
पर नागरिकों का मानना है कि इसके चलते इलाक़े के बच्चे अपने खेलने के मैदान से वंचित हो रहे हैं। और वे खेल के मैदान को क्लब के अधिकार से निकाल कर सार्वजनिक दायरे में लाना चाहते हैं। क्लब वाले कह रहे हैं कि उन्होने मैदान को महाडा से खरीद लिया है और नागरिक सकते में हैं कि ये कब हुआ कैसे हुआ? और उनके बीच लड़ाई जारी है!
मेरा सवाल है कि क्या ऐसी लड़ाई किसी छोटे शहर या क़स्बे में मुमकिन है? अगर नहीं तो क्यों नहीं? अभी पिछले दिनों मैं कानपुर गया हुआ था जहाँ मेरे बचपन का एक बड़ा हिस्सा गुज़रा है। बचपन में मैं साकेत नगर के जिस मकान में रहा करता था उसे फिर से देखने जा पहुँचा। उस मकान में कोई बदलाव नहीं आया यह देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई मगर ज़्यादा हैरानी इस बात से हुई कि सामने की सड़क और मैदान में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
मेरा अपना ख्याल यह है कि मुम्बई और कानपुर में फ़र्क गाँव से जुड़ाव का है। लोग छोटे शहरों में रहते हुए भी कभी पूरी तरह से मान नहीं पाते कि उन्हे स्थायी तौर पर यहीं रहना है। वे लगातार एक विस्थापित मानसिकता में ही बने रहते हैं। वे महज आर्थिक कारणों से गाँव छोड़कर शहर आए होते हैं और अपने शहरी-निवास को एक प्रवास मानकर बने रहते हैं एक अस्थायी मानसिकता में।
दूसरी बात जो मुझे लगती है कि चूँकि ज़्यादातर शहर मूलतः अंग्रेज़ों के द्वारा बनाए-बसाए गए हैं तो शहर में रहने वाले हिन्दुस्तानी एक पराये आयाम में परदेसी मानसिकता से रहते हैं। दूसरे की बनाई संरचना में अपने योगदान की बात, अपनी रचनात्मकता की बात वे नहीं सोचते। मुम्बई जैसे महानगर के इन इलाक़ों में लोगों के भीतर एक स्थायित्व आया है.. अब यहीं रहना है, कहीं और नहीं जाना, न आगे न पीछे। तो अपने आस-पास पर अपने अधिकार का दावा पेश करते हैं.. और अपने योगदान के प्रति सजग होते हैं।
आप का क्या खयाल है?