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मंगलवार, 16 मार्च 2010

लैण्डमार्क में हिन्दी वाले

परसों के रोज़ लैंडमार्क बुक स्टोर जाना हुआ। मेरी हमसर तनु पामुक की नई किताब 'म्यूज़ियम ऑफ़ इन्नोसेन्स' पढ़ना चाह रही थीं। पहले उसे हाथ में ले लिया और फिर इधर-उधर किताबों पर नज़र फेंकता रहा। एक अरसे से अलबर्तो मोराविया की किताबें खोज रहा हूँ, मिलती नहीं। फ़िक्शन सेक्शन में एल्फ़ाबेटिकल सिलसिले से किताबें रखीं हुई हैं –तक़रीबन दस-बारह रैकों पर। एम वाली किताबें दो रैकों पर हैं; मुराकामी, मार्केज़ आदि के बीच मोराविया कहीं नहीं थे।


याद आया कि पवन कुमार वर्मा की हिन्दी प्रदेश की संस्कृति और पहचान पर केन्दित पुस्तक ‘बिकमिंग इन्डियन’ बिक रही है, लगे हाथ वो भी ले ली। पिछले कुछ महीनों से लैंडमार्क में एक हिन्दी विभाग भी बनाया था। उस ओर पैर बढ़ाया तो देखा कि हिन्दी का साम्राज्य पाँच रैकों में फैल गया है; पहले दो पर था। यह प्रगति अच्छी लगी।

मुख़्तलिफ़ प्रकाशकों की मुख़्तलिफ़ विषयों पर किताबें वहाँ मौजूद देखकर ही खुशी हो रही थी कि मुख्यधारा में हिन्दी की जगह बन रही है। लेकिन ये देख कर अजीब लगा कि किताबें निहायत बेतरतीबी से रखी हुई हैं; न तो कोई सिलसिला है और न कोई विभाजन। मन बना लिया कि शिकायत करूँगा।

हेल्प डेस्क पर बैठी लड़की ने मुँह लटका कर बताया कि उन्हे हिन्दी किताबों की रोज़ाना रैकिंग* करनी पड़ती है। उस सेक्शन में सबसे ज़्यादा ब्राउज़िंग** होती है मगर सेल्स सब कम।

क्या मतलब है आख़िर इस बात का?

हिन्दी किताबों में दिलचस्पी लेने वाले किताब को अलटते-पलटते हैं और वापस कहीं भी रख देते हैं?

हिन्दी किताबें देखने वाले और अंग्रेज़ी किताबे देखने वाले अलग-अलग लोग हैं और उनका व्यवहार भी अलग है?

इस व्यवहार से जुड़ा क्या एक निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि भाषा आदमी का व्यवहार तय करने, उसे निखारने में मददगार होती है? भाषा सिर्फ़ भाषा नहीं संस्कारों का भी मसला है?

हिन्दी वाले (संज्ञा को छोटा कर दिया है) और अंग्रेज़ी वाले अलहदा वर्ग नहीं बल्कि एक ही हैं, बस दो भाषाओं और उनकी किताबों को लेकर उनका रवैया जुदा-जुदा है?

हिन्दी वाले किताब में रुचि तो रखते हैं लेकिन उसे ख़रीदने के लिए पैसे खर्च करने के फ़ैसले तक पहुँच नहीं पाते?

हिन्दी वालों की किताब को ख़रीद सकने की सामर्थ्य और किताबों की क़ीमतों में साम्य नहीं है?

जो भी मामला है, सुखद नहीं है, अफ़सोसनाक है!

*किताबों को विषयानुसार नियत रैक के ख़ानों में सजाना
**पन्ने पलटना



मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हिन्दी में कौन स्टार है?

पिछले दिनो कुछ रोज़ दिल्ली के अन्तराष्ट्रीय पुस्तक मेले में बीते। कई दोस्तो से मिलना हुआ। कुछ किताबें ख़रीदी और बहुत सारी देखीं। मेले मे ही लाल्टू के कविता संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग’ और गीत चतुर्वेदी के संग्रह 'आलाप में गिरह' के लोकार्पण में भी शिरकत हो गई। मित्र बोधिसत्व की नई किताब ’ख़त्म नहीं होती बात’ का भी विमोचन हुआ। बोधि उसमें नहीं पहुँच सके और संयोग से मैं भी मेले में होने के बावजूद नहीं पहुँच सका। जब पहुँचा तो किताब को मोक्ष मिल चुका था।

मेले में ख़ूब भीड़ थी। हिन्दी किताबों के हॉल नम्बर १२ में तो गज़ब की भीड़ थी। सभी प्रकाशकों के बड़े-बड़े स्टॉल्स थे। राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के तो इतने बड़े स्टॉल थे कि विमोचन करने और गपियाने के लिए एक अलग जगह निकाली गई थी। ये जगहें हिन्दी के लेखकों और विचारकों के आपस में टकराने का अड्डा भी थीं। मैं भी वहीं-कहीं उस संघर्षण के आस-पास बना हुआ था। तमाम दोस्त -ब्लॉगर और ग़ैर-ब्लॉगर- मिल रहे थे। दोस्तों और किताबों से भरी-भरी ये दुनिया बड़ी भली लग रही थी।

ऐसे ही किसी भले-भले पल में मेरे कान में लाउडस्पीकर से गूँजती आवाज़ आई कि राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी जी पाठकों के साथ, सीधी बातचीत और सुझावों के लिए उपलब्ध हैं। मेरे भीतर एक घंटी सी बजी। मेरे मन में हिन्दी किताबों की दुनिया को लेकर जो बाते हैं, उसे एक सही मंच पर कहने का इस से बेहतर मौक़ा नही मिलेगा। मैं राजकमल के स्टॉल की ओर चल पड़ा। वहाँ अनुराग वत्स पहले से मौजूद थे। अशोक जी एक गोल मेज़ पर दो-चार लोगों से गुफ़्तगू कर रहे थे। मैं बातचीत शुरु होने का इन्तज़ार करने लगा। पाँच-दस मिनट यूँ ही बीत गए तो समझ आया कि मंच जैसा कुछ होगा नहीं, जो भी कहना-सुनना है वो ऐसे ही मेज़ पर आमने-सामने बैठ कर होना है। तो हम ने जा कर अशोक जी की गोल मेज़ के गिर्द कुर्सियाँ सम्हाल लीं।मैं ने उनसे जो कहा उसका सार कुछ ऐसे हो सकता है;

मैंने अशोक जी से सवाल किया कि हिन्दी लेखक का हाल अंग्रेज़ी के लेखक की तुलना में इतना मरियल क्यों है? क्या वह इसलिए है कि वह घटिया लेखक है या इसके कुछ और कारण है? भारत का मध्यवर्ग हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ता लेकिन अंग्रेज़ी की किताबें ख़रीदता रहता है। हिन्दी साहित्य की दुनिया में कोई स्टार लेखक क्यों नहीं है?

जबकि हिन्दुस्तान के अंग्रेज़ी साहित्य की ओर देखिये तो तस्वीर एक्दम लग नज़र आती है। अंग्रेज़ी का प्रकाशन उद्योग न सिर्फ़ अपनी किताबों को लेकर एक आक्रामक रणनीति अपनाता है बल्कि अपने लेखको को चढ़ाने में भी जी-जान लगा देता है। अभी हाल के बुकर पुरुस्कार विजेता लेखक अरविन्द अडिगा की मिसाल लीजिये। उनकी किताब को बेहद मामूली गिनता हूँ मैं और दूसरे पढ़ने वाले भी। मगर सच्चाई ये है कि ये राय हमने किताब ख़रीदने कर पढ़ने के बाद क़ायम की है। आज अंग्रेज़ी के परिदृश्य में हाल ऐसा है कि किताब बाद में आती है लेखक पहले ही स्टार हो जाते हैं। प्रकाशक अपनी मार्केटिंग से ऐसा माहौल बना देते है, आम लोगों के मन में ऐसी जिज्ञासा पैदा कर देते हैं कि उनके मन में किताब ख़रीदने की प्रेरणा जाग उठती है।

उनके इस काम में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों तरह का मीडिया उनका ख़ूब सहयोग करता है। वे पुरस्कारों के ज़रिये लेखकों का बाज़ार गर्म करना जानते हैं और साथ ही लगातार अख़बारों में बैस्टसैलर सूची प्रकाशित करके पाठकों को ख़रीदी जा सकने वाली किताबों के प्रति धकेलते भी रहते हैं। जबकि हिन्दी में कोई प्रकाशक ऐसा करने में रुचि नहीं रखता और पु्रस्कारों की तो अलग राजनीति ही चल पड़ी है। उस पर बात करुंगा तो विषयान्तर हो जाएगा।

मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशन उद्योग मार्केटिंग की दूसरी हद पर जा कर कचरे को हमारे गले में ठेलने लगे। लेकिन ये भी क्या बात हुई कि बाज़ार की ताक़त का इस्तेमाल अ़च्छी चीज़ के प्रसार के लिए करने से भी क़तरा जायं। पूरा प्रकाशन उद्योग पाठकों के बीच अपना माल बेचने के लिए किसी भी तरह की रणनीतियों के प्रति पूरी तरह उदासीन है। क्यों? क्या अख़बारों और टीवी के ज़रिये लेखकों और उनकी किताबों के प्रति जिज्ञासा पैदा करना इतना दुरूह है? क्यों हिन्दी के पास आज एक भी स्टार लेखक नहीं है?

विनोद कुमार शुक्ल एक अप्रतिम लेखक हैं, उनका लेखन हिन्दी में ही नही विश्व साहित्य में अनोखा है, अद्वितीय है। उदय प्रकाश भी बेहद मक़बूल कथाकार हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया के बाहर कोई उनके नाम भी नहीं जानता? जबकि अरविन्द अडिगा के नाम से बच्चों की परीक्षा में सवाल बनाया जा सकता है, क्यों? क्यों नहीं विनोद जी या उनके जैसे दूसरे साहित्यकारों को एक स्टार की बतौर चढ़ाया जा सकता?

मज़े की बात ये है कि अगर हिन्दी के पास कोई स्टार है तो वो एक लेखक नहीं एक आलोचक है- नामवर सिंह। ये बात मैं बिना उनकी आलोचकीय गरिमा पर कोई आक्षेप किए हुए कर रहा हूँ। आलोचक की साहित्य में अपनी जगह है लेकिन वो लेखक के लिए पाठक के हृदय में जो मुहब्बत जो अपनापन होता है, उसका स्थानापन्न कतई नहीं हो सकता।

अशोक जी ने मेरी बात शांति से सुनी और माना कि यह स्थिति का सही चित्रण है। लेकिन उनका कहना था कि हिन्दी में स्टार लेखक नहीं है यह कहना ठीक नहीं; कुँवर नारायण और कृष्णा सोबती भी किसी स्टार से कम नहीं। बैस्ट्सैलर सूची का आइडिया उन्हे अच्छा लगा पर अख़बारो के वर्तमान बाज़ारीकरण की सूरत में उसके आर्थिक पक्ष को पूरा कर पाने में ख़ुद को असमर्थ बताया।

उनसे जिरह करने के बजाय मैंने अपना दूसरा सवाल अशोक जी से इसी आर्थिक पक्ष के मुतल्ल्कि किया। हिन्दी में लेखकों और अनुवादकों को पैसे क्यों नहीं मिलते? जबकि अंग्रेज़ी में ये हाल नहीं है? इस के जवाब में उनका कहना था कि हिन्दी किताबों का अर्थशास्त्र जितनी गुंज़ाइश देता है, उतना वह अवश्य करते हैं। मैं ने उनसे कहा कि पुस्तक मेले में हिन्दी प्रकाशकों ने जितनी जगह ले रखी है और उन पर जिस तरह से जनता टूटी हुई है, उसे देखकर तो यह बिलकुल नहीं लगता कि हिन्दी साहित्य में कोई अर्थशास्त्रीय संकट है।

"मैं जिन-जिन लेखकों को जानता हूँ, उनमें से किसी ने अपनी किताब से पाँच-दस हज़ार से कमाई की बात नहीं बताई। हो सकता है कमलेशवर की किताब ’कितने पाकिस्तान’ या सुरेन्द्र वर्मा की ’मुझे चाँद चाहिये’ से अच्छी रॉयल्टी बनी हो, लेकिन वह उतनी नहीं हो सकती कि वे एक रोमान्टिक्स लिखकर पंकज मिश्रा की तरह जीवन की असुरक्षाओं से मुक्त हो पहाड़ो में विचरण करते रहें। अनुवादक के हाल तो पूछिये ही मत।" यह कहते-कहते अशोक जी का कोई फ़ोन आ गया। कुछ और लोग आ गए, वे उनसे मुख़ातिब हुए। मैं समझ गया मेरा समय समाप्त हुआ। मैं ने उन्हे मेरी बात सुनने का धीरज दिखाने के लिए धन्यवाद किया। और उन्होने खड़े होकर, हाथ मिला कर मुझे विदा किया।

मैं अशोक जी से यह नही कह पाया कि पुस्तकालयों से अलग आम पाठकों के बीच भी किताब का एक बाज़ार होता है, लेकिन हिन्दी प्रकाशक उसके प्रति उदासीन है। वेदप्रकाश शर्मा की किताबों के विज्ञापन आप को बस स्टेशन्स वगैरह पर दिख जायेंगे, लेकिन उदय प्रकाश की नहीं। क्या यह इसलिए है कि वेदप्रकाश पूरी तरह पाठकों पर निर्भर है और उदयप्रकाश के प्रकाशक पुस्तकालयों पर?

हिन्दी राजभाषा है और हर सरकारी संस्थान में हिन्दी की किताबें ख़रीदने का एक बजट होता है, चाहे वो किताबें पढ़ने वाला हो या न हो। इन संस्थाओं में कौन सी किताबें आएंगी और कौन सी नहीं यह फ़ैसला भी ऊँचे राजकीय अधिकारियों द्वारा सिफ़ारिश के आधार पर लिया जाता है। विडम्बना यह है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकालयों की यह ख़रीद ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बन गई है। बैठे-बैठे माल बिकता हो तो उस के लिए इधर-उधर दौड़ने की क्या ज़रूरत? जिसके चलते प्रकाशक आम पाठक को न तो किताब बेचने का कोई वितरण-तंत्र विकसित करने के लिए मशक्कत करते हैं और न उनके बीच प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था। की बात यह है कि हिन्दी किताबों की दुकानों के सम्पूर्ण अभाव के बावजूद हिन्दी साहित्य बना हुआ है और पढ़ा भी जा रहा है। मेले में आई भीड़ इसका साफ़ सबूत है।

पुस्तकालयों में किताबों की सिफ़ारिश करने वाले ही सचमुच आज हिन्दी प्रकाशकों के लिए असली स्टार्स हैं| प्रकाशकों के लिए और लेखकों के लिए भी। क्योंकि उनकी राय से ही प्रकाशक तय करते हैं कि किताब छपने योग्य है कि नहीं। तो इस तरह से राजतंत्र में भीतर तक धँसे यही गणमान्य जन लेखकों के भी माई-बाप हो जाते हैं। जबकि वेदप्रकाश शर्मा बिना किसी आलोचक की परवाह किए सीना चौड़ा कर के अपना सस्ता साहित्य छापता जाता है क्योंकि वह पाठको से सीधे सम्पर्क में है।



*अभी हाल में हिन्दी के कवि देवी प्रसाद मिश्र को उनकी डॉक्यूमेन्टरी ’फ़ीमेल न्यूड’ के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला है। इस की कहीं चर्चा नहीं है। एक कवि की अभिव्यक्ति के दूसरे इलाक़े में ऐसी उपलब्धि अंग्रेज़ी की दुनिया में अछूती न रह जाती। देवी भाई से मेरा परिचय इलाहाबाद के दिनों से है। मैं उनकी फ़िल्म अभी देख नहीं सका हूँ, लेकिन कविताओं में वे जितना संतुलन और संयोजन बरतते हैं उस से कल्पना की जा सकती है कि फ़िल्म ज़रूर पुरस्कार योग्य होगी। देवी भाई को मेरी बहुत बधाईयां और शुभकामनाएं।
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