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रविवार, 25 अक्टूबर 2009

रचयिता की मृत्यु

इलाहाबाद के ब्लॉग सम्मेलन में मुझे भी बुलावा था, जाना तय भी था मगर आरक्षण नहीं मिला और ऐन मौक़े पर तबियत ने भी जवाब दे दिया। प्रकृति और संयोग दोनों के नकार को स्वीकार कर हम घर पर ही रुके रहे। अनूप जी और होनहार विनीत की रपटें और मसिजीवी की फ़िसलरपटें पढ़ता रहा- बहसें तमाम जो हुई उनसे विभक्ति से अधिक दुख दोस्तों से मिल न पाने का था। घर पर पड़े-पड़े जी बहलाने के लिए बोर्ग़्हेज़ पढ़ रहा था। उसमें कैल्विनवाद का ज़िक़्र आया। कैल्विनवाद को समझने के लिए पीटर वाटसन की आईडियाज़ पलटने लगा। उसे पलटते हुए देरिदा को बूझने लगा।

उसी सन्दर्भ में रोलाँ बात्थ भी याद आए और याद आई उनकी किताब माइथॉलजीस। एक और लेख का ज़िक्र देखा- डेथ ऑफ़ दि ऑथर। नेट पर खोजा तो मिल गया। पढ़ कर बाग़-बाग़ हो गया। नामवर जी ने इलाहाबाद के सम्मेलन में जो कहा वो मेरी उनसे जो उम्मीद थी उस से काफ़ी कम था। मेरा अनुमान था कि वो ब्लॉग माध्यम के अनोखेपन की दार्शनिक विवेचना करेंगे। निराशा हुई। फिर याद आया कि प्रमोद भाई कहते हैं हिन्दी में कोई भी बुद्धिजीवी नहीं है। है कोई रेमण्ड विलियम्स, वाल्टर बेन्जामिन या फ़ूको? सही है, कोई नहीं है। अचरज होता है कि इतनी अद्भुत बातें रोलाँ बात्थ १९६७-६८ में कर रहे थे, मेरे जन्म के साल, और हम हिन्दी में आज भी प्रेमचन्द के युग से ठीक से बाहर नहीं आ सके हैं? इस लेख को लिखे जाने के इतने सालों बाद भी हिन्दी में इस चेतना की सुगबुगाहट तक नहीं है? फिर प्रमोद भाई की बात- हिन्दी एक मरी हुई भाषा है। है कि नहीं पता नहीं, कुछ उनके धकेलने पर और कुछ अपनी भाषा के प्रति ज़िम्मेदारी के एहसास से दब कर एक दिन इस अनुवाद के नाम गया।

इस लेख में अनुवाद करते हुए वाक्य रचना में विराम चिह्नों के प्रयोग को ज्यों का त्यों छोड़ा गया है। कई जगह मैं पूर्ण विराम का इस्तेमाल कर सकता था, लेकिन इस चिन्तन को मैं ऐसे रख कर ही देखना चाहता हूँ। वैसे भी हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत में भी विराम चिह्नो की परम्परा नहीं है, यह परम्परा सीधे योरोप से आई है। हिन्दी में आज भी पूर्ण विराम, कॉमा, कोष्ठक के अलावा और विराम चिह्न कम ही इस्तेमाल होते हैं। प्रमोद भाई जो मन की गतिविधि को उसके समूचेपन में पकड़ने की कोशिश सतत करते हैं, इन विराम चिह्नों से क़तराते रहते हैं शायद इसलिए कि पहले से जटिल-जटिल अलाप रहे पाठक विराम चिह्नों की जटिल झाड़ियों में न उलझ मरें। फिर भी मेरी इच्छा है कि लोग कोशिश करें और जटिल-पाठ करें।

हिन्दी में इस भाषा की परम्परा नहीं है, इसलिए पाठकों से थोड़े धीरज की उम्मीद है। रोलाँ बात्थ बीसवीं सदी के बड़े दार्शनिक नामों में से हैं, फ़्रांस की धरती से जो उत्तर आधुनिकता के दादाओं में जिनका नाम लिया जाता है उन में फ़ूको, लाकाँ, और देरिदा के साथ बात्थ भी शामिल हैं। इस लेख में बात्थ ने ऑथर और राइटर (स्क्रिप्टर) में भेद किया है जिसे मैंने रचयिता और लेखक (लिपिक) के रूप में अनूदित किया है।

रचयिता की मृत्यु : रोलाँ बात्थ

बालज़ाक अपनी कहानी सरासिने में, औरत के भेस में रहने वाले एक कैस्तरातो (नटुआ जिसे बचपन में ही बधिया किया गया हो) के सन्दर्भ में लिखते हैं: “ये स्वयं एक औरत थी, अपने एकाएक उपजे डर, बेदलील तरंगें, अपने मादरजाद खौफ़, बिलावजह की दिलेरी का मुज़ाहरा, अपने हौसलों और अपने लज़ीज़ नाज़ुक़ी जज़्बात के साथ’’। ये कौन है जो यूं बोल रहा है? क्या ये औरत के भेस में छिपे कैस्तरातो की उपेक्षा से चिंताग्रस्त कहानी का नायक है? या अपने निजी अनुभवों से औरत के दर्शन से समृद्ध बालज़ाक नाम का आदमी है? या फिर रचयिता बालज़ाक, जो स्त्रीत्व के बारे में कुछ साहित्यिक विचारों की व्याख्या कर रहा है? क्या यह सार्वभौमिक ज्ञान है? या रूमानी मनोविज्ञान? यह जानना कभी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सारा लेखन एक विशेष प्रकार की वाणी है जिसमें समाई होती हैं दूसरी कई अनजानी वाणियां। और साहित्य इसी विशेष प्रकार की वाणी का आविष्कार है जिसके उद्गम का हम कोई निर्धारण नहीं कर पाते: साहित्य है वह तटस्थ, मिला-जुला, तिर्यक आयाम जिसमें पलायित हो जाते हैं सभी विषय, वो जाल जिसमें खो जाती हैं सभी पहचान, सर्वप्रथम उस व्यक्ति की पहचान जो उसे लिखता है।

सम्भवतः हमेशा यही मामला रहता है: जब कभी कुछ वर्णन किया जाता है, वास्तविकता पर किसी सीधी प्रतिक्रिया के लिए नहीं वरन अकर्मक लक्ष्य के लिए – यानी किसी भी क्रिया से अन्ततः परे लेकिन प्रतीक के ठीक-ठीक प्रयोग में - तब होता है यह अलगाव, वाणी अपना उद्गम खो देती है, रचयिता प्राप्त होता है अपनी मृत्य को, लेखन आरम्भ होता है। तब पर भी इस परिघटना को लेकर भावना मिली-जुली रही है; प्राचीन समाजों में, वृत्तान्त कभी एक व्यक्ति की ज़िम्मेवारी नहीं रही, बल्कि एक माध्यम की, ओझा की या वक्ता की, जिसके प्रदर्शन (वृत्तान्त संग्रह की उसके कौशल) पर श्रद्धा हो सकती थी परन्तु उसकी मेधा पर नहीं। रचयिता एक आधुनिक आकृति है, जो पैदा हुई है बेशक़ हमारे समाज (पश्चिमी योरोप) द्वारा ही मध्ययुग के अन्त में, अंग्रेज़ी व्यवहारवाद, फ़्रांसीसी बुद्धिवाद और सुधारआन्दोलन की निजी आस्था से उपजी एक निर्मिति। जिसने खोजी व्यक्ति की प्रतिष्ठा, और उदार शब्दों में कहें तो, ‘मानवीय व्यक्ति’ की प्रतिष्टा। इसीलिए यह तार्किक लगता है कि साहित्य की दृष्टि से, पूँजीवादी चिन्तन के सार व परिणाम, प्रत्यक्षवाद ने ही रचयिता के व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया है। साहित्यिक इतिहास के गुटकों में, रचयिताओं की आपबीतियों में, पत्र-पत्रिकाओं के साक्षात्कारों में, यहाँ तक कि साहित्यिक लोगों की स्मरण में भी रचयिता आज भी राज करता है, अपने निजी डायरियों के ज़रिये अपने कृतित्व और अपने व्यक्तित्व को एकरूप करने के लिए बेचैन। समकालीन संस्कृति में मौजूद साहित्य की छवि अत्याचार की हद तक रचयिता पर केन्द्रित है, उस का व्यक्तित्व, उसका इतिहास, उसकी पसन्द, उसके शौक़; आलोचना भी यही होती है कि बॉदलेयर का काम बॉदलेयर व्यक्ति की असफलता है, वैन गॉह का काम उसकी विक्षिप्तता, त्चैकोवस्की का उसके अवगुण: कृति की व्याख्या उस आदमी में खोजी जाती है जिसने उसे रचा है जैसे कि गल्प के कमोबेश पारदर्शी रूपक के ज़रिये ये हमेशा अन्ततः उस ही एक व्यक्ति, रचयिता, की वाणी थी जिसने उसकी गोपनीयता का उद्घाटन किया।

हालांकि रचयिता का साम्राज्य अभी भी बहुत मज़बूत है ( हालिया आलोचना ने उसे और सुदृढ ही किया है), यह ज़ाहिर है कि एक लम्बे समय से कुछ निश्चित लोगों ने उसकी चूलें हिलाने के प्रयास किए हैं। फ़्रांस में, मलाहमे सबसे पहले थे जिन्होने पूर्वानुमान लगाया और उसके पूरे विस्तार में समझा कि अभी तक आदमी जिस स्थान पर स्वामित्व का दावा कर रहा था उस आदमी की जगह पर भाषा को रखने की ज़रूरत है। मलाह्मे के लिए, और हमारे लिए भी, वो भाषा है जो बोलती है, रचयिता नहीं : लिखना पहुँचना है, एक पहले से मौजूद व्यक्तित्वहीनता के ज़रिये- यथार्थवादी उपन्यासकार की बधिया तटस्थता के ज़रिये नहीं – वह बिन्दु जहाँ भाषा मात्र ही काम करती है, ‘निष्पादन’ करती है, ‘हमारा स्वत्व’ नहीं। मलाह्मे का सम्पूर्ण काव्यशास्त्र लेखन के हित में रचयिता का दमन करने में ही निहित है (जो, हम देखेंगे, पाठक की प्रतिष्ठा की पुनर्स्थापना के लिए है।) आत्म के मनोविज्ञान को ढोते हुए वैलरी ने मलाह्मे की प्रस्थापना को नर्म तो बनाया, साथ ही आलंकारिकता के सबक़ पर शास्त्रीयता को वरीयता दे कर उन्होने रचयिता पर सवाल खड़े किए और हँसी उड़ाई, और उसकी गतिविधि के भाषिकी और ‘सांयोगिक’ प्रकृति पर ज़ोर दिया, और उनके गद्य ने लगातार साहित्य की मौखिक स्थिति का समर्थन किया जिसके सम्मुख रचयिता की हीनता की कोई भी शरण लेना उनको शुद्ध अन्धविश्वास लगा। यह साफ़ है कि स्वयं प्रुस्त ने भी, उनके विश्लेषणों के ज़ाहिरा मनोवैज्ञानिक चरित्र के बावजूद रचयिता और उसके चरित्रों के बीच के सम्बन्धों को, एक चरम सूक्ष्मता के ज़रिये, निर्दयता से धूमिल करने का काम किया : कथावाचक को एक ऐसा व्यक्ति बना कर- जो लिखेगा, न कि जो लिख रहा है, या जिसने देखा और महसूस किया। (उपन्यास का नौजवान – पर, कौन है ये, क्या उमर है इसकी? - लिखना चाहता है पर लिख नहीं पाता और उपन्यास वहाँ समाप्त हो जाता है जब अन्ततः लेखन सम्भव हो पाता है) प्रुस्त ने आधुनिक साहित्य को उसका महाकाव्य दिया है : एक मूलभूत विपर्यय के द्वारा; बजाय अपने जीवन को उपन्यास में डालने के, जैसा कि कहा जाता है, वे अपने जीवन को एक ऐसा काम बना डालते हैं जिसके लिए एक तरह से उनकी अपनी किताब एक नमूना थी, ताकि ये हम पर साफ़ज़ाहिर रहे कि ये चार्लि नहीं है जो मन्तेसकियू का अनुकरण करता है बल्कि मन्तेसकियू अपने क़िस्साई, ऐतिहासिक सच्चाई में एक गौण अंश है जो चार्लि से उपजा है। आधुनिकता के इस पूर्वइतिहास पर बने रहने के लिए अब आखिर में अतियथार्थवाद : अतियथार्थवाद बेशक़ भाषा को एक स्वायत्त दरज़ा नहीं दे सका, चूंकि भाषा एक व्यवस्था है, और इस आन्दोलन का (रूमानी) मक़सद ही सारी नियमावलियों को छिन्न-भिन्न करना था – एक आभासी छिन्न-भिन्नता, क्योंकि कोई नियमावली नष्ट नहीं की जा सकती, केवल उसके साथ खिलवाड़ किया जा सकता है; लेकिन अपेक्षित अर्थों को झटके से भंग कर के (अतियथार्थवादियों का प्रख्यात झटका), जिस चीज़ को सिर अनदेखा कर जाता है उसके लेखन की ज़िम्मेदारी शीघ्रातिशीघ्र हाथ को देकर (यह था स्वचालित लेखन), सामूहिक लेखन का सिद्धान्त और अनुभव स्वीकार कर के, अतियथार्थवाद ने लेखक की छवि को लौकिक बनाने में मदद की। और अन्त में, साहित्य की दुनिया से बाहर (वास्तव में, ये सारी भिन्नताएं लांघी जा रही हैं) भाषाशास्त्र ने बहुमूल्य वैश्लेषिक औज़ार के साथ रचयिता का विनाश सम्पन्न कर दिया है यह दिखाकर कि अपनी समूचेपन में प्रगटीकरण एक खोखली प्रक्रिया है जो उस खाली जगह पर किन्ही संभाषी व्यक्तियों को रखे बिना ही अच्छी तरह काम करती है। भाषिकी तौर पर, रचयिता कभी भी लिखने वाले से अधिक कुछ नहीं है, जैसे कि मैं, मैं कहने वाले से ज़्यादा कुछ नहीं है : भाषा एक कर्ता को जानती है, व्यक्ति को नहीं, इस कर्ता का अन्त कर दो, तो ठीक इस प्रगटीकरण के बाहर की शून्यता जो इसे परिभाषित करती है, वही काफ़ी है भाषा के ‘कर्म’ द्वारा इसे खाली कराने के लिए।

रचयिता की अनुपस्थिति (ब्रेष्ट के मामले में रचयिता साहित्यिक मंच के एक कोने में सिमट जाता है, इसे हम कह सकते हैं सचमुच का विलगाव) मात्र कोई लिखने की प्रक्रिया या ऐतिहासिक सच ही नहीं है : इस ने आधुनिक पाठ को पूरी तरह से रूपान्तरित कर दिया है। (या – जो कि एक ही बात है – अब पाठ ऐसे लिखा और पढ़ा जाता है कि उस में से, हर स्तर पर, रचयिता स्वयं को अनुपस्थित कर लेता है) समय, सबसे पहले, भी वह नहीं रहा। रचयिता, जब हम उस पर भरोसा करते हैं, की कल्पना हम उसकी किताब के भूतकाल की तरह करते हैं : किताब और रचयिता अपने आप ही एक ही रेखा में अपनी जगह लेते हैं, पूर्व और पश्चात के रूप में, रचयिता से अपेक्षित होता है कि वह किताब को भोजन दे – मतलब कि, वह पहले होता है, सोचता है, उसके लिए जीता है; अपने काम के साथ पूर्ववर्ती होने का वह वही सम्बन्ध निभाता है जो एक पिता अपने बच्चे के साथ। इसके ठीक विपरीत, आधुनिक लेखक (लिपिक) अपने पाठ के साथ ही जन्मता है। किसी भी तौर पर उसे ऐसी कोई हस्ती नहीं मिलती जो उसके लेखन से पहले से हो और बढ़ कर भी हो, वह किसी भी तौर पर वह कर्ता नहीं है जिसका कि उसकी किताब कथन है, प्रगटीकरण के अलावा कोई दूसरा समय नहीं है, और हर पाठ शाश्वत रूप से अभी और यहीं लिखा जाता है। यह इसलिए है (या : इसके परिणाम स्वरूप है) अब लेखन का अर्थ अभिलेखन, अवलोकन, निरूपण, चित्रण की प्रक्रिया (जैसे कि शास्त्रीय लेखक कहते हैं) नहीं हो सकता, बल्कि जिसे भाषाशास्त्री, ऑक्सफ़ोर्ड स्कूल की शब्द सम्पदा का अनुकरण करते हुए, निष्पादात्मक कहते है, एक विरल क्रियात्मक रूप (विशिष्ट रूप से केवल प्रथम पुरुष और वर्तमान काल के लिए सुरक्षित) जिसमें कि प्रगटीकरण में कोई और कथ्य नहीं, सिवा उस क्रिया के जिस के द्वारा वह प्रगट किया गया : पूर्वकालिक चारणों की चरणवन्दना की तरह ; आधुनिक लेखक, ‘रचयिता’ को दफ़नाने के बाद अब यह मान नहीं सकता, अपने पूर्ववर्तियों की दयनीय नज़रिये की तरह, कि उसका हाथ उसके विचारों और आवेगों के लिए बहुत मन्द है, जिसके परिणामस्वरूप, आवश्यक्ता को नियम में ढालते हुए, उसे इस अन्तराल को भरना होगा और अनन्तकाल तक अपने शिल्प का मांजना होगा; इसके विपरीत उसके लिए, उसका हाथ किसी भी वाणी से स्वतन्त्र होकर, अंकण (अभिव्यक्ति नहीं) की एक शुद्ध चेष्टा से भरा हुआ, खींचता है एक निर्मूलक क्षेत्र – या जिसका, कम से कम, सिवा भाषा के और कोई मूल नहीं, यानी कि वही एक तत्व जो लगातार हर उत्पत्ति पर प्रश्न उठाती चलती है।

हम जानते हैं कि कोई पाठ सिर्फ़ शब्दों की एक पंक्ति भर ही नहीं होता, जिस से मात्र एक ‘धर्मशास्त्रीय’ अर्थ (लेखकीय ईश्वर का संदेश) निकले बल्कि होता है कई पहलुओं वाला एक आयाम, जिस में तमाम तरह के लेख जड़े और लड़े होते हैं, और जिन में कोई भी मौलिक नहीं होता : संस्कृति के हज़ार मुखों से निकला, पाठ उद्धरणों का एक तन्तु है। हमेशा के नक़लची बूवा और पेक्यूशे की तरह, एक साथ ही उदात्त और हास्यास्पद दोनों और जिनकी गहन निरर्थकता लेखन के सच को ठीक-ठीक दिखाती है, लेखक केवल हमेशा अपनी पूर्ववर्ती चेष्टा की नक़ल भर कर सकता है, मौलिक कभी नहीं हो सकता; उसकी सारी सामर्थ्य विभिन्न प्रकार के लेखन का मिश्रण करने में है, और एक को दूसरो के विरुद्ध खड़ा करने में है, ताकि उसे कभी किसी एकमात्र पर ही निर्भर न हो जाना पड़े; अगर वह स्वयं को अभिव्यक्त करना चाहता है, तो कम से कम उसे पता होना चाहिये कि वह आन्तरिक ‘तत्व’, जिसका वह ‘रूपान्तरण’ करने का दावा करता है, अपने आप में एक पहले से तैयार शब्दकोष है जिसके शब्दों की व्याख्या (परिभाषा) केवल दूसरे शब्दों के द्वारा ही की जा सकती है, और दूसरे शब्दों की और दूसरे शब्दों से, और ऐसे ही अनन्त काल तक :, ग्रीक भाषा में विशेष प्रतिभा सम्पन्न, नौजवान डि क्विन्सी का एक अनुकरणीय अनुभव हमारे सामने है, ऐसा बॉदलेयर बताते हैं कि, उस मृत भाषा में कुछ विशेष अत्याधुनिक विचारों और छवियों का अनुवाद करने के लिए, “उन्होने तैयार किया शुद्ध साहित्यिक विषयों के अश्लील धैर्य से उपजने वाले से भी अधिक विस्तृत और जटिल एक शब्दकोष” (पैरादिस आर्तिफ़िसियल)। रचयिता के परवर्ती होने के बाद, लेखक आवेग, परिहास, भाव, छाप, अपने भीतर नहीं रख सकता बल्कि रखता है वह विशाल शब्दकोष जिससे वह हासिल करता है लेखन, जो न रुकता है और न खत्म होता है ; जीवन किताब की नक़ल करने से अधिक कुछ नहीं करता और किताब स्वयं किसी खोये हुए, अनन्त दूरी पर स्थित, संकेतों का तन्तु है।

एक बार जब रचयिता विदा हो गया, तो पाठ के रहस्योद्घाटन का दावा भी बिलकुल अर्थहीन हो जाता है। किसी पाठ को एक रचयिता के हवाले करना उस पाठ को एक सीमा में बाँधना है, उसको एक अन्तिम अर्थ तक पहुँचा कर लेखन को समाप्त करना है। यह परिकल्पना आलोचना को बिलकुल जंचती है, जो अपने लिए पाठ के पीछे से रचयिता की खोज (या उसकी प्रस्थापनाएं : समाज, इतिहास, अन्तर्मन, स्वतन्त्रता) का एक बड़ा बीड़ा उठा सकती है: एक बार जब रचयिता की खोज हो गई तो पाठ की व्याख्या भी हो जाती है और आलोचक विजयी होता है; इसलिए ये ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं कि ऐतिहासिक तौर पर रचयिता का युग आलोचक का भी युग हो, और आलोचना (“नई आलोचना” भी) को भी रचियता के साथ उखाड़ फेंकना चाहिये। लेखन की बहुलता में, वास्तव में, हर एक की विशिष्टता है पर व्याख्या किसी की नहीं; संरचना जारी रह सकती है, अपनी चरणों के सारी पुनरावृतियों में (किसी मोज़े के तरह) बिनी हुई, मगर जिसके नीचे कोई धरातल नहीं है; लेखन के आयाम से गुज़रा जा सकता है उसे भेदा नहीं जा सकता : लेखन लगातार अर्थ को स्थान देता है लेकिन हमेशा बिला जाने के लिए : लेखन, अर्थ के एक व्यवस्थाबद्ध विमोचन की ओर बढ़ता है। और इस रास्ते से साहित्य (वैसे अब से लेखन कहना अच्छा होगा), पाठ को कोई रहस्य, या उसका परम अर्थ, देने से इन्कार कर के, एक ऐसी गतिविधि को मुक्ति प्रदान करता है जिसे धर्मशास्त्र विरोधी कहा जा सकता है, और सच में क्रांतिकारी, क्योंकि अर्थ को जड़ करने से इन्कार करना ईश्वर और उसके प्रस्थापनाओं तर्क, विज्ञान और विधि से इन्कार करना है।

चलिये बालज़ाक के वाक्य पर वापस लौटते हैं : वह किसी का (यानी किसी व्यक्ति का) कथन नहीं है : इस वाणी के स्रोत का पता नहीं चलता; फिर भी सब कुछ समझ में आता है; वह इसलिए कि लेखन का असली बिन्दुपथ पठन है। इसे एक और विषेश उदाहरण से समझते हैं : हालिया शोधों (जे पी वेरनाँ) ने ग्रीक त्रासदी के मूलभूत श्लेषात्मक स्वभाव पर प्रकाश डाला है, उनका पाठ ऐसे शब्दों से बुना हुआ है जो द्विअर्थी हैं, पर हर चरित्र उनका एक ही अर्थ लेता है (त्रासदी का अर्थ, लगातार होने वाली ऐसी ही ग़लतफ़हमी से ही है); फिर भी कोई है जो हर शब्द को उसके द्वैधता में समझता है, और यह भी कहा जा सकता है कि अपने सामने खड़े चरित्रों के बहरेपन को भी समझता है : यह कोई और नहीं पाठक है (यहाँ दर्शक)। इस तरह से लेखन के सारा अस्तित्व सामने आ जाता है : एक पाठ के भीतर कई लेख होते हैं विभिन्न संस्कृतियों से आए और एक दूसरे के साथ संवाद में, विद्रूप में, और संघर्ष में संलग्न; लेकिन एक जगह है जहाँ ये सारी विविधता एकत्र होती है, एकजुट होती है, और यह जगह रचयिता नहीं है, जैसा कि हम अभी तक कहते आ रहे हैं कि थी, बल्कि पाठक है। पाठक ही वह आयाम है जहाँ किसी भी लेखन के भीतर के सारे उद्धरण, बिना खोये अंकित होते हैं; किसी भी पाठ की एकता उसके उद्गम में नहीं बल्कि उसके गन्तव्य में है; लेकिन वह गन्तव्य अब निजी नहीं रह सकता ; पाठक एक ऐसा आदमी है जिसका कोई इतिहास नहीं, कोई जीवनी नहीं, कोई मनोविज्ञान नहीं; वह मात्र एक कोई है जो पाठ के भीतर निर्मित विभिन्न राहों को एक क्षेत्रीय इकाई में थामे रखता है। इसीलिए पाठक के अधिकारों के स्वनियुक्त और पाखण्डी हिमायतियों द्वारा, मानवतावाद के नाम पर, नवलेखन की निन्दा करना बिलकुल अनर्गल है। शास्त्रीय आलोचना का सरोकार कभी भी पाठक नहीं रहा है; उसके लिए साहित्य में लिखने वाले के अलावा दूसरा कोई है ही नहीं। इस तरह के अन्तरविरोधी जुमलों का कपट अब नहीं चल सकता जिनके ज़रिये हमारा सभ्य समाज गर्व से उनकी हिमायत करता है जो उसी के द्वारा अस्वीकृत हैं, उपेक्षित हैं, जिनका गला घोटा जाता है और नष्ट किया जाता है; हम जानते हैं कि लेखन के भविष्य की प्रतिष्ठा के लिए, हमें उसके मिथक को उलटना होगा ; पाठक के जन्म की फ़िरौती रचयिता को अपनी मृत्यु से चुकानी होगी।
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