सोमवार, 19 अप्रैल 2010

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४


अरुंधति मानती हैं कि भारत एक सवर्ण हिन्दू राज्य है क्योंकि यहाँ मुसलमानों, दलितों, ईसाईयों, सिखों, आदिवासियों, कम्यूनिस्टो और प्रतिरोध करने वालों ग़रीबों पर अत्याचार होता है। ठीक है। लेकिन ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है, जिसमें सवर्णों की सत्ता की रक्षा के लिए नहीं दलितों और पिछड़ों को सत्ता में शामिल करने के लिए क़ानून बनते हैं? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें तमिलनाडु से लेकर उत्तर प्रदेश तक सत्ता पर दलित राजनीति का वर्चस्व है और 'सवर्ण हिन्दू राज्य' ब्राह्मणों को दलितों की जीहुज़ुरी और चरणवन्दना तक लगा देखते हुए भी निरपेक्ष बना रहता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य जिसमें देश की अनेक समस्याओं के लिए ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों को निरन्तर न सिर्फ़ दोषी ठहराया जाता है बल्कि गरियाया भी जाता है, और हर समझदार ब्राह्मण अपनी परम्परा और जाति के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त रहता है? ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र के वो विशेष अधिकारों के विपरीत, ब्राह्मण की अवमानना पर कोई विशेष अपराध नहीं बनता जबकि दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? अरुंधति जैसी विद्वान और सचेत महिला भी इस अन्तर को देख पाने और चिह्नित करने में क्यों चूक जाती हैं कि इस राज्य में अब अगर कोई बायस है तो अब दलितों और पिछड़ों के पक्ष में

इस 'सवर्ण हिन्दू राज्य' पर अरुंधति समेत सभी माओवादी एक दूसरे आकलन से आरोप है कि इस देश को साम्राज्यवादी शक्तियां यानी अमरीका आदि और उनके दलाल यानी सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, अज़ीम प्रेम जी, अम्बानी बंधु, टाटा आदि चला रहे हैं। अगर सचमुच ऐसा है तो क्या वे मानते हैं कि इस सवर्ण हिन्दू आग्रह की जड़ अमरीका तक जाती है? और क्या अरुंधति ये मानती हैं कि टाटा, सोनिया और मनमोहन हो सकते हैं पारसी, ईसाई और सिख मगर चिंता सवर्ण हिन्दू हितों की करते हैं? और अगर अरुंधति ये मानती हैं कि अम्बानी अपनी नीतियां तय करते वक़्त हिन्दू हित की चिंता करते हैं तो मैं उन पर सिर्फ़ हँस सकता हूँ, और कुछ नहीं।

असल में ये उनकी समझ का दोष है जो राज्य के चरित्र और समाज के चरित्र में भेद नहीं कर पा रहीं। न तो यहाँ की पूँजी का कोई सवर्ण और हिन्दू चरित्र है और न ही राज्य का। लेकिन राज्य और पूँजी जिस समाज में व्यवहार कर रहे हैं वो एक लम्बे समय तक सवर्णों के प्रभुत्व में रहा है। लेकिन इस अवधि में भी मुस्लिम शासन का वह छै सौ साल का और दो सौ साल का वह काल है जब कि अंग्रेज़ प्रबल रहे। फिर भी यह सच है कि आज भारतीय समाज की मुख्यधारा में एक सवर्ण हिन्दू तबक़े की प्रबल उपस्थिति है। और अगर समाज में सवर्ण हिन्दू प्रबल हैं भी तो उसको लेकर इतना विचलित होने की क्या ज़रूरत है? सवर्ण हिन्दू भी इसी समाज का अंग हैं और उनको भी फलने-फूलने का पूरा हक़ है। हज़ारों सालों से उन्होने अपने प्रभुत्व का जो लाभ लिया उस की ख़ानापूरी एक सकारात्मक भेदभाव (आरक्षण) के ज़रिये की जा रही है जिससे एक दूसरी सूरत पैदा हो रही है। उत्तर प्रदेश के लाखों ब्राह्मण परिवार ऐसे हैं जिनमें जवान बेटी-बेटों के पास न नौकरी है न धंधा। वे अरुंधति के इस आरोप पर मुहँ बा देंगे। उनके अनुसार अगर उनको अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रमाणपत्र मिल जाता तो उनकी समस्या हल हो जाती।

अरुंधति के आरोप का जवाब एक जवाबी आरोप हो सकता है। हो क्या सकता है, है। वो ये कि इस देश को साम्राज्यवादी देशों में बैठी चर्च और चर्च की संस्थाएं, इस देश में उनके दलालों के ज़रिये चला रही हैं। कांग्रेस और बड़े मीडिया घरानो से लेकर बड़े पूँजीपतियों में उनकी पैठ है। सोनिया गाँधी उसकी मुख्य एजेंट हैं, जिन्होने कांग्रेस पार्टी की सभी मुख्य ज़िम्मेदारियां ईसाईयों को सौंप रखी हैं। प्रणय राय और सुज़ाना अरुंधति राय उनके सेनापति हैं जो अपनी रिश्तेदारी ज़ाहिर होने देते हैं न उनकी ईसाईयत कि कहीं उनकी साज़िश खुल न जाय? मार्क्सवादी और ख़ासकर माओवादी भी इस साज़िश में शामिल हैं। ये जहाँ सक्रिय होते हैं, धर्म परिवर्तन होने लगते हैं। चर्च की एक शाखा है जो खुले तौर पर इस तरह के माओवादी आन्दोलनों की वक़ालत करती रही है। अधिकतर माओवादी नेता ईसाई हैं। इन सब तथ्यों की रौशनी में ये सिद्ध होता है कि भारतीय राज्य (और पूँजी भी, उसे भी लपेटने में क्या जाता है) एक कट्टरवादी ईसाई संस्था है। इस का क्या जवाब है? यहाँ आप चाहें तो हँस सकते हैं।

मुसलमानों पर अत्याचार की भी हर दम दुहाई देने वालों को ये समझना चाहिये इस देश के विभाजन के वक़्त मुसलमानों का अभिजात वर्ग, जो ईरान, तूरान आदि से आया था और जिसने इस देश में छै सौ सालों तक शासन किया था। अंग्रेज़ों के जाने के बाद की एक जनतांत्रिक व्यवस्था में एक अल्पसंख्यक की कम महत्व की भूमिका में धकेल दिए जाने को तैयार नहीं था। और इसीलिए उसने अपने लिए एक नए, ख़ास मुसलमानों का राष्ट्र बनाने का रास्ता चुन लिया और पूरे देश से निकल-निकल कर वहाँ चला गया। बच कौन रहा? बचे वे रहे जो किसी बाहरी देश से नहीं आए थे। इसी देश में हज़ारों सालों से रह रहे थे, शायद शूद्र या दलित रूप मे और फिर बौद्धों के रूप में। वे तब भी पिछड़े हुए थे और आज भी पिछड़े हुए हैं। वे राज्य या समाज की किसी साज़िश की तहत पिछाड़े नहीं गए हैं। मुसलमानों के अभिजात वर्ग के जिस हिस्से ने इसी देश में रहने का चुनाव किया, उसके प्रति न तो राज्य कोई भेदभाव करता है और न ही समाज। और वे किस लिहाज़ से किसी से पीछे हैं? क्या एक गहरे तौर पर सवर्ण, हिन्दू, साम्प्रदायिक समाज फ़िल्मों में ख़ानों और क्रिकेट में पठानों को लेकर इतना लड़िया सकता है?

हिन्दू-मुस्लिम तनाव की राजनीति की असफलता ही इसका सबसे बड़ा सबूत है कि तथाकथित हिन्दुत्व न तो बहुसंख्यक लोगों के मानस में है और न राज्य के चरित्र में। अगर ऐसा होता तो मस्जिद तोड़ने के लिए न इतना आन्दोलन करना पड़ता और न एक मन्दिर बनाने के लिए इतना इंतज़ार। उल्लेखनीय है कि तुर्की में पुराने गिरजाघरों को मस्जिदों में बदलने में न कोई आन्दोलन चलाना पड़ा था और न कोई देर लगी थी। यहाँ आन्दोलन करना पड़ा क्योंकि लोगों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, उन्हे उत्तेजक भाषणों से भड़काना पड़ा। और उतने सब के बावजूद भाजपा कभी बहुमत न पा सकी और अब वापस मध्यमार्ग तलाश रही है। दंगो के हालात और परिणाम के आधार पर चरित्र आकलन करना भूल है- दंगे अस्थायी पागलपन होते हैं -टेम्परेरी मैडनेस। अपराधियों को उचित दण्ड मिलने में देर, किसी राज्य के चरित्र का द्योतक नहीं बल्कि तात्कालिक निहित स्वार्थों और भ्रष्टाचार के लक्षण हैं।

समस्याए है; कमज़ोरों, अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय होता रहा है, मगर कोई भी परिवर्तन रातों-रात नहीं होता। बीमार को चंगा करने के लिए बिजली के झटके नहीं, औषधि चाहिये होती है। और पिछड़ापन सिर्फ़ शूद्रों, दलितों की सोच में ही नहीं, सवर्णों की सोच में भी है। समाज में उसकी उपस्थिति और आम जीवन में उसके व्यवहार को राज्य के चरित्र की तरह चिह्नित कर देना, मुझे तो बचकाना चिंतन लगता है। और उस पिछड़ेपन को बदलने की ताक़त किसी क्रांतिकारी पार्टी में नहीं, बल्कि सिर्फ़ पूँजीवाद में है। क्रांतिकारी दलों का हिंसक हस्तक्षेप जातीय नरसंहारों को जन्म देता है। जबकि बिना किसी बहस, किसी जनजागरण अभियान, बिना किसी धरना, जुलूस, प्रदर्शन और बिना किसी नरसंहार के शहर में विस्थापित हो कर दलित ठेकेदारी कर रहे हैं और तमाम सवर्ण उनके नीचे मज़दूरी कर रहे हैं। माओवादियों का बदलाव का रास्ता ज़बरदस्ती का रास्ता है, जबकि पूँजीवाद (भले ही दलाल) सहज रास्ता है।

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एक समय में मेरा भी ये विचार बना था कि आतंकवादी इस भ्रष्ट संसार में अकेले ऐसे लोग बचे हैं जो ईमा्न और सच्चरित्रता से अपने जीवन को निर्देशित कर रहे हैं, जबकि पूँजी उन सारे तत्वों को पोषित कर रही है जिन्हे इब्राहिमी परम्परा में सेवेन डेडली सिन्स के बतौर पहचाना गया है। हालांकि अब मेरा मानना है कि वे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रतिगामी शक्तियां है जो ख़ून-ख़राबे के सिवा कुछ नहीं लायेंगी और न ही वे किसी और चीज़ के क़ाबिल हैं क्योंकि सिर्फ़ अपने को ही सही समझने का बोध उनके अन्दर इतना तगड़ा जमा हुआ है कि वे सारे उन लोगों को जो उनके रास्ते पर नहीं चल रहे पथभ्रष्ट और इसीलिए मारे जाने योग्य घोषित कर देते हैं। पाकिस्तान में आजकल जो मुसलमान ही मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं, वह इसी चिन्तन का परिणाम है।

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सी पी आई, माओइस्ट के महासचिव कौमरेड गणपति भारत के शासक वर्ग को प्रतिक्रियावादी कहते हैं जो प्रगतिशील का विलोम है और जिसका अर्थ होता है आगे बढ़ने के बजाय पीछे की अवस्था में लौटने वाला। मैं समझ नहीं पाता कि किस परिभाषा से माओवादी अपने आप को प्रगतिशील और राज्य को प्रतिक्रियावादी मानते हैं। यहाँ तक कि गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहार के आरोपी मोदी भी अपनी आर्थिक नीतियों में प्रतिक्रियावादी नहीं कहे जा सकते क्योंकि वो उस पूँजीवाद को बढ़ावा दे रही हैं जो जाति, धर्म और राष्ट्रीयता जैसे बनावटी विभाजकों को गला देता है। जबकि इस्लामी आतंकवादी जो शरिया को दुबारा लागू करने के लिए हर जगह संघर्ष कर रहे हैं, उन्हे कौमरेड प्रगतिशील शक्ति मानते हैं?

कौमरेड गणपति आतंकवादियों की पक्षधरता एक अलग नज़रिये से करते हैं.. कौमरेड मानते हैं कि तालिबान, अल क़ाएदा आदि प्रगतिशील शक्तियां हैं क्योंकि वे अमरीकी साम्राज्यवाद से संघर्ष कर रहे हैं और उसके नाश में क्रांतिकारी शक्तियों का सहयोग कर रहे हैं। भूमण्डलीय साम्राज्यवाद के विनाश से इस्लामी जनता अपनी दकियानूसी विचारधारा से जाग उठेगी और वर्गहीन समाज बनाने की ओर बढ़ चलेगी। पता नहीं कौमरेड ये क्यों भूल जाते हैं कि इस्लाम ख़ुद एक वक़्त में साम्राज्यवादी विचारधारा था और तब इस आर्थिक साम्राज्यवाद का नामोनिशां भी नहीं था। ये भूमण्डलीय साम्राज्यवाद, पुराने स्वरूप को नष्ट कर रहा है तो कौमरेड को लग रहा है कि पुराना प्रगतिशील है, क्रांतिकारी है और नया प्रतिक्रियावादी। कैसे सर के बल खड़े हैं कौमरेड?

(जारी)

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-१

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-२

पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-

17 टिप्‍पणियां:

  1. "उनके अनुसार अगर उनको अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रमाणपत्र मिल जाता तो उनकी समस्या हल हो जाती।"
    यह एक नए भ्रम की सृष्टि है।
    यह सोच भी सही है कि पूंजीवाद ही जाति, धर्म और राष्ट्रीयता जैसे बनावटी विभाजकों को गलाता है। वास्तव में "जनवादी जनतंत्र" की अवधारणा भी पूंजीवाद के विकास की ही अवधारणा है। वास्तव में मूल समस्या है 'जनतंत्र के विकास' की जो वर्तमान परिस्थितियों में कहीं गौण हो गया है। पूंजीवाद संकट के दौरों में तानाशाही का सृजन करता है। आज पूंजीवाद ने जनतंत्र के विकास को जमींदोज कर दिया है। वही आसन्न खतरा है। जनतंत्र के विकास का संघर्ष ही नई राहें पैदा कर सकता है।

    माफ करना, श्रंखला के बीच में टिप्पणी की है।

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  2. .धर्म समाज में नैतिक अनुशासन लाने के लिए एक जरूरी व्यवस्था है या कहे तो आत्मा को रिचार्ज करवाने के लिए इस्तेमाल करने वाला कूपन ...मनुष्य द्वारा अपने हित के लिए इसके कुछ टुकडो का अपने मुताबिक किया गया तजुर्मा जिसके पीछे ..शक्ति ओर शासन का लोभ था ....जिसके कारण वर्ग विभाजित समाज की स्थापना हुई ओर स्त्रियों को कंडिशनिंग करने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था का इजाद हुआ ..यानि मनुष्य ने हर शासन काल में इसका इस्तेमाल किया...परन्तु वक़्त के साथ साथ कुछ व्यवस्थाये चरमराई ओर अब २०१० में चीजे बदली है ओर बदल रही है ...अब धर्म प्रायरटी पर नहीं है हिन्दू समाज में ..रोजी रोटी की चिंता उससे पहले है ...

    .अरुंधति जैसे लोगो के लिए परोपकार एक थ्रिल है दुखो के सामूहिक झुंडो को तलाश कर किया जाने वाला थ्रिल...हाँ कोई भी कह सकता है मुझे ऐसा सवाल उठाने का हक नहीं जैसे कभी जावेद अख्तर ने मदर टेरेसा के लिए लिखा था .मुझको तेरी नीयत से इनकार नहीं पर .....
    फिर भी मै राजेंदर सिंह जैसे लोगो का ज्यादा सम्मान करता हूँ जो देश भर में पानी बचने के लिए दर दर बहत्कते है बिना कोई शोर मचाये प्रतिबधता से काम करते है .मै बाबा आमटे जैसे लोगो के आगे बौना महसूस करता हूँ जो अपने आप को समर्पित कर देते है दूसरो के लिए ....मै डॉ विनायक सेन का वाद नहीं देखता .....मै उनकी संवेदनशीलता देखता हूँ ओर एक आराम तलब जीवन से मुंह मोड़ने का साहस देखता हूँ ....मेरे लिए ऐसे लोग ज्यादा सम्मानीय है .....मुझे नहीं मालूम कौन सी विचारधारा क्या है मै एक वर्ग विहीन मुक्त समाज की कल्पना करता हूँ जिसमे धर्म उसी रूप में पुन स्थापित होगा जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में पहचानेगा
    .एक बात ओर आरकक्षण व्यवस्था का यदि न्यायोचित उपयोग हुआ होता तो अभी तक जाति व्यवस्था कभी की ख़त्म हो चुकी होती परन्तु ...दुःख की बात है ये है के इसका लाभ पाने वाले लोग जब आर्थिक रूप से संबल स्थान पर आ जाते है तो वे भी उसी वर्ग की भांति व्योवाहार करने लगते है ...ओर निरंतर इस व्यवस्था का दोहन इस तरह से करते है के वास्तव में जिनको चाहिए वहां तक ये सुविधा पहुँच नहीं पाती .यानी वर्ग में वर्ग विभाजन

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  3. बहुत ही सुंदर लेख. आपके पूंजीवाद पर नजरिये से मैं पूर्ण सहमत हूं. पूंजीवाद की चाहे जितनी बुराई लोग कर लें लेकिन उसने सीमायें तोड़ने का काम हमेशा किया है. चाहे वो सीमायें क्षेत्र की, या राज्य की, जाती कि, या धर्म की. यह सही है कि पूंजीवाद में जाती-धर्म-भाषा का लोप हो जाता है. पदासीन वही होता है जो इस व्यवस्था को सही प्रकार समझ कर उसमें खुद को ढाल सके चाहे व किसी जाती या धर्म का क्यों न हो.

    इसलिये मैं भी यह मानता हूं कि पूंजीवाद व्यक्तिवाद (individualism) को भी बढ़ावा देता है. पूंजीवाद के साये तले बहुत से नव-वि़चार पनपे हैं और पूंजीवादी देशों में ही सबसे ज्यादा नये विचारों के लिये जगह मिलती है. यह कोई मामूली बात नहीं कि मार्क्स और एन्जेल भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ही पैदाइश थे क्योंकि किसी जिस व्यवस्था में (जैसे कम्युनिस्ट, या एक-धार्मिक) नई सोच के लिये जगह ही न हो वहां कोई व्यक्ति नई सोच लेकर जाये भी तो कहां?

    इसलिये चाहे मार्क्स हो या ओशो हर किसी को सबसे पहले स्वीकार्यता पूंजीवादी व्यवस्था में ही मिलती है.

    प्रगतिवाद पूंजीवाद के साथ ही रहता है, क्योंकि बाजार का नियम है - adapt or die. जो खुद को बदल नहीं पाता वह नष्ट हो जाता है चाहे वह Bell Inc हो, IBM या Microsoft.

    और मुझे यह भी नही लगता कि भ्रष्टाचार, exploitation और पूंजीवाद में कोई डाइरेक्ट लिंक है, क्योंकि यह सब चीजें किसी भी कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट देशों में कम मात्रा में नहीं मिली (या शायद ज्यादा मिली हों).

    जहां तक जनतांत्रिक व्यवस्था का सवाल है वह भी Laissez faire के प्रिंसिपल का एक्सटेंशन हो सकती है. यह भूलने की बात नहीं कि युरोपीय देशों में भी पहले industrialization आया और बाद में जनतंत्र. क्या पूंजीवाद ने असंगठित गांव वालों को शहर या कस्बों में इतनी मात्रा में संगठित होने का मौका दिया कि वो अपनी शक्ति पहचान कर उसका उपयोग कर सके?

    क्या अगर कहा जाये तो फ्रीडम है तो फ्री इकानमी होगी तो यह् गलत होगा?

    जहां तक माओवादी या नक्सली हिंसा का सवाल है, इसमें मुझे भी जो दर्शाया गया है उनसे अलग कारणों की बू आती है. आपकी यह सीरीज़ बार-बार पढ़ने और समझने के लिये है. क्या अगला अंक आयेगा?

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  4. जारी लिखना भूल गया.. अगली किस्त में समाप्त होगा।

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. आंशिक सहमति के साथ ......साधुवाद
    आप हिंदु को सवर्ण और दलित मैं बांटते है....अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों की बात करते हैं....पर अधिसंख्य हिंदुओं को भूल जाते हैं....जिनके सामने अपने ही तथाकथित बुद्धीजीवी दीवार बनकर खङे हैं एक थानेदार की भूमिका मैं....आजादी आई अल्पसंख्यकों के लिए...दलितों के लिए.....पर इस देश का बहुसंख्यक समाज आजादी के बाद अपने उन पुरखों का हिसाब चुकता कर रहा हैं जिनको उसने देखा नही......जातिगत असमानता तब भी थी...और अब भी है....डायरैक्शन चैज हुआ है बस...

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  7. बहुत बढ़िया ,सुझाव माने तो इस सीरिज के सारे लेख
    प्रिंट मिडिया के माध्यम परोसा जाय .

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  8. @दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi… यह एक नए भ्रम की सृष्टि है।
    नहीं ये भ्रम नहीं है ! अगर मेरे ही क्लास में मुझसे १५-२०% कम अंक पा रहे... क्लास में सबसे पीछे रहने वाले विद्यार्थी. जो शहर से सबसे बड़े अधिकारी के बेटे/बेटी हैं (आर्थिक रूप से मुझसे कई गुना अधिक संपन्न और आईक्यू में उतने ही गुना पीछे) और वो नौकरी पाते हैं मैं घर बैठा रह जाता हूँ... तो मैं कैसे मान लूं भ्रम इसे?
    सिरिल गुप्ता जी की बातें भी खासी पसंद आई... जैसे ये "पूंजीवाद के साये तले बहुत से नव-वि़चार पनपे हैं और पूंजीवादी देशों में ही सबसे ज्यादा नये विचारों के लिये जगह मिलती है. यह कोई मामूली बात नहीं कि मार्क्स और एन्जेल भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ही पैदाइश थे क्योंकि किसी जिस व्यवस्था में (जैसे कम्युनिस्ट, या एक-धार्मिक) नई सोच के लिये जगह ही न हो वहां कोई व्यक्ति नई सोच लेकर जाये भी तो कहां?"

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  9. अगली किश्त की प्रतीक्षा है।
    घुघूती बासूती

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  10. अभी व्यस्त हूँ, इसे पढ़ कर फिर टिप्पणी करूंगा.

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  11. "ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र के विशेषाधिकारों के विपरीत, ब्राह्मण की अवमानना पर कोई विशेष अपराध नहीं बनता जबकि दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? "


    जम कर चिंतन किया है पंडित जी। ऐसी अनेक पंक्तियां कोट करता चला जाऊंगा, अगर अपनी पसंद बताने की शर्त रख दी जाए।

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  12. “असल में ये उनकी समझ का दोष है जो राज्य के चरित्र और समाज के चरित्र में भेद नहीं कर पा रहीं।”

    दरअसल ये हर उस छद्म साम्यावादी-समाजवादी की समझ का दोष है जो कभी हिन्दुओं को बख्शने के मूड़ में नहीं रहे। और तो और व्यापक हिन्दू समाज में भी अल्पसंख्य ब्राह्मण ही इनके निशाने पर रहे। इन्हें नहीं दिखता कि अपनी मातृभूमि पर आज सिर्फ तीस से पैंतीस हजार रह गए पारसी (प्रकारांतर से जोरास्ट्रीयन) भारत में फल फूल रहे हैं और एक लाख की तादाद में हैं। इनकी आबादी धीमी गति से बढ़ रही है तो सिर्फ इसलिए कि अपनी नस्ल को लेकर इनका दृष्टिकोण सनक की हद तक शुद्धतावादी है। हमलावर इस्लामी ताकतों का चरित्र सबको पता है। वे खैरात बांटते हुए यहां नहीं आए थे। इसके बावजूद यहां वे लगातार बढ़े, फले-फूले। धर्म के भरोसे बहिश्त के सुखों की चाहवालों की तुलना में वे कहीं ज्यादा बढ़े जिन्हें इस मुल्क के कानून और अमन में ज्यादा भरोसा था। गौरतलब यह भी है कि आजादी के बाद इस देश में इस्लाम खूब फलाफूला तो इसमें गलती हिन्दुओं या ब्राह्मणों की कैसे है? अगर इस्लामपरस्तों का बड़ा तबका अपने मजहब की ऐसी बढ़ती में खुद को गारत कर भी खुश है तो कोई क्या करे? अपने बाशिंदों के खुशहाल होने से कोई मजहब ज्यादा व्यापक होता है या उस तरह से जैसा इस उपमहाद्वीप में नजर आ रहा है।

    जो आदिवासी माओवादी तौरतरीकों पर यकीन नहीं करते क्या वे आदिवासी नहीं? अरुंधती अंततः सरकारी अंधेरगर्दी का विरोध करते हुए माओवादी अंधेरगर्दी के पक्ष में खड़ी हैं।

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  13. लगातार पढ़ रहा हूँ और आपसे सहमत भी हूँ। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।

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  14. @ अभिषेक ओझा
    आप ने मेरे इस कथन को कि "यह एक नए भ्रम की सृष्टि है" बहुत संकीर्ण अर्थ में ले लिया है।
    यहाँ समस्या है रोजगार का अभाव। आरक्षण ने पहला भ्रम तो आरक्षित जातियों के लिए रचा है कि उन सब को रोजगार मिल जाएगा। जब कि हो यह रहा है कि आरक्षण का 80 प्रतिशत लाभ इन जातियों का संपन्न तबका छीने ले रहा है जो यथार्थ में इन जातियों की मुख्य धारा से बहुत दूर आ चुका है। दूसरा भ्रम यह पैदा हो रहा है कि हम आरक्षित होते तो हमें रोजगार मिल जाता। वास्तविकता यह है कि रोजगार जब तक बढ़ाया नहीं जाएगा मिलेगा नहीं। रोजगार बढ़ाने के लिए क्या हो रहा है? एक ओर लोग 12 से 20 घंटों तक काम कर रहे हैं दूसरी ओर बेरोजगारी विद्यमान है। क्या वर्तमान व्यवस्था आठ या छह घंटे से अधिक कामं करने को पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं कर सकती?
    वास्तविकता यह है कि यह व्यवस्था जनता के विभिन्न हिस्सों को एक दूसरे के सामने खड़ा करती है।

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  15. इस ज्वलंत विषय पर चुनिन्दा आलेखों में से एक. दो बार पढ़ा मगर पर इस बार तुमने असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं छोडी. ;)

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  16. गर्मी और exam की निकटता बावजूद आपके लेख पढने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ |

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प्रशंसा, आलोचना, निन्दा.. सभी उद्गारों का स्वागत है..
(सिवाय गालियों के..भेजने पर वापस नहीं की जाएंगी..)