सज़ा के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

इस्लाम में ये मूल्य बहुत स्पष्ट रूप से परिभाषित किए गए हैं। जहाँ औरत को ग़ैर-मर्दों से बराबर पर्दे में रहने की बात है। (बहस बस इतनी है कि कितना परदा करने की बात है) और किसी भी प्रकार के व्यभिचार की कड़ी स़ज़ा है। पिछली सदी में आए हिन्दू समाज में सुधारों की चलते उन परम्पराओं से छुटकारा पा लिया जो पति की मृत्यु के बाद भी उसकी विधवा पर उसका यौन-अधिकार बनाए रखती थी। लेकिन आज के पूँजीवादी अमरीकी समाज में प्रथम सहवास के इर्द-गिर्द कोई मिथक नहीं रह गया है बल्कि तमाम अमरीकी फ़िल्मों और साहित्य के ज़रिये देखा जा सकता है कि अमरीकी नवयुवतियों के बीच ‘कौमार्यभंग न होना’ एक पिछड़ेपन की निशानी है और यौन अनुभव होना आकर्षकता की पहचान।

तो हमारे सामंती समाज में यौन-सम्बन्धों पर बन्दिशों के चलते ही इस प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति होती है जिसे हम अश्लीलता का नाम देते हैं। अगर यौन-सम्बन्धों के लिए एक स्वस्थ माहौल हो तो इस प्रकार के विकार पैदा होने की सूरत कम हो जाएगी।

दुनिया में हर जगह पारिवारिक रिश्तों में यौन-सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध है और ये क्या सिर्फ़ संयोग है कि अधिकतर गालियां माँ और बहन को लेकर हैं? इन्ही गालियों के कारण कहा जाता है कि इन गालियों के ज़रिये पुरुष समाज स्त्री के प्रजननांगो को अपनी हिंसा का निशाना बना रहा है। ऐसा नज़र ज़रूर आता है लेकिन ये सही समझ नहीं है। ऐसा लग सकता है कि वह किसी दूसरे की माँ के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की बात कर रहा है मगर वास्तव में वह आदमी माँ और बहन के सम्बन्धों में अपनी यौन-आंकाक्षाओं को जगह दे रहा है। जो ‘कर्मणा’ नहीं हो पा रहा उसे ‘वाचा’ कर रहा है।

संस्कृति और विकृति दोनों सामाजिक नज़रिये का फ़रक़ है। मेरा मानना यह है कि गालियाँ प्रजननांगो पर हमला नहीं बल्कि उन के प्रति सम्मोह हैं। और ये गालियां स्त्री के प्रजननांगो पर नहीं बल्कि प्रजननांगो पर हैं और गुप्तांगो पर हैं। भूला न जाय कि कितनी गालियाँ गुदा पर लक्षित है। और ये भी याद कर लिया जाय कि गालियों का एक प्रमुख हिस्सा आदमी के लिंग को बार-बार स्मरण को समर्पित है। और यह मान लेना कि यदि औरतों को मौक़ा मिला तो वे गालियाँ नहीं देंगी, भी ठीक नहीं। इस समाज में ही कितनी औरतें गाली देती हैं। वे शायद पुरुषवादी सोच के प्रभाव में देती हैं लेकिन पश्चिमी समाजों में जहाँ औरतें अपेक्षाकृत स्वतंत्र है, वहाँ औरतें गाली देती हैं और किसी पुरुषवादी सोच के तहत नहीं देतीं। औरतों द्वारा दी जाने वाली अंग्रेज़ी की प्रमुख गालियों में उल्लेखनीय हैं: अपने-आप से यौन सम्बन्ध बनाना, पुरुष के लिंग के समकक्ष होना।

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समाज हमेशा चाहता है कि यथास्थिति को बनाए रखे। नैतिकता उस की इसी इच्छा का हथियार है। बहुत लोग जो साहित्य को समाज का दर्पण मानते हैं और दर्पण को सजने-सँवरने का साधन देखते हैं और वे जो साहित्य को आदर्शों की हदबन्दी में ही क़ैद रखना चाहते हैं, मुख्यधारा के उन खेवैयों के लिए लिए अश्लीलता हमेशा एक विकृति बनी रहेगी।

यहाँ पूछा जा सकता है कि कविता की मुख्य धारा क्या है और कौन सी है। तुलसी दास के ज़माने में कविता की मुख्यधारा काशी के सांस्कृत-पण्डितों की रही होगी लेकिन आज के ज़माने में वामपंथी विचार के साहित्यकारों की धारा ही मुख्यधारा है। शेष कवियों को अस्सी की धारा* की तरह भ्रष्ट मान लिया गया है और उनका हाल अस्सीवत ही यानी नालेनुमा हो चला है। मुख्यधारा में अपनी-अपनी नाव खे रहे ये महाभाग ऐसे किसी काव्यसाधक को मुख्यधारा में प्रवेश की अनुमति नहीं देते जो उनके वैचारिक और नैतिक मानदण्डों पर ख़रा न उतरता हो।

कुछ लोग ऐसा मान सकते हैं कि साहित्यिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे ये लोग आज भी उसी क़िस्म का छुआछूत चला रहे हैं समाज में जिसकी ये ऊँचे गले से निन्दा करते हैं। ये तर्क किया जा सकता है कि यह बात इस आधार पर ग़लत है कि वामपंथ का सत्ता से कोई जुड़ाव नहीं रहा है। लेकिन ये बात ठीक नहीं है; साहित्य और शिक्षा के दायरों में वामपंथी विचारकों का वर्चस्व शुरु से ही बना हुआ है। और तुलसी दास के भी समय में कौन सा काशी का पण्डित मुग़ल दरबार का सीधा भागीदार था?

उच्च साहित्य की सारी वर्जनाओं और उनके द्वारा जनता की नैतिक रक्षा के बावजूद जनता की संस्कृति बेलाग रूप से चलती रहती है। और जनता उच्च साहित्य द्वारा प्रस्तावित दूसरी ‘जन-संस्कृति’ की घास को अछूता छोड़ देती है। बनारस में एक ऑटो यात्रा के दौरान कुछ भोजपुरी गीतों ने मेरे समेत दूसरे यात्रियों को तरंगित किया उनके बोल थे – ‘तनि सा जींस ढीला करा’ और ‘मीस्ड काल मारत आड़ू कीस देबू का हो, आपन मसिनिया में पीस देबू का हो’।

यह याद रखना चाहिये कि जो साहित्य न सीमाओं को तोड़ता है और न नए आसमानों की ओर पंख पसारता है वह मनुष्यता के विकास में कोई योगदान नहीं करता।



*अस्सी गंगा से ही निकली एक धारा का नाम है। वो जहाँ गंगा से वापस मिलती है उस घाट का नाम अस्सी है। इसी अस्सी और वरुणा के बीच बसे नगर को वाराणसी कहा गया। आजकल यह धारा नाला बन चुकी है।


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(मुम्बई से दूर अपने इस उत्तरभारतीय प्रवास के दौरान गिरिजेश राव और ज्ञानभाई से भी मिलना हुआ और पाया कि ये दोनों जितने बेहतर ब्लौगर हैं उतने ही बेहतर इन्सान भी)

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हिन्दी में कौन स्टार है?

पिछले दिनो कुछ रोज़ दिल्ली के अन्तराष्ट्रीय पुस्तक मेले में बीते। कई दोस्तो से मिलना हुआ। कुछ किताबें ख़रीदी और बहुत सारी देखीं। मेले मे ही लाल्टू के कविता संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग’ और गीत चतुर्वेदी के संग्रह 'आलाप में गिरह' के लोकार्पण में भी शिरकत हो गई। मित्र बोधिसत्व की नई किताब ’ख़त्म नहीं होती बात’ का भी विमोचन हुआ। बोधि उसमें नहीं पहुँच सके और संयोग से मैं भी मेले में होने के बावजूद नहीं पहुँच सका। जब पहुँचा तो किताब को मोक्ष मिल चुका था।

मेले में ख़ूब भीड़ थी। हिन्दी किताबों के हॉल नम्बर १२ में तो गज़ब की भीड़ थी। सभी प्रकाशकों के बड़े-बड़े स्टॉल्स थे। राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के तो इतने बड़े स्टॉल थे कि विमोचन करने और गपियाने के लिए एक अलग जगह निकाली गई थी। ये जगहें हिन्दी के लेखकों और विचारकों के आपस में टकराने का अड्डा भी थीं। मैं भी वहीं-कहीं उस संघर्षण के आस-पास बना हुआ था। तमाम दोस्त -ब्लॉगर और ग़ैर-ब्लॉगर- मिल रहे थे। दोस्तों और किताबों से भरी-भरी ये दुनिया बड़ी भली लग रही थी।

ऐसे ही किसी भले-भले पल में मेरे कान में लाउडस्पीकर से गूँजती आवाज़ आई कि राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी जी पाठकों के साथ, सीधी बातचीत और सुझावों के लिए उपलब्ध हैं। मेरे भीतर एक घंटी सी बजी। मेरे मन में हिन्दी किताबों की दुनिया को लेकर जो बाते हैं, उसे एक सही मंच पर कहने का इस से बेहतर मौक़ा नही मिलेगा। मैं राजकमल के स्टॉल की ओर चल पड़ा। वहाँ अनुराग वत्स पहले से मौजूद थे। अशोक जी एक गोल मेज़ पर दो-चार लोगों से गुफ़्तगू कर रहे थे। मैं बातचीत शुरु होने का इन्तज़ार करने लगा। पाँच-दस मिनट यूँ ही बीत गए तो समझ आया कि मंच जैसा कुछ होगा नहीं, जो भी कहना-सुनना है वो ऐसे ही मेज़ पर आमने-सामने बैठ कर होना है। तो हम ने जा कर अशोक जी की गोल मेज़ के गिर्द कुर्सियाँ सम्हाल लीं।मैं ने उनसे जो कहा उसका सार कुछ ऐसे हो सकता है;

मैंने अशोक जी से सवाल किया कि हिन्दी लेखक का हाल अंग्रेज़ी के लेखक की तुलना में इतना मरियल क्यों है? क्या वह इसलिए है कि वह घटिया लेखक है या इसके कुछ और कारण है? भारत का मध्यवर्ग हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ता लेकिन अंग्रेज़ी की किताबें ख़रीदता रहता है। हिन्दी साहित्य की दुनिया में कोई स्टार लेखक क्यों नहीं है?

जबकि हिन्दुस्तान के अंग्रेज़ी साहित्य की ओर देखिये तो तस्वीर एक्दम लग नज़र आती है। अंग्रेज़ी का प्रकाशन उद्योग न सिर्फ़ अपनी किताबों को लेकर एक आक्रामक रणनीति अपनाता है बल्कि अपने लेखको को चढ़ाने में भी जी-जान लगा देता है। अभी हाल के बुकर पुरुस्कार विजेता लेखक अरविन्द अडिगा की मिसाल लीजिये। उनकी किताब को बेहद मामूली गिनता हूँ मैं और दूसरे पढ़ने वाले भी। मगर सच्चाई ये है कि ये राय हमने किताब ख़रीदने कर पढ़ने के बाद क़ायम की है। आज अंग्रेज़ी के परिदृश्य में हाल ऐसा है कि किताब बाद में आती है लेखक पहले ही स्टार हो जाते हैं। प्रकाशक अपनी मार्केटिंग से ऐसा माहौल बना देते है, आम लोगों के मन में ऐसी जिज्ञासा पैदा कर देते हैं कि उनके मन में किताब ख़रीदने की प्रेरणा जाग उठती है।

उनके इस काम में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों तरह का मीडिया उनका ख़ूब सहयोग करता है। वे पुरस्कारों के ज़रिये लेखकों का बाज़ार गर्म करना जानते हैं और साथ ही लगातार अख़बारों में बैस्टसैलर सूची प्रकाशित करके पाठकों को ख़रीदी जा सकने वाली किताबों के प्रति धकेलते भी रहते हैं। जबकि हिन्दी में कोई प्रकाशक ऐसा करने में रुचि नहीं रखता और पु्रस्कारों की तो अलग राजनीति ही चल पड़ी है। उस पर बात करुंगा तो विषयान्तर हो जाएगा।

मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशन उद्योग मार्केटिंग की दूसरी हद पर जा कर कचरे को हमारे गले में ठेलने लगे। लेकिन ये भी क्या बात हुई कि बाज़ार की ताक़त का इस्तेमाल अ़च्छी चीज़ के प्रसार के लिए करने से भी क़तरा जायं। पूरा प्रकाशन उद्योग पाठकों के बीच अपना माल बेचने के लिए किसी भी तरह की रणनीतियों के प्रति पूरी तरह उदासीन है। क्यों? क्या अख़बारों और टीवी के ज़रिये लेखकों और उनकी किताबों के प्रति जिज्ञासा पैदा करना इतना दुरूह है? क्यों हिन्दी के पास आज एक भी स्टार लेखक नहीं है?

विनोद कुमार शुक्ल एक अप्रतिम लेखक हैं, उनका लेखन हिन्दी में ही नही विश्व साहित्य में अनोखा है, अद्वितीय है। उदय प्रकाश भी बेहद मक़बूल कथाकार हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया के बाहर कोई उनके नाम भी नहीं जानता? जबकि अरविन्द अडिगा के नाम से बच्चों की परीक्षा में सवाल बनाया जा सकता है, क्यों? क्यों नहीं विनोद जी या उनके जैसे दूसरे साहित्यकारों को एक स्टार की बतौर चढ़ाया जा सकता?

मज़े की बात ये है कि अगर हिन्दी के पास कोई स्टार है तो वो एक लेखक नहीं एक आलोचक है- नामवर सिंह। ये बात मैं बिना उनकी आलोचकीय गरिमा पर कोई आक्षेप किए हुए कर रहा हूँ। आलोचक की साहित्य में अपनी जगह है लेकिन वो लेखक के लिए पाठक के हृदय में जो मुहब्बत जो अपनापन होता है, उसका स्थानापन्न कतई नहीं हो सकता।

अशोक जी ने मेरी बात शांति से सुनी और माना कि यह स्थिति का सही चित्रण है। लेकिन उनका कहना था कि हिन्दी में स्टार लेखक नहीं है यह कहना ठीक नहीं; कुँवर नारायण और कृष्णा सोबती भी किसी स्टार से कम नहीं। बैस्ट्सैलर सूची का आइडिया उन्हे अच्छा लगा पर अख़बारो के वर्तमान बाज़ारीकरण की सूरत में उसके आर्थिक पक्ष को पूरा कर पाने में ख़ुद को असमर्थ बताया।

उनसे जिरह करने के बजाय मैंने अपना दूसरा सवाल अशोक जी से इसी आर्थिक पक्ष के मुतल्ल्कि किया। हिन्दी में लेखकों और अनुवादकों को पैसे क्यों नहीं मिलते? जबकि अंग्रेज़ी में ये हाल नहीं है? इस के जवाब में उनका कहना था कि हिन्दी किताबों का अर्थशास्त्र जितनी गुंज़ाइश देता है, उतना वह अवश्य करते हैं। मैं ने उनसे कहा कि पुस्तक मेले में हिन्दी प्रकाशकों ने जितनी जगह ले रखी है और उन पर जिस तरह से जनता टूटी हुई है, उसे देखकर तो यह बिलकुल नहीं लगता कि हिन्दी साहित्य में कोई अर्थशास्त्रीय संकट है।

"मैं जिन-जिन लेखकों को जानता हूँ, उनमें से किसी ने अपनी किताब से पाँच-दस हज़ार से कमाई की बात नहीं बताई। हो सकता है कमलेशवर की किताब ’कितने पाकिस्तान’ या सुरेन्द्र वर्मा की ’मुझे चाँद चाहिये’ से अच्छी रॉयल्टी बनी हो, लेकिन वह उतनी नहीं हो सकती कि वे एक रोमान्टिक्स लिखकर पंकज मिश्रा की तरह जीवन की असुरक्षाओं से मुक्त हो पहाड़ो में विचरण करते रहें। अनुवादक के हाल तो पूछिये ही मत।" यह कहते-कहते अशोक जी का कोई फ़ोन आ गया। कुछ और लोग आ गए, वे उनसे मुख़ातिब हुए। मैं समझ गया मेरा समय समाप्त हुआ। मैं ने उन्हे मेरी बात सुनने का धीरज दिखाने के लिए धन्यवाद किया। और उन्होने खड़े होकर, हाथ मिला कर मुझे विदा किया।

मैं अशोक जी से यह नही कह पाया कि पुस्तकालयों से अलग आम पाठकों के बीच भी किताब का एक बाज़ार होता है, लेकिन हिन्दी प्रकाशक उसके प्रति उदासीन है। वेदप्रकाश शर्मा की किताबों के विज्ञापन आप को बस स्टेशन्स वगैरह पर दिख जायेंगे, लेकिन उदय प्रकाश की नहीं। क्या यह इसलिए है कि वेदप्रकाश पूरी तरह पाठकों पर निर्भर है और उदयप्रकाश के प्रकाशक पुस्तकालयों पर?

हिन्दी राजभाषा है और हर सरकारी संस्थान में हिन्दी की किताबें ख़रीदने का एक बजट होता है, चाहे वो किताबें पढ़ने वाला हो या न हो। इन संस्थाओं में कौन सी किताबें आएंगी और कौन सी नहीं यह फ़ैसला भी ऊँचे राजकीय अधिकारियों द्वारा सिफ़ारिश के आधार पर लिया जाता है। विडम्बना यह है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकालयों की यह ख़रीद ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बन गई है। बैठे-बैठे माल बिकता हो तो उस के लिए इधर-उधर दौड़ने की क्या ज़रूरत? जिसके चलते प्रकाशक आम पाठक को न तो किताब बेचने का कोई वितरण-तंत्र विकसित करने के लिए मशक्कत करते हैं और न उनके बीच प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था। की बात यह है कि हिन्दी किताबों की दुकानों के सम्पूर्ण अभाव के बावजूद हिन्दी साहित्य बना हुआ है और पढ़ा भी जा रहा है। मेले में आई भीड़ इसका साफ़ सबूत है।

पुस्तकालयों में किताबों की सिफ़ारिश करने वाले ही सचमुच आज हिन्दी प्रकाशकों के लिए असली स्टार्स हैं| प्रकाशकों के लिए और लेखकों के लिए भी। क्योंकि उनकी राय से ही प्रकाशक तय करते हैं कि किताब छपने योग्य है कि नहीं। तो इस तरह से राजतंत्र में भीतर तक धँसे यही गणमान्य जन लेखकों के भी माई-बाप हो जाते हैं। जबकि वेदप्रकाश शर्मा बिना किसी आलोचक की परवाह किए सीना चौड़ा कर के अपना सस्ता साहित्य छापता जाता है क्योंकि वह पाठको से सीधे सम्पर्क में है।



*अभी हाल में हिन्दी के कवि देवी प्रसाद मिश्र को उनकी डॉक्यूमेन्टरी ’फ़ीमेल न्यूड’ के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला है। इस की कहीं चर्चा नहीं है। एक कवि की अभिव्यक्ति के दूसरे इलाक़े में ऐसी उपलब्धि अंग्रेज़ी की दुनिया में अछूती न रह जाती। देवी भाई से मेरा परिचय इलाहाबाद के दिनों से है। मैं उनकी फ़िल्म अभी देख नहीं सका हूँ, लेकिन कविताओं में वे जितना संतुलन और संयोजन बरतते हैं उस से कल्पना की जा सकती है कि फ़िल्म ज़रूर पुरस्कार योग्य होगी। देवी भाई को मेरी बहुत बधाईयां और शुभकामनाएं।

रविवार, 25 अक्टूबर 2009

रचयिता की मृत्यु

इलाहाबाद के ब्लॉग सम्मेलन में मुझे भी बुलावा था, जाना तय भी था मगर आरक्षण नहीं मिला और ऐन मौक़े पर तबियत ने भी जवाब दे दिया। प्रकृति और संयोग दोनों के नकार को स्वीकार कर हम घर पर ही रुके रहे। अनूप जी और होनहार विनीत की रपटें और मसिजीवी की फ़िसलरपटें पढ़ता रहा- बहसें तमाम जो हुई उनसे विभक्ति से अधिक दुख दोस्तों से मिल न पाने का था। घर पर पड़े-पड़े जी बहलाने के लिए बोर्ग़्हेज़ पढ़ रहा था। उसमें कैल्विनवाद का ज़िक़्र आया। कैल्विनवाद को समझने के लिए पीटर वाटसन की आईडियाज़ पलटने लगा। उसे पलटते हुए देरिदा को बूझने लगा।

उसी सन्दर्भ में रोलाँ बात्थ भी याद आए और याद आई उनकी किताब माइथॉलजीस। एक और लेख का ज़िक्र देखा- डेथ ऑफ़ दि ऑथर। नेट पर खोजा तो मिल गया। पढ़ कर बाग़-बाग़ हो गया। नामवर जी ने इलाहाबाद के सम्मेलन में जो कहा वो मेरी उनसे जो उम्मीद थी उस से काफ़ी कम था। मेरा अनुमान था कि वो ब्लॉग माध्यम के अनोखेपन की दार्शनिक विवेचना करेंगे। निराशा हुई। फिर याद आया कि प्रमोद भाई कहते हैं हिन्दी में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है। है कोई रेमण्ड विलियम्स, वाल्टर बेन्जामिन या फ़ूको? सही है, कोई नहीं है। अचरज होता है कि इतनी अद्भुत बातें रोलाँ बात्थ १९६७-६८ में कर रहे थे, मेरे जन्म के साल, और हम हिन्दी में आज भी प्रेमचन्द के युग से ठीक से बाहर नहीं आ सके हैं? इस लेख को लिखे जाने के इतने सालों बाद भी हिन्दी में इस चेतना की सुगबुगाहट तक नहीं है? फिर प्रमोद भाई की बात- हिन्दी एक मरी हुई भाषा है। है कि नहीं पता नहीं, कुछ उनके धकेलने पर और कुछ अपनी भाषा के प्रति ज़िम्मेदारी के एहसास से दब कर एक दिन इस अनुवाद के नाम गया।

इस लेख में अनुवाद करते हुए वाक्य रचना में विराम चिह्नों के प्रयोग को ज्यों का त्यों छोड़ा गया है। कई जगह मैं पूर्ण विराम का इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन इस चिन्तन को मैं ऐसे रख कर ही देखना चाहता हूँ। वैसे भी हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत में भी विराम चिह्नो की परम्परा नहीं है, यह परम्परा सीधे योरोप से आई है। हिन्दी में आज भी पूर्ण विराम, कॉमा, कोष्ठक के अलावा और विराम चिह्न कम ही इस्तेमाल होते हैं। प्रमोद भाई जो मन की गतिविधि को उसके समूचेपन में पकड़ने की कोशिश सतत करते हैं, इन विराम चिह्नों से क़तराते रहते हैं शायद इसलिए कि पहले से जटिल-जटिल अलाप रहे पाठक विराम चिह्नों की जटिल झाड़ियों में न उलझ मरें। फिर भी मेरी इच्छा है कि लोग कोशिश करें और जटिल-पाठ करें।

हिन्दी में इस भाषा की परम्परा नहीं है, इसलिए पाठकों से थोड़े धीरज की उम्मीद है। रोलाँ बात्थ बीसवीं सदी के बड़े दार्शनिक नामों में से हैं, फ़्रांस की धरती से जो उत्तर आधुनिकता के दादाओं में जिनका नाम लिया जाता है उन में फ़ूको, लाकाँ, और देरिदा के साथ बात्थ भी शामिल हैं। इस लेख में बात्थ ने ऑथर और राइटर (स्क्रिप्टर) में भेद किया है जिसे मैंने रचयिता और लेखक (लिपिक) के रूप में अनूदित किया है।

रचयिता की मृत्यु : रोलाँ बात्थ

बालज़ाक अपनी कहानी सरासिने में, औरत के भेस में रहने वाले एक कैस्तरातो (नटुआ जिसे बचपन में ही बधिया किया गया हो) के सन्दर्भ में लिखते हैं: “ये स्वयं एक औरत थी, अपने एकाएक उपजे डर, बेदलील तरंगें, अपने मादरजाद खौफ़, बिलावजह की दिलेरी का मुज़ाहरा, अपने हौसलों और अपने लज़ीज़ नाज़ुक़ी जज़्बात के साथ’’। ये कौन है जो यूं बोल रहा है? क्या ये औरत के भेस में छिपे कैस्तरातो की उपेक्षा से चिंताग्रस्त कहानी का नायक है? या अपने निजी अनुभवों से औरत के दर्शन से समृद्ध बालज़ाक नाम का आदमी है? या फिर रचयिता बालज़ाक, जो स्त्रीत्व के बारे में कुछ साहित्यिक विचारों की व्याख्या कर रहा है? क्या यह सार्वभौमिक ज्ञान है? या रूमानी मनोविज्ञान? यह जानना कभी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सारा लेखन एक विशेष प्रकार की वाणी है जिसमें समाई होती हैं दूसरी कई अनजानी वाणियां। और साहित्य इसी विशेष प्रकार की वाणी का आविष्कार है जिसके उद्गम का हम कोई निर्धारण नहीं कर पाते: साहित्य है वह तटस्थ, मिला-जुला, तिर्यक आयाम जिसमें पलायित हो जाते हैं सभी विषय, वो जाल जिसमें खो जाती हैं सभी पहचान, सर्वप्रथम उस व्यक्ति की पहचान जो उसे लिखता है।

सम्भवतः हमेशा यही मामला रहता है: जब कभी कुछ वर्णन किया जाता है, वास्तविकता पर किसी सीधी प्रतिक्रिया के लिए नहीं वरन अकर्मक लक्ष्य के लिए – यानी किसी भी क्रिया से अन्ततः परे लेकिन प्रतीक के ठीक-ठीक प्रयोग में - तब होता है यह अलगाव, वाणी अपना उद्गम खो देती है, रचयिता प्राप्त होता है अपनी मृत्य को, लेखन आरम्भ होता है। तब पर भी इस परिघटना को लेकर भावना मिली-जुली रही है; प्राचीन समाजों में, वृत्तान्त कभी एक व्यक्ति की ज़िम्मेवारी नहीं रही, बल्कि एक माध्यम की, ओझा की या वक्ता की, जिसके प्रदर्शन (वृत्तान्त संग्रह की उसके कौशल) पर श्रद्धा हो सकती थी परन्तु उसकी मेधा पर नहीं। रचयिता एक आधुनिक आकृति है, जो पैदा हुई है बेशक़ हमारे समाज (पश्चिमी योरोप) द्वारा ही मध्ययुग के अन्त में, अंग्रेज़ी व्यवहारवाद, फ़्रांसीसी बुद्धिवाद और सुधारआन्दोलन की निजी आस्था से उपजी एक निर्मिति। जिसने खोजी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, और उदार शब्दों में कहें तो, ‘मानवीय व्यक्ति’ की प्रतिष्टा। इसीलिए यह तार्किक लगता है कि साहित्य की दृष्टि से, पूँजीवादी चिन्तन के सार व परिणाम, प्रत्यक्षवाद ने ही रचयिता के व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है। साहित्यिक इतिहास के गुटकों में, रचयिताओं की आपबीतियों में, पत्र-पत्रिकाओं के साक्षात्कारों में, यहाँ तक कि साहित्यिक लोगों की स्मरण में भी रचयिता आज भी राज करता है, अपने निजी डायरियों के ज़रिये अपने कृतित्व और अपने व्यक्तित्व को एकरूप करने के लिए बेचैन। समकालीन संस्कृति में मौजूद साहित्य की छवि अत्याचार की हद तक रचयिता पर केन्द्रित है, उस का व्यक्तित्व, उसका इतिहास, उसकी पसन्द, उसके शौक़; आलोचना भी यही होती है कि बॉदलेयर का काम बॉदलेयर व्यक्ति की असफलता है, वैन गॉह का काम उसकी विक्षिप्तता, त्चैकोवस्की का उसके अवगुण: कृति की व्याख्या उस आदमी में खोजी जाती है जिसने उसे रचा है जैसे कि गल्प के कमोबेश पारदर्शी रूपक के ज़रिये ये हमेशा अन्ततः उस ही एक व्यक्ति, रचयिता, की वाणी थी जिसने उसकी गोपनीयता का उद्घाटन किया।

हालांकि रचयिता का साम्राज्य अभी भी बहुत मज़बूत है ( हालिया आलोचना ने उसे और सुदृढ ही किया है), यह ज़ाहिर है कि एक लम्बे समय से कुछ निश्चित लोगों ने उसकी चूलें हिलाने के प्रयास किए हैं। फ़्रांस में, मलाहमे सबसे पहले थे जिन्होने पूर्वानुमान लगाया और उसके पूरे विस्तार में समझा कि अभी तक आदमी जिस स्थान पर स्वामित्व का दावा कर रहा था उस आदमी की जगह पर भाषा को रखने की ज़रूरत है। मलाह्मे के लिए, और हमारे लिए भी, वो भाषा है जो बोलती है, रचयिता नहीं : लिखना पहुँचना है, एक पहले से मौजूद व्यक्तित्वहीनता के ज़रिये- यथार्थवादी उपन्यासकार की बधिया तटस्थता के ज़रिये नहीं – वह बिन्दु जहाँ भाषा मात्र ही काम करती है, ‘निष्पादन’ करती है, ‘हमारा स्वत्व’ नहीं। मलाह्मे का सम्पूर्ण काव्यशास्त्र लेखन के हित में रचयिता का दमन करने में ही निहित है (जो, हम देखेंगे, पाठक की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए है।) आत्म के मनोविज्ञान को ढोते हुए वैलरी ने मलाह्मे की प्रस्थापना को नर्म तो बनाया, साथ ही आलंकारिकता के सबक़ पर शास्त्रीयता को वरीयता दे कर उन्होने रचयिता पर सवाल खड़े किए और हँसी उड़ाई, और उसकी गतिविधि के भाषिकी और ‘सांयोगिक’ प्रकृति पर ज़ोर दिया, और उनके गद्य ने लगातार साहित्य की मौखिक स्थिति का समर्थन किया जिसके सम्मुख रचयिता की हीनता की कोई भी शरण लेना उनको शुद्ध अन्धविश्वास लगा। यह साफ़ है कि स्वयं प्रुस्त ने भी, उनके विश्लेषणों के ज़ाहिरा मनोवैज्ञानिक चरित्र के बावजूद रचयिता और उसके चरित्रों के बीच के सम्बन्धों को, एक चरम सूक्ष्मता के ज़रिये, निर्दयता से धूमिल करने का काम किया : कथावाचक को एक ऐसा व्यक्ति बना कर- जो लिखेगा, न कि जो लिख रहा है, या जिसने देखा और महसूस किया। (उपन्यास का नौजवान – पर, कौन है ये, क्या उमर है इसकी? - लिखना चाहता है पर लिख नहीं पाता और उपन्यास वहाँ समाप्त हो जाता है जब अन्ततः लेखन सम्भव हो पाता है) प्रुस्त ने आधुनिक साहित्य को उसका महाकाव्य दिया है : एक मूलभूत विपर्यय के द्वारा; बजाय अपने जीवन को उपन्यास में डालने के, जैसा कि कहा जाता है, वे अपने जीवन को एक ऐसा काम बना डालते हैं जिसके लिए एक तरह से उनकी अपनी किताब एक नमूना थी, ताकि ये हम पर साफ़ज़ाहिर रहे कि ये चार्लि नहीं है जो मन्तेसकियू का अनुकरण करता है बल्कि मन्तेसकियू अपने क़िस्साई, ऐतिहासिक सच्चाई में एक गौण अंश है जो चार्लि से उपजा है। आधुनिकता के इस पूर्वइतिहास पर बने रहने के लिए अब आखिर में अतियथार्थवाद : अतियथार्थवाद बेशक़ भाषा को एक स्वायत्त दरज़ा नहीं दे सका, चूंकि भाषा एक व्यवस्था है, और इस आन्दोलन का (रूमानी) मक़सद ही सारी नियमावलियों को छिन्न-भिन्न करना था – एक आभासी छिन्न-भिन्नता, क्योंकि कोई नियमावली नष्ट नहीं की जा सकती, केवल उसके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है; लेकिन अपेक्षित अर्थों को झटके से भंग कर के (अतियथार्थवादियों का प्रख्यात झटका), जिस चीज़ को सिर अनदेखा कर जाता है उसके लेखन की ज़िम्मेदारी शीघ्रातिशीघ्र हाथ को देकर (यह था स्वचालित लेखन), सामूहिक लेखन का सिद्धान्त और अनुभव स्वीकार कर के, अतियथार्थवाद ने लेखक की छवि को लौकिक बनाने में मदद की। और अन्त में, साहित्य की दुनिया से बाहर (वास्तव में, ये सारी भिन्नताएं लांघी जा रही हैं) भाषाशास्त्र ने बहुमूल्य वैश्लेषिक औज़ार के साथ रचयिता का विनाश सम्पन्न कर दिया है यह दिखाकर कि अपनी समूचेपन में प्रगटीकरण एक खोखली प्रक्रिया है जो उस खाली जगह पर किन्ही संभाषी व्यक्तियों को रखे बिना ही अच्छी तरह काम करती है। भाषिकी तौर पर, रचयिता कभी भी लिखने वाले से अधिक कुछ नहीं है, जैसे कि मैं, मैं कहने वाले से ज़्यादा कुछ नहीं है : भाषा एक कर्ता को जानती है, व्यक्ति को नहीं, इस कर्ता का अन्त कर दो, तो ठीक इस प्रगटीकरण के बाहर की शून्यता जो इसे परिभाषित करती है, वही काफ़ी है भाषा के ‘कर्म’ द्वारा इसे खाली कराने के लिए।

रचयिता की अनुपस्थिति (ब्रेष्ट के मामले में रचयिता साहित्यिक मंच के एक कोने में सिमट जाता है, इसे हम कह सकते हैं सचमुच का विलगाव) मात्र कोई लिखने की प्रक्रिया या ऐतिहासिक सच ही नहीं है : इस ने आधुनिक पाठ को पूरी तरह से रूपान्तरित कर दिया है। (या – जो कि एक ही बात है – अब पाठ ऐसे लिखा और पढ़ा जाता है कि उस में से, हर स्तर पर, रचयिता स्वयं को अनुपस्थित कर लेता है) समय, सबसे पहले, भी वह नहीं रहा। रचयिता, जब हम उस पर भरोसा करते हैं, की कल्पना हम उसकी किताब के भूतकाल की तरह करते हैं : किताब और रचयिता अपने आप ही एक ही रेखा में अपनी जगह लेते हैं, पूर्व और पश्चात के रूप में, रचयिता से अपेक्षित होता है कि वह किताब को भोजन दे – मतलब कि, वह पहले होता है, सोचता है, उसके लिए जीता है; अपने काम के साथ पूर्ववर्ती होने का वह वही सम्बन्ध निभाता है जो एक पिता अपने बच्चे के साथ। इसके ठीक विपरीत, आधुनिक लेखक (लिपिक) अपने पाठ के साथ ही जन्मता है। किसी भी तौर पर उसे ऐसी कोई हस्ती नहीं मिलती जो उसके लेखन से पहले से हो और बढ़ कर भी हो, वह किसी भी तौर पर वह कर्ता नहीं है जिसका कि उसकी किताब कथन है, प्रगटीकरण के अलावा कोई दूसरा समय नहीं है, और हर पाठ शाश्वत रूप से अभी और यहीं लिखा जाता है। यह इसलिए है (या : इसके परिणाम स्वरूप है) अब लेखन का अर्थ अभिलेखन, अवलोकन, निरूपण, चित्रण की प्रक्रिया (जैसे कि शास्त्रीय लेखक कहते हैं) नहीं हो सकता, बल्कि जिसे भाषाशास्त्री, ऑक्सफ़ोर्ड स्कूल की शब्द सम्पदा का अनुकरण करते हुए, निष्पादात्मक कहते है, एक विरल क्रियात्मक रूप (विशिष्ट रूप से केवल प्रथम पुरुष और वर्तमान काल के लिए सुरक्षित) जिसमें कि प्रगटीकरण में कोई और कथ्य नहीं, सिवा उस क्रिया के जिस के द्वारा वह प्रगट किया गया : पूर्वकालिक चारणों की चरणवन्दना की तरह ; आधुनिक लेखक, ‘रचयिता’ को दफ़नाने के बाद अब यह मान नहीं सकता, अपने पूर्ववर्तियों की दयनीय नज़रिये की तरह, कि उसका हाथ उसके विचारों और आवेगों के लिए बहुत मन्द है, जिसके परिणामस्वरूप, आवश्यक्ता को नियम में ढालते हुए, उसे इस अन्तराल को भरना होगा और अनन्तकाल तक अपने शिल्प का मांजना होगा; इसके विपरीत उसके लिए, उसका हाथ किसी भी वाणी से स्वतन्त्र होकर, अंकण (अभिव्यक्ति नहीं) की एक शुद्ध चेष्टा से भरा हुआ, खींचता है एक निर्मूलक क्षेत्र – या जिसका, कम से कम, सिवा भाषा के और कोई मूल नहीं, यानी कि वही एक तत्व जो लगातार हर उत्पत्ति पर प्रश्न उठाती चलती है।

हम जानते हैं कि कोई पाठ सिर्फ़ शब्दों की एक पंक्ति भर ही नहीं होता, जिस से मात्र एक ‘धर्मशास्त्रीय’ अर्थ (लेखकीय ईश्वर का संदेश) निकले बल्कि होता है कई पहलुओं वाला एक आयाम, जिस में तमाम तरह के लेख जड़े और लड़े होते हैं, और जिन में कोई भी मौलिक नहीं होता : संस्कृति के हज़ार मुखों से निकला, पाठ उद्धरणों का एक तन्तु है। हमेशा के नक़लची बूवा और पेक्यूशे की तरह, एक साथ ही उदात्त और हास्यास्पद दोनों और जिनकी गहन निरर्थकता लेखन के सच को ठीक-ठीक दिखाती है, लेखक केवल हमेशा अपनी पूर्ववर्ती चेष्टा की नक़ल भर कर सकता है, मौलिक कभी नहीं हो सकता; उसकी सारी सामर्थ्य विभिन्न प्रकार के लेखन का मिश्रण करने में है, और एक को दूसरो के विरुद्ध खड़ा करने में है, ताकि उसे कभी किसी एकमात्र पर ही निर्भर न हो जाना पड़े; अगर वह स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है, तो कम से कम उसे पता होना चाहिये कि वह आन्तरिक ‘तत्व’, जिसका वह ‘रूपान्तरण’ करने का दावा करता है, अपने आप में एक पहले से तैयार शब्दकोष है जिसके शब्दों की व्याख्या (परिभाषा) केवल दूसरे शब्दों के द्वारा ही की जा सकती है, और दूसरे शब्दों की और दूसरे शब्दों से, और ऐसे ही अनन्त काल तक :, ग्रीक भाषा में विशेष प्रतिभा सम्पन्न, नौजवान डि क्विन्सी का एक अनुकरणीय अनुभव हमारे सामने है, ऐसा बॉदलेयर बताते हैं कि, उस मृत भाषा में कुछ विशेष अत्याधुनिक विचारों और छवियों का अनुवाद करने के लिए, “उन्होने तैयार किया शुद्ध साहित्यिक विषयों के अश्लील धैर्य से उपजने वाले से भी अधिक विस्तृत और जटिल एक शब्दकोष” (पैरादिस आर्तिफ़िसियल)। रचयिता के परवर्ती होने के बाद, लेखक आवेग, परिहास, भाव, छाप, अपने भीतर नहीं रख सकता बल्कि रखता है वह विशाल शब्दकोष जिससे वह हासिल करता है लेखन, जो न रुकता है और न खत्म होता है ; जीवन किताब की नक़ल करने से अधिक कुछ नहीं करता और किताब स्वयं किसी खोये हुए, अनन्त दूरी पर स्थित, संकेतों का तन्तु है।

एक बार जब रचयिता विदा हो गया, तो पाठ के रहस्योद्घाटन का दावा भी बिलकुल अर्थहीन हो जाता है। किसी पाठ को एक रचयिता के हवाले करना उस पाठ को एक सीमा में बाँधना है, उसको एक अन्तिम अर्थ तक पहुँचा कर लेखन को समाप्त करना है। यह परिकल्पना आलोचना को बिलकुल जंचती है, जो अपने लिए पाठ के पीछे से रचयिता की खोज (या उसकी प्रस्थापनाएं : समाज, इतिहास, अन्तर्मन, स्वतन्त्रता) का एक बड़ा बीड़ा उठा सकती है: एक बार जब रचयिता की खोज हो गई तो पाठ की व्याख्या भी हो जाती है और आलोचक विजयी होता है; इसलिए ये ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि ऐतिहासिक तौर पर रचयिता का युग आलोचक का भी युग हो, और आलोचना (“नई आलोचना” भी) को भी रचियता के साथ उखाड़ फेंकना चाहिये। लेखन की बहुलता में, वास्तव में, हर एक की विशिष्टता है पर व्याख्या किसी की नहीं; संरचना जारी रह सकती है, अपनी चरणों के सारी पुनरावृतियों में (किसी मोज़े के तरह) बिनी हुई, मगर जिसके नीचे कोई धरातल नहीं है; लेखन के आयाम से गुज़रा जा सकता है उसे भेदा नहीं जा सकता : लेखन लगातार अर्थ को स्थान देता है लेकिन हमेशा बिला जाने के लिए : लेखन, अर्थ के एक व्यवस्थाबद्ध विमोचन की ओर बढ़ता है। और इस रास्ते से साहित्य (वैसे अब से लेखन कहना अच्छा होगा), पाठ को कोई रहस्य, या उसका परम अर्थ, देने से इन्कार कर के, एक ऐसी गतिविधि को मुक्ति प्रदान करता है जिसे धर्मशास्त्र विरोधी कहा जा सकता है, और सच में क्रांतिकारी, क्योंकि अर्थ को जड़ करने से इन्कार करना ईश्वर और उसके प्रस्थापनाओं तर्क, विज्ञान और विधि से इन्कार करना है।

चलिये बालज़ाक के वाक्य पर वापस लौटते हैं : वह किसी का (यानी किसी व्यक्ति का) कथन नहीं है : इस वाणी के स्रोत का पता नहीं चलता; फिर भी सब कुछ समझ में आता है; वह इसलिए कि लेखन का असली बिन्दुपथ पठन है। इसे एक और विषेश उदाहरण से समझते हैं : हालिया शोधों (जे पी वेरनाँ) ने ग्रीक त्रासदी के मूलभूत श्लेषात्मक स्वभाव पर प्रकाश डाला है, उनका पाठ ऐसे शब्दों से बुना हुआ है जो द्विअर्थी हैं, पर हर चरित्र उनका एक ही अर्थ लेता है (त्रासदी का अर्थ, लगातार होने वाली ऐसी ही ग़लतफ़हमी से ही है); फिर भी कोई है जो हर शब्द को उसके द्वैधता में समझता है, और यह भी कहा जा सकता है कि अपने सामने खड़े चरित्रों के बहरेपन को भी समझता है : यह कोई और नहीं पाठक है (यहाँ दर्शक)। इस तरह से लेखन के सारा अस्तित्व सामने आ जाता है : एक पाठ के भीतर कई लेख होते हैं विभिन्न संस्कृतियों से आए और एक दूसरे के साथ संवाद में, विद्रूप में, और संघर्ष में संलग्न; लेकिन एक जगह है जहाँ ये सारी विविधता एकत्र होती है, एकजुट होती है, और यह जगह रचयिता नहीं है, जैसा कि हम अभी तक कहते आ रहे हैं कि थी, बल्कि पाठक है। पाठक ही वह आयाम है जहाँ किसी भी लेखन के भीतर के सारे उद्धरण, बिना खोये अंकित होते हैं; किसी भी पाठ की एकता उसके उद्गम में नहीं बल्कि उसके गन्तव्य में है; लेकिन वह गन्तव्य अब निजी नहीं रह सकता ; पाठक एक ऐसा आदमी है जिसका कोई इतिहास नहीं, कोई जीवनी नहीं, कोई मनोविज्ञान नहीं; वह मात्र एक कोई है जो पाठ के भीतर निर्मित विभिन्न राहों को एक क्षेत्रीय इकाई में थामे रखता है। इसीलिए पाठक के अधिकारों के स्वनियुक्त और पाखण्डी हिमायतियों द्वारा, मानवतावाद के नाम पर, नवलेखन की निन्दा करना बिलकुल अनर्गल है। शास्त्रीय आलोचना का सरोकार कभी भी पाठक नहीं रहा है; उसके लिए साहित्य में लिखने वाले के अलावा दूसरा कोई है ही नहीं। इस तरह के अन्तरविरोधी जुमलों का कपट अब नहीं चल सकता जिनके ज़रिये हमारा सभ्य समाज गर्व से उनकी हिमायत करता है जो उसी के द्वारा अस्वीकृत हैं, उपेक्षित हैं, जिनका गला घोटा जाता है और नष्ट किया जाता है; हम जानते हैं कि लेखन के भविष्य की प्रतिष्ठा के लिए, हमें उसके मिथक को उलटना होगा ; पाठक के जन्म की फ़िरौती रचयिता को अपनी मृत्यु से चुकानी होगी।
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मंगलवार, 20 अक्टूबर 2009

एक अद्भुत लेखक से परिचय

ऑरहे लुइस बोर्ग़्हेस* का रचना संसार एक ऐसा विद्वतापूर्ण जटिल और सघन दलदल है जिसमें आप उतरने से क़तरा सकते हैं। पहले वाक्य से ही वो आप को डरा सकता हैं आतंकित कर सकता है अनजाने नामों, सन्दर्भों और लोकों से। लेकिन उस साहसी पाठक के लिए जो न घबराया- न डरा, ये कहानियां बौद्धिक आनन्द का उम्दा ईनाम है।

बोर्ग़्हेस की रचनाओं के बारे में यह तय काना मुश्किल होता है कि वे दार्शनिक संवाद है जिनके भीतर कहानी के अद्भुत तत्व विद्यमान हैं या फिर वे कमाल की कहानियां हैं जो गहरे दार्शनिक अर्थों से लबरेज़ हैं।

आम तौर पर कहानियां ऐसी होती हैं कि आप एक पंक्ति का एक शब्द पढ़कर नीचे उतरते चले जाइये, सुपरमैन की तरह सुपरस्पीड से पढ़ते हुए। लेकिन बोर्ग़्हेस की कहानी में कोई वाक्य कूद कर आगे नहीं जा सकते। हर वाक्य एक नया आयाम उद्घाटित करता है। एक नयी परत खोलता है। पुराना अर्थ तोड़ता है, एक नया अर्थ जोड़ता है।

बौद्धिक तेज से चमचमाती ये कहानियां पढ़ कर ऐसा लगा जैसे कि बीस वर्ष पहले के दौर में लौट गया हूँ जब पहली बार मिलान कुन्देरा पढ़कर या बुनुएल की फैन्टम ऑफ़ लिबर्टी और ओब्सक्योर ऑबजेक्ट ऑफ़ डिज़ायर देखकर एक बौद्धिक सनसनी हुई थी। शायद काफ़्का के बाद बोर्ग़्हेस दुनिया के अकेले ऐसे लेखक होंगे जिन्होने अपने समय को सबसे अधिक प्रभावित किया।

बोर्ग़्हेस पोस्ट-मार्डनिस्म के अस्तित्व में आने से पहले ही वे एक पोस्ट-मार्डनिस्ट थे। वे यथार्थवादी नहीं बल्कि अल्ट्राइस्ट थे। उनका यथार्थ जैसा यथार्थ नहीं है, और स्वप्न ठीक ठीक स्वप्न ही है यह नहीं माना जा सकता है। दोनों एक दूसरे में घुलते हुए से हैं। कब स्वप्न की तरलता यथार्थ की तरह ठोस हो जाए और यथार्थ का घनत्व पिघल कर कैसा अचरजी रंग बदल ले आप तय नहीं कर सकते। उनकी हर कहानी कुछ विशेष विषय के गिर्द ही चलती है - अनन्त, असीम, भ्रम, माया, स्वप्न, परतदार सत्य, लैबीरेन्थ (जटिल भूलभुलैया या सघन गोरखी दुनिया), समय; वर्तुलाकार या चक्राकार समय।


उनकी एक मशहूर कहानी है -पियर मेनार, ऑथर ऑफ़ द ‘कीहोटि’। लेखकीय मौलिकता के ऊपर ऐसी मौलिक कहानी पहले नहीं पढ़ी थी। यह एक ऐसे लेखक की कथा जो सरवान्तीज़ के डॉन कीहोटि की पुनर्रचना में कुछ इस तरह जुटता है कि उसका एक एक लफ़्ज़ सरवान्तीज़ के साथ मेल खाता है मगर विश्लेषक या पाठक के लिए उसके अर्थ भिन्न हो जाते हैं क्योंकि उनकी देश काल परिस्थिति भिन्न है।

मिसाल के तौर पर एक और कहानी है ‘लाइब्रेरी ऑफ़ बेबेल’, जिसमें लाइब्रेरी ब्रह्माण्ड का एक रूपक है- ये अनन्त लाइब्रेरी एक विशाल खगोल है जो अनगिनत षटभुजों से मिलकर बनी है, जिसका केद्र तो हर एक षटभुज है पर परिधि कहीं नहीं। लाइब्रेरी सम्पूर्ण है, जिस में एक जैसी कोई भी दो किताबें नहीं हैं। और उसकी आलमारियों में २२ लेखन चिह्नों के सभी समुच्च्य मौजूद हैं। चूंकि लाइब्रेरी में सभी सम्भव लेखन उपस्थित है इसलिए दुनिया की हर समस्या, निजी और सामाजिक का हल लाइब्रेरी के किसी न किसी कोने में रखी किसी किताब के भीतर लिखा हुआ है। और इन्ही किताबों के बीच एक ऐसी किताब भी है जो कि है सम्पूर्ण किताब, जो कि बाक़ी सभी किताबों की कुंजी- सभी किताबों के रहस्य अपने भीतर छिपाये हुए है। बावजूद इस सब के लाइब्रेरी में अशांति है, अराजकता है, हताशा है..कुछ लोग किताबें जला रहे हैं, कुछ उस दिव्य किताब की खोज में विचित्र प्रयोग कर रहे हैं।

बोर्ग़्हेस की कहानियों के भीतर के कल्पनालोक में काल्पनिक लेखकों की काल्पनिक किताबें होती हैं एक नहीं तमाम। ऐसा माना जा सकता है कि ये सारी किताबें वो किताबें है जो बोर्ग़हेस स्वयं लिखना चाहते थे चूंकि उनका मानना है कि पांच सौ पन्नो की किताबें लिखने की मशक्कत एक ऐसा व्यर्थ का पागलपन जो आप के बहुमूल्य समय पर डाका डालता है, जबकि वही बात आप पांच मिनट में मुँहज़बानी सुना सकते हैं। बेहतर ये है कि मान लिया जाय कि वो किताबें पहले ही लिखीं जा चुकी हैं और सिर्फ़ उन पर टिप्पणी लिखी जाय।

पेंग्विन ने उनकी कहानियों के सारे संग्रह छापे हैं। लेकिन सबसे बेहतरीन कहानियां ‘फ़िक्शन्स’ नाम के संग्रह में संकलित है। अगर आप कहानियों के घिसे-पिटे सुर से ऊब चुके हैं तो ज़रूर आज़माईये बोर्ग़्हेस को- नाउम्मीद नहीं होंगे।




*Borges के उच्चारण को लेकर भी एक विविधता है- जो उन पर जंचती है। हिन्दी भाषी लोग इसे आम तौर पर बोर्जेस पढ़ेंगे मगर अगर आप Borges के हिन्दी अनुवाद देखेंगे तो आप को वहाँ बोर्ख़ेस लिखा मिलेगा-हिन्दी के विद्वजन भी यही उचारते मिलेंगे। G किस नियम के अनुसार ख़ में बदल जाएगा, को लेकर मेरे भीतर एक हलचल मची रही। मैंने डिक्शनरी डॉट कॉम पर देखा तो वहाँ उचारण मिला- ऑरहे लुइस बोर्हेस। यह सही भी है क्योंकि स्पेनी फ़िल्मों में Jorge (George) को ऑरहे ही बोला जाता है। लेकिन जब मैं इसे बातचीत में बोरहेस-बोरहेस बोलने लगा तो उलझन सी होने लगी। G की छवि को ह की तरह बोलने में तक़लीफ़ हो रही है बावजूद इसके कि प्रसिद्ध चित्रकार Modigliani को हम मोदिहलियानी ही कह कर बुलाते सुन सकते हैं। फिर मेरी पत्नी तनु ने मुझ से कहा कि बोरहेस का जो ह है वह हलक़ से निकलना चाहिये, अरबी के हलक़ वाले हे की तरह। मैंने बोलकर देखा- बेहतर लगा। फिर भी मुझे सन्तोष नहीं हुआ। फिर ख्याल आया कि G को ग भी तो बोला जा सकता है और उसे अगर ग़ैन वाले ग़ की तरह बोला जाय तो कैसा रहे? तो हुआ बोरग़ेस मगर डिक्शनरी डॉट कॉम का उच्चारण इससे मेल नहीं खाता। लिहाज़ा मैंने दोनों को मिला दिया और पाया – बोर्ग़्हेस। ये काफ़ी कुछ असली उच्चारण के क़रीब है।
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