कानपुर की गाड़ी में बैठते ही कानपुर का स्वाद मिल गया। दूसरे दर्जे के कूपे में चार के बजाय पाँच सहयात्री दिखाई दिये। मैं और तनु साईड की बर्थ पर थे। पाँचवे शख्स के पास आरक्षण नहीं था। वे इस विश्वास से चढ़ बैठे कि टी टी के साथ जुगाड़ बैठा लेंगे। जुगाड़ यह इस प्रदेश के मानस का बेहद प्रिय शब्द है। तमाम जुगाड़ कथाओं के बीच दल के नेता ने अपने मित्रो को यह भी एक कथा-मर्म समझाया कि सरकारी हस्पताल प्रायवेट नर्सिंग होम से कहीं अधिक बेहतर पड़ता है। जितना खर्चा प्रायवेट में करोगे उसका चार आने का भोग सिस्टर आदि को चढ़ा दो फिर देखो कैसी सेवा होती है। दिन में चार बार चादर बदलेगी, सब तरह की दवा मिल जाएगी। भोग और प्रसाद का यह चलन जुगाड़ की परिभाषा के भीतर ही समाहित है।
टी टी ने एक बार घुड़की ज़रूर दी मगर फिर चार्ज वगैरा लगा के मान गया और एक बर्थ एलॉट भी कर दी। सारे रास्ते ठेकेदारों की यह टोली अपने हमसफ़रों की अमनपसन्दगी, और सामान्य शालीनता के प्रति एक बेलौस बेपरवाही बरतते हुए मादरचो बहन्चो करते आए। ये इस प्रदेश की ही विशेषता हो ऐसा नहीं है। क्योंकि पढ़े लिखे सभ्य लोगों को को वेल एडुकेटेड सोसायटी में फ़क्देम-फ़क्यू इत्यादि का जाप करते सुना जा सकता है। इस अर्थ में हम्रे ऊपी के बासियों में एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी है।
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कानपुर में गाड़ी चलाना एक अनुभव है। यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है कि जिसने कानपुर में गाड़ी चला ली, वो दुनिया के किसी भी इलाक़े में गाड़ी चला सकता है- लाइसेन्स हो या न हो। मेरा तजुरबा ये है कि लोग इस शहर में गाड़ी चलाते कम हैं सड़क पर मौजूद तमाम गाड़ियों के बीच खाली जगहों में अपना वाहन पेलते अधिक हैं।
लेकिन अगर आप को सचमुच कानपुर में गाड़ी चलाने का अनुभव प्राप्त करना है तो कभी सूरज ढलने के बाद चक्का घुमाइय़े। रात में कई सूरज आप को अंधा बनाने के लिए तैयार नज़र आयेंगे। या तो कानपुर में कोई नहीं जानता कि कार में हेड लाईट की एक सेटिंग का नाम लो बीम भी होता है या वो गहरे तौर पर विश्वास करते हैं कि ड्राईविंग एक युद्ध है और सड़क उनकी रणभूमि। सामने वाले को किसी तरह भी मात करना उनकी युद्ध-नीति का अंग है। जिसकी गाड़ी में जितनी तेज़ लाईट होगी वो सामने वाले को अंधा करके गाड़ी धीमी करने पर मजबूर कर सकेगा और बची हुई जगह में अपनी गाड़ी पेलने में सफल हो सकेगा।
आप सोचेंगे कि ये जुझारू चालक रात में तो हेडलाईट के हथियार से युद्ध करते हैं मगर दिन में? दिन में तो उनका यह अस्त्र बेकार सिद्ध हो जाएगा। बात माकूल है। मगर दिन में वे आँखों की जगह कानों पर हमला करते हैं। दूर से ही कानफोड़ू क़िस्म के भोंपू बजाते हुए वाहन दौड़ाते आते हैं। अपने शहर की रवायतों से अजनबी हो चुका मेरे जैसा आदमी घबरा के किनारे हो जाता है। मगर घिसा हुआ कनपुरिया अंगद की तरह डटा रहता है। इंच भर भी जगह नहीं छोड़ता। जनता का यह उदासीन व्यवहार और चिकना घड़त्व चालक को हतोत्साहित नहीं करता। वह लगा रहता है। उसे आदत पड़ चुकी है। उसे डर है कि हॉर्न न बजाने पर लोग उसे रास्ते का पत्थर मानकर सड़क के परे न धकेल दें। वो अपनी अंगुली हॉर्न से हटाता ही नहीं है।
आम नागरिक इस व्यवहार का वह इतना अभ्यस्त हो चुका है कि सुबह छै बजे चन्दशेखर आज़ाद विश्वविद्यालय में सुबह की टहल का आचमन करके स्वास्थ्य वृद्धि के उद्देश्य से आए मगर गलचौरे में व्यस्त निरीह, निरस्त्र लोगों पर भी वह इस हथियार का अबाध इस्तेमाल करने से बाज नहीं आता। और जड़ानुभूति हो चुके पक्के कानपुरिया कभी उस का कॉलर पकड़ कर सवाल करने का सोचते भी नहीं कि अबे भूतनी के! सुबह-सुबह खाली सड़्क पर काहे कान फोड़ रहा हैं.. हैं?
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एक अन्य अनुभव में यह पाया गया कि बड़े चौराहे पर नवनिर्मित पैदल पार पथ का इस्तेमाल करने में किसी पथिक की श्रद्धा नहीं है। परेड, शिवाले और मेस्टन रोड के आने जाने वाले बड़े चौराहे के हरे लाल सिगनल और चौराहे के केन्द्र में स्थापित ट्रैफ़िक हवलदार की किसी भी चेष्टा को पूरी तरह नगण्य़ मानते हुए इधर से उधर, और उधर से इधर होते रहते हैं। अनुभूति जड़ हो चुके पक्के कानपुरिया जानते हैं कि अगर वे अपने वाहन पर आसीन नहीं होते तो वे स्वयं भी अपने इस गऊवत व्यवहार के सामने बाक़ी दुनिया को झुकाए रखते। और गऊ हमारा श्रद्धेय प्राणी है जिसे क़तई भी कोई पुरातन कालीन न समझे.. आज कल गऊ पट्टी के ह्र्दय प्रदेस ऊपी में गऊ प्लास्टिक खाती है, इस से अधिक आधुनिकता का प्रमाण आप को और क्या चाहिये?
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यहाँ नवाबगंज में तमाम तरह के पेड़ लगे हैं नए-पुराने। बरगद, पीपल, आम, इमली, पकड़िया, और नीम जैसे सर्वव्याप्त वृक्षों के अलावा सहजन, अमलतास, गुलमोहर, गूलर, जंगलजलेबी, बालमखीरा, सुबबूल आदि भी लगे हैं। नए रोपे गए वृक्षों में कदम्ब कई जगह लगा है चूंकि वह जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। कदम्ब से पुराने वृक्षों में कसोड नाम का एक वृक्ष भी बहुतायत में लगा हुआ है। कई गलियों के तो पूरे के पूरे किनारे इसी कसोड के द्वारा आच्छादित हैं।
मुझे जिज्ञासा हुई कि कसोड नाम तो प्रदीप क्रिशन ने अपनी किताब ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही में दिया है। न जाने किस इलाक़े में यह नाम चलता हो। अपने कानपुर का क्या नाम है यह सोचते हुए मैं एक प्लास्टिक के पैकेट में आठ रुपये का पचास ग्राम धनिया झुलाते हुए चला जा रहा था। एक बंगले के सामने लगे कसोड के नीचे एक प्रौढ़ सज्जन एक ऐसी बेपरवाही और सहजता से पूरे चित्र में मौजूद थे जैसे कि कोई सिर्फ़ अपने घर के आगे ही हो सकता है। यह जानकर कि महाशय और इस पेड़ का साथ कई बरसों का लगता है, मैंने उन से पूछ डाला तपाक से – इस पेड़ का नाम क्या है। वो पहले तो अचकचाए फिर पेड़ की तरफ़ एक औचक दृष्टि उछाली और सर हिला दिया। इस का नाम तो नहीं मालूम। अपनी अज्ञानता में वो असहज न हो जायं मैंने कहा कि पीले फूल आते हैं न इसमें?
हाँ- पीले। बहुत पुराना पेड़ है। यहाँ जगह-जगह लगा है। तमाम लोगों ने कटवा दिया है। हमारा वैसेई बना है।
मैंने सर हिलाया कि जी यहाँ बहुत लगा है। और चलने लगा।
सड़क के पार उनके पड़ोसी बाहर खाट डाले पड़े थे। मेरे वाले महाशय ने उनसे पूछा कि नाम क्या है इस का। अधलेटे पड़ोसी ने सर प्रश्नवाचक मुद्रा में सर उचकाया।
रुकिये उनको पता है शायद।
मैं उनके पीछे-पीछे सड़क के पार गया। सवाल के जवाब में उन्होने सर नकारात्मक हिला दिया। और मेरी तरफ़ एक निगाह फेंकी जिस से मुझे समझ आया कि वो मेरे सवाल से ज़्यादा इस बात से दिलचस्पी रखते थे कि मैं कौन चीज़ हूँ जो ऐसे सड़क चलते पेड़ो का नाम-धाम पूछ रहा हूँ? इस के पहले कि वो मेरी कोई इन्क्वारी करते मैंने खिसक लेने में अपनी भलाई समझी क्योंकि उन्हे ये समझाना कि मैं इतना खलिहर हूँ कि मेरी दिलचस्पी काम धन्धे की दुनियादारी में नहीं.. बेफ़ालतू की ऐसी जानकारी इकट्ठी करने में है जो उन निम्न वर्ग के लोगों के पास ही बची है जो प्रकृति के साथ रहने के लिए अभी भी मजबूर हैं। बंगले में बन्द लोगों को अपने सामने खड़े पेड़ का नाम भी नहीं मालूम रहता और न वे मालूम करने की कोई कोशिश करते हैं। वैसे मेरे वाले महाशय ने ये ज़रूर वादा किया कि वन विभाग के लोग आते-जाते रहते हैं उन से पूछ कर वो हमें बतायेंगे। अब वो हमें कैसे बतायेंगे इस सवाल में आप अपनी मूँड़ी मत घुसाइये। हम ऊ पी के बासियों की ये एक और निर्मल निराली अदा है। कहीं तो मिलोगे कभी तो मिलोगे तो बता देंगे नाम।
आगे मेरी थेरम को इति सिद्धम करते हुए सासेज ट्री के नीचे मौसम्मी का ठेला लगाए बालक ने दूसरी ओर देखते हुए कहा- बालम खीरा। मेरा सवाल वही था कि इस पेड़ का नाम क्या है। मैं उस के ज़रिये एक पीछे की दुनिया में झांकना चाह रहा था और वो मुझ से पार एक आगे की दुनिया में कुछ तलाश रहा था।
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शनिवार, 8 अगस्त 2009
मंगलवार, 29 जनवरी 2008
मलाई-मक्खन
प्रमोद भाई बता रहे हैं कि मेरा नाम लेकर लोगों का मुँह कड़वा रहा है। मुझे इस का बड़ा खेद है कि लोकप्रिय होने की मूर्खतापूर्ण इच्छा को धकिया कर बाहर नहीं कर सका हूँ दिल से। इसी इच्छा के तहत यह पोस्ट- बहुत कड़वाहट फैला ली अब थोड़ा मीठा होना चाहता हूँ। वैसे भी आयुर्वेद बताता है कि पित्त का शमन मधुर रस से हो जाता है।
सर्दियों में कानपुर जाने के लिए घरवालों से मिलने के अलावा एक और चीज़ का आकर्षण का तार भी तना रहता है। वो ऐसी चीज़ है जो मेरी जानकारी में कानपुर और लखनऊ के अलावा कहीं और नहीं मिलती इस दैवीय वस्तु को मलाई-मक्खन का नाम दिया गया है। मुझे दुनिया में इस से बेहतर मिठाई दूसरी नहीं लगती।
मेरे लिए आइसक्रीम और मलाई-मक्खन में वही फ़रक है जो किसी फोटोग्राफ़र के लिए हॉटशॉट कैमरे और नाइकॉन एस एल आर में होता रहा होगा। बचपन में जो लखनऊ में खाया था उसका स्वाद सबसे बेहतर की तौर पर स्मृति में दर्ज है.. आजकल जो मिलता है उसमें मिलावटों का स्वीकार तो खुद बेचनेवाले भी करते हैं। पहले झऊवे में मिट्टी की परात में रख कर चलते थे और मिट्टी के सकोरों में खिलाते थे.. वह दिव्य होता था। अब वो बात नहीं हैं।
वैसे मेरे पास एक हैदराबादी रेसिपी बुक है जिसमें इसका नाम निमिष दिया गया है। अब निमिष नाम का कोई उर्दू-फ़ारसी मूल तो मिला नहीं मगर निमि नाम के एक राजा हुए हैं रघुकुल में जो वशिष्ठ के शापवश विदेह हो गए थे और बाद में गुरुकृपा होने पर उन्हे प्राणियों के नेत्रों में जगह मिली।
इस तरह से एक पलक झपकने का जो काल है उसे निमेष कहा गया हैं। निमेष या देशज रूप में निमिष या निमिख का अर्थ है बेहद सूक्ष्म अन्तराल.. क्षणिक। और मलाई मक्खन, झाग की तरह हलका और क्षणिक लगता है। निमिष नाम होने के पीछे का यही तर्क सोच सका हूँ। वो बात अलग है कि यह एक क्षण से कहीं ज़्यादा एक दिन तक टिक जाता है।
आजकल बाज़ार में मिलने वाले मलाई-मक्खन और किताब में दी हुई इस निमिष की तस्वीर में टेक्सचर का एक अन्तर है जो निश्चित ही मिलावटों का नतीजा है। जैसे कि देशी टमाटर (नाटा और पतली खाल का) बाज़ारू टमाटर (लम्बा और मोटी खाल का) से कहीं ज़्यादा खट्टा होता है। मेरा अनुमान है किताब वाले निमिष की मिठास ठेले वाले मलाई-मक्खन से कहीं ज़्यादा होगी।
वैसे तो फ़ास्टफ़ूड खाने वाली संस्कृति में ऐसी रेसिपी बताना मूर्खतापूर्ण है जिस में दूध को घंटे भर इस तरह घोटना पड़े कि उसमें मलाई न पड़ने पाए फिर रात भर चाँदनी में छोड़ना पड़े और फिर सुबह उठकर मथना पड़े इतना कि दूध बचे ही न सब एक झाग/मलाई-मक्खन बन जाय.. मगर क्या करें इन दिनों हम मूर्खताएं जब कर ही रहे हैं तो एकाध और कर लेने में क्या जाता है।

यह निमिष सिर्फ़ सर्दी के मौसम में ही तैयार हो सकता है जब ठीक से ओस गिरने लगे। जिन मित्रों को दिलचस्पी हो वे ऊपर की तस्वीर पर किलक कर पूरी विधि देख सकते हैं..
मेरे लिए आइसक्रीम और मलाई-मक्खन में वही फ़रक है जो किसी फोटोग्राफ़र के लिए हॉटशॉट कैमरे और नाइकॉन एस एल आर में होता रहा होगा। बचपन में जो लखनऊ में खाया था उसका स्वाद सबसे बेहतर की तौर पर स्मृति में दर्ज है.. आजकल जो मिलता है उसमें मिलावटों का स्वीकार तो खुद बेचनेवाले भी करते हैं। पहले झऊवे में मिट्टी की परात में रख कर चलते थे और मिट्टी के सकोरों में खिलाते थे.. वह दिव्य होता था। अब वो बात नहीं हैं।
इस तरह से एक पलक झपकने का जो काल है उसे निमेष कहा गया हैं। निमेष या देशज रूप में निमिष या निमिख का अर्थ है बेहद सूक्ष्म अन्तराल.. क्षणिक। और मलाई मक्खन, झाग की तरह हलका और क्षणिक लगता है। निमिष नाम होने के पीछे का यही तर्क सोच सका हूँ। वो बात अलग है कि यह एक क्षण से कहीं ज़्यादा एक दिन तक टिक जाता है।

वैसे तो फ़ास्टफ़ूड खाने वाली संस्कृति में ऐसी रेसिपी बताना मूर्खतापूर्ण है जिस में दूध को घंटे भर इस तरह घोटना पड़े कि उसमें मलाई न पड़ने पाए फिर रात भर चाँदनी में छोड़ना पड़े और फिर सुबह उठकर मथना पड़े इतना कि दूध बचे ही न सब एक झाग/मलाई-मक्खन बन जाय.. मगर क्या करें इन दिनों हम मूर्खताएं जब कर ही रहे हैं तो एकाध और कर लेने में क्या जाता है।

यह निमिष सिर्फ़ सर्दी के मौसम में ही तैयार हो सकता है जब ठीक से ओस गिरने लगे। जिन मित्रों को दिलचस्पी हो वे ऊपर की तस्वीर पर किलक कर पूरी विधि देख सकते हैं..
रविवार, 20 जनवरी 2008
कल्लू की चाट मिलेगी?
और कल्लू की चाट खतम होने में देर नहीं लगती.. ऐसा अकसर होता है कि आप पाँच बजे पहुंचे और बैंगनी खत्म हो चुकी है। इसलिए नहीं कि एक-डेढ़ घंटे के भीतर भीड़ ने सारी बैंगनियाँ लूट लीं बल्कि इसलिए कि कल्लू और कमलेश सालों से उतनी ही चाट बनाते हैं गिन के। जिस दिन मैं गया तो बताशे और टिक्की नहीं थी; कल्लू की तबियत ठीक नहीं थी तो वे नहीं बैठे।
सोचिये.. ऐसा कहाँ होता है आजकल? कोई प्रतियोगिता की होड़ नहीं, आगे निकल कर महल खड़े करने की कोई धक्का-मुक्की नहीं.. कोई प्रचार नहीं.. यहाँ तक कि कोई बोर्ड भी नहीं। बस एक सरल सहज गति से जीवनयापन। जबकि उनको पता है कि लोग क्या सोचते हैं उनकी चाट के बारे में। लोग कल्लू की चाट खाने दूर-दूर से तो आते ही हैं और साथ ही उनके नाम की कसमें भी खाते हैं और कहते हैं कि कल्लू कानपुर की सबसे अच्छी चाट बनाने वाले हैं।
मैंने भी खाई कल्लू की कचौडि़याँ और शिमला(मिर्च) इस बार। बावजूद इसके कि मैं पिछले लगभग बरस भर से मिर्च-मसालों से दूर संयमित भोजन कर रहा हूँ.. मेरा मुँह नहीं जला और पेट भी पचा गया। ज़रूर अपने शेष चरित्र के अनुकूल कल्लू अपनी चाट में बेकार के हानिकारक पदार्थों का इस्तेमाल नहीं करते होंगे।
ऐसे सरल-सहज कारीगरों-कलाकारों का क्या होगा बाज़ार की इस मॉलीय संस्कृति के दौर में..? क्या इनका जीवन-दर्शन एक दम बिला जाएगा? क्या आने वाली पीढ़ियाँ कल्लू जैसों की चाट का स्वाद नहीं सिर्फ़ मैकडोनाल्ड के बर्गर और केन्टकी के फ़्राइड चिकेन ही जानेगी?
मंगलवार, 15 जनवरी 2008
काम चलाने की मानसिकता
छोटे शहरों में सार्वजनिक आयामों का ऐसा हाल क्यों है जैसा कि है? सड़कों की, नालियों की, खेल के मैदानों की यहाँ तक कि अपने रहने के मकानों तक की कोई चिंता नहीं करता.. सब लोग किसी तरह काम चला लेते हैं। घर के ठीक सामने नालियाँ कीच से बजबजाती रहती हैं और लोग उन्हे साफ़ करने-कराने का कोई यत्न नहीं करते! क्यों? इस काम-चलाऊ मानसिकता का कारण क्या है? क्या इसलिए कि यह किसी और का काम है? और वे किसी और के काम में दखल न देने वाली नागरिक-नैतिकता रखते हैं? क्या मुम्बई जैसे बड़े शहरों के पुराने इलाक़ों में भी यही तस्वीर है? नहीं..!
शायद आप ने पिछले दिनों पढ़ा हो कि बान्द्रा ईस्ट के एम आई जी मैदान को लेकर क्लब की अधिकारियों और नागरिकों के बीच एक झगड़ा चल रहा है.. अभी हाल यह है कि मैदान को कुछ निश्चित घंटों के लिए ही आम नागरिकों के लिए खोला जाता है। बाकी समय मैदान को रणजी ट्रॉफ़ी के मैचेस, कुछ सांस्कृतिक आयोजन वगैरह के लिए किराये पर दे दिया जाता है जो क्लब की आय का एक मात्र स्रोत है।
पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!
मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
वो आज भी वैसे ही ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ पड़ा हुआ है झाड़ियों और पत्थरों से भरा हुआ कि जिसे देखकर आप के भीतर खेलने की कोई उमंग नहीं जागेगी। क्या यहाँ रहने वाले बच्चों को खेलने की कोई ज़रूरत नहीं? या उनके माँ-बाप इस बारे में सचेत नहीं? और अगर सचेत हैं तो कुछ करते क्यों नहीं? क्या उनके पास समय नहीं है? ऊर्जा नहीं है? क्या बात है?
मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।
दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।
आप का क्या खयाल है?

पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!
मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।
दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।
आप का क्या खयाल है?
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