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गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

अधूरा ईश्वर..


कहते हैं कि यह संसार/कायनात/सृष्टि/ब्रह्माण्ड ईश्वर की रचना है या फिर यह सब कुछ ही ईश्वर है जिसे सूफ़ियों ने हमा ओस्त कहा है। इस बात में मुझे कुछ दुविधा लगती है।

अगर उस सर्वशक्तिमान सम्पूर्ण ईश्वर ने ये संसार बनाया है, अगर ये उस की अभिव्यक्ति है तो ये संसार भी सम्पूर्ण होना चाहिये! हर रचना अपने आप में सम्पूर्ण होनी चाहिये, बिना किसी विकार, कमी या नुक्स के। वो इसलिए कि पूर्ण से तो पूर्ण ही निकलता है, सम्पूर्ण ईश्वर की अभिव्यक्ति अपूर्ण कैसे हो सकती है? मगर हम जानते हैं कि हमारा संसार सम्पूर्ण नहीं है- तमाम तरह की अपूर्णताओं का समुच्चय है ये संसार।

सम्पूर्ण का ना तो विकास हो सकता है और ना ही ह्रास। लेकिन इस संसार में तो बदलाव ही नियम है- कुछ भी स्थिर नहीं है। जन्म, विकास, क्षय और मरण इस संसार की आधारभूत विशेषता है। हर पल कुछ जन्म ले रहा है, कुछ मर रहा है, कुछ का विकास हो रहा है, और कुछ का क्षय। निश्चित ही यह संसार अपूर्ण है, अधूरा है, इसे किसी सम्पूर्ण ईश्वर ने नहीं बनाया हो सकता।

और अगर, किसी न्यूनतम सम्भावना के चलते, ये अधूरा संसार सचमुच किसी ईश्वर ने बनाया भी है तो किसी सम्पूर्ण ईश्वर ने नहीं.. ये अधूरा संसार किसी अधूरे, अपूर्ण ईश्वर की ही रचना हो सकता है।

शुक्रवार, 18 जनवरी 2008

कमज़ोर शरीर में क़ैद इच्छाएं

बचपन में चालीस की उमर वाले लोग किसी और ही दुनिया के प्राणी लगते थे। अब चालीस पर खड़े होकर मैं अपने को उसी दुनिया में पाता हूँ जिस में पन्द्रह, बीस और पचीस में था। जवानी और बुढ़ापे के बीच खड़े होकर एक बात मैंने ग़ौर की है कि जवान आदमी ज़्यादा कोमल, आदर्शवादी और श्रेष्ठता-बोध से ओतप्रोत होता है। जबकि बूढ़ा आदमी कहीं कठोर, उपयोगितावादी और स्वार्थ-बोध में लिप्त होता है।

जवानी में आदमी शक्ति से, ओज से भरा होता है और बुढ़ापे में कमज़ोर। कुछ लोगों को यह बात अनैतिक लग सकती है मगर मुझे आज यह ठीक लगती है कि शक्ति से शुभता और कमज़ोरी से पाप उपजता है। इस समीकरण को 'कमज़ोर को प्यार करने' की ईसा की शिक्षा के विरुद्ध न समझा जाय। बल्कि सच तो यह है कि ईसा की शिक्षा में भी कमज़ोर और पाप के रिश्ते का स्वीकार है।

यहाँ पर मैं शक्ति को सत्ता के पर्यायवाची के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर रहा। बल्कि अक्सर सत्ता में बैठा व्यक्ति बेहद कमज़ोर होता है। और कोई भी व्यक्ति हमेशा शक्तिशाली और कोई दूसरा हमेशा कमज़ोर नहीं रहता। ज्योतिष में भी मानवीय गुणों के बल और शुभता के इस सम्बन्ध को ग्रहों के उच्च और नीच के विशेषणों से परिभाषित किया है।

आम तौर बूढ़े आदमी को बाबा मानकर आदर और सम्मान का पात्र समझा जाता है.. यह मान लिया जाता है कि उम्र बढ़ने के साथ उसके अनुभव में भी वृद्धि हो गई होगी। पर हमेशा ऐसा होता नहीं। शनि जो स्वयं बुढ़ापे का प्रतीक है दुःख का कारक है ज्ञान का नहीं। ज्ञान का कारक राहु है जो आदमी को अपने शासन काल में दर-दर भटका देता है। तो शायद चरैवेति चरैवेति का ही एक दूसरा रूप राहु में देखा जा सकता है। शंकराचार्य अगर परम ज्ञानी थे तो वे परम घुमक्कड़ होकर दर-दर भटके भी थे; और ये भटकना कुछ लोग मानसिक धरातल पर कर लेते हैं।

अनुभवजन्य ज्ञान और वय का सम्बन्ध है पर सीधा बिलकुल नहीं। और आम तौर पर होता है ये कि लोग बस बूढ़े हो जाते हैं.. इच्छाएं, अरमान, समझ और अनुभव जहाँ के तहाँ पड़े रहते हैं और सिर्फ़ शरीर बुढ़ा जाता है। असल में बूढ़े लोग एक शिथिल और कमज़ोर शरीर में क़ैद अतृप्त इच्छाएं हैं। झुर्रियों वाली खाल के भीतर वह किसी भी अन्य आदमी जैसे ही होते है। ऐसे बूढ़ों को ज्ञानी बाबा समझने की ग़लती कर के मैं बहुत झेला हूँ और उनके हाथों क्लेश पाकर ही इस समझ पर पहुँचा हूँ।
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