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गुरुवार, 25 मार्च 2010

हिन्दी पर आलोक


उर्दू-हिन्दी का विवाद बड़ा जटिल मामला है। हिन्दी भाषा और हिन्दी समाज गहरे तौर पर इस विवाद से प्रभावित रहा है। पिछले दिनों इलाहाबाद में लोकभारती में किताबें देखते हुए अचानक शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी की किताब उर्दू का आरम्भिक युग दिखाई दी। फ़ारुक़ी साब आज की तारीख़ में उर्दू के सबसे बड़े विद्वानों में से है। मीर तक़ी मीर पर उनके लेख अंग्रेज़ी में पढ़ चुका हूँ। उर्दू-हिन्दी मामले पर उनके विचार हिन्दी में पढ़ने का लोभ-संवरण नहीं कर सका। ख़रीद ली और आनन-फ़ानन पढ़ भी डाली। बहुत ही रिसर्च की मेहनत के बाद लिखे हुए लेख हैं, लेकिन वे जितने सवाल हल करते हैं उतने ही खड़े करते हैं।

बाद में वाक में नीलाभ भाई का एक लेख पढ़ने को मिला जिसमें उन्होने फ़ारुक़ी साब की प्रस्थापनाओं की ख़बर ली है: “फ़ारुक़ी साहब ने इस तहक़ीक़ाती कोशिश का जो मक़सद अपने लिए तय किया, वह इस पेचीदा मसले पर एक नया स्वाधीन और विवेकसम्मत विचार-विमर्श करने की बजाय उसी पिटे-पिटाये तर्क को दोहराना है कि सारी गड़बड़ी –और यहाँ ‘सारी’ पर ज़ोर मेरा है – अंग्रेज़ो की थी और उसके बाद हिन्दी (हिन्दू) अस्मिता के अलमबरदारों की।

संयोग से तभी बोधिसत्त्व के घर से नया पथ के दो उर्दू-हिन्दी विशेषांक हाथ लग गए, उनमें असग़र वजाहत, अली अहमद फ़ातमी, महेश्वर दयाल, लुत्फ़ुर रहमान, मेहर अफ़शां फ़ारुक़ी, सलिल मिश्र, प्रमोद जोशी, मधु प्रसाद, आलोक राय, कृष्ण बलदेव वैद, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, और रविकांत, के बड़े धारदार लेख पढ़ने को मिले। लेकिन मामले के सुलझाव का सिरा नहीं मिलता था। मुझ भाषा में इस क़दर उलझते देख प्रमोद भाई ने मेरी ओर आलोक राय की 'हिन्दी नेशनलिज़्म' उछाल दी। जिसे पढ़ कर मन तृप्त और गदगद हो गया।

अपनी भाषा और इतिहास और परम्परा के जितने भी माठे हैं, सब को किताब में बड़े प्रेम से सहेजा गया है। न किसी को सोहराया गया और न किसी को बख़्शा गया है। समझ में आता है कि किसी का दामन पाक नहीं है। अफ़सोस ये है कि किताब के पहले संस्करण के दस साल बाद भी इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ है। आलोक राय प्रेमचंद के पोते हैं और ऑक्सफ़ोर्ड से शिक्षित हैं। लिहाज़ा हिन्दी, उर्दू और अंग्रेज़ी तीनों परम्परा में दख़ल रखते हैं। ये तो आलोक जी की सुगठित अंग्रेजी की महिमा है जो किताब कुल १२२ पन्नो की है, लेकिन अगर कोई आम इंसान लिखता तो शायद ३०० पन्ने की किताब बनती। इसका अनुवाद करना कोई हँसी-खेल नहीं मगर हम ने हाथ आज़माया है क्योंकि बातें बेहद ज़रूरी है।


हिन्दी नेशनलिज़्म

(ये किताब के बीच से रैन्डमली उठाया हुआ अपनी पसन्द का एक टुकड़ा है। इसके पहले राय साहब ये बता चुके हैं कि किस तरह से १८३५ में अंग्रेज़ो नें सरकारी कामकाज़ की भाषा फ़ारसी से बदलकर उर्दू कर दी। दूसरी तरफ़ अंग्रेज़ो की शिक्षा नीति के तहत हिन्दी पाठशालाओं में नागरी में और मदरसों में उर्दू में शिक्षा जारी रही।)

दो समान्तर शिक्षा धाराएं पालने का बेतुकापन एक दुखद पिच तक पहुँच गया क्योंकि सबसे अधिक रोज़गार पैदा करने वाला कोलोनियल तंत्र, नागरी धारा से शिक्षित लोगों के रोज़गार के लिए पूरी तरह से बंद नहीं था। जैसा कि पहले इशारा किया गया है कि निस्बतन इस ज़्यादा देहाती छात्र से अपेक्षित था कि वे ‘मामूली स्थानीय पदों’ के लिए, अक्सर शिक्षा के ही क्षेत्र में, उम्मीदवारी करें – जिस से मसला और उलझता था। १८७७ में, नागरी/हिन्दी की मान्यता के लिए जो आन्दोलन पनप रहा था, उसके लगभग एक अड़ियल जवाब में, १० रुपये मासिक से अधिक की सरकारी नौकरी पाने के लिए उर्दू की जानकारी को कम्पलसरी बना दिया गया। अंग्रेज़ सरकार की शिक्षा नीति और रोज़गार नीति के बीच की विसंगति (कम्पलसरी उर्दू की बात को १८९६ में जाकर वापस लिया गया) से उपजी आर्थिक ज़रूरत या कहें आर्थिक हताशा, उन्नीसवीं सदी के आख़िरी सालो में उत्तर भारतीय भाषाई भेदभाव की राजनीति को समझने का एक ज़रूरी हिस्सा है। भारतेन्दु और उनके समकालीनों के लेखन में, शिक्षित वर्गो में बेरोज़गारी का विषय, बार-बार लौटता रहता है। उन में से एक ने एक कविता भी लिखी (जिसकी तारीख़ भी दिलचस्प है ६ ए. एच., एनो हरिश्चन्द्र यानी १८९१) जिसमें फंसे होने के मूड को बख़ूबी पकड़ा गया है:

लैसन इंकम चुन्गी चन्दा पुलिस अदालत बरसा घाम।
सब के हाथन असन बसन जीवन संसयमय रहत मुदाम।
जो इनहू ते प्रान बचे तो गोलि बोलति आय धड़ाम।
मृत्यु देवता नमस्कार तुम सब प्रकार बस तृप्यन्ताम॥

इनपुट (शिक्षा) और आउटपुट (रोज़गार) के बीच उस वक़्त मौजूद इस विसंगति के बिना, ख़ाली सीरामपुर और फ़ोर्ट विलियम से निकली कही जाने वाली फ़ारसी प्रभावित, संस्कृत और ब्रज से प्रभावित क़िस्मों के भाषाई और शैलीगत फ़र्क़ो से- यहाँ तक कि पतनशील मुग़ल अमीरों से और हिन्दू धार्मिक ग्रंथो के विविध अनुवादकों से भी- वो ज़हरीला असर मुमकिन नहीं था जो जल्द ही सामने आया। अपने और दूसरे के अंग-भंग करने वाले, और अन्ततः गृहयुद्ध और विभाजन तक ले जाने वाले सांस्कृतिक भेदभाव के प्रचण्ड राक्षस की रचना उन समान्तर नर्सरियों में हुई जो कोलोनियल शिक्षा नीति के अनचाही और मासूम पैदाईश थीं। लेकिन वर्नेकुलर विवाद- जैसा कि इस मामले को उस वक़्त नाम दिया गया था- या नागरी/हिन्दी आन्दोलन- केवल संयुक्त प्रांत (नॉर्थ वेस्ट प्राविन्स और अवध) में ही ज़ोर पकड़ सका। और ये बेक़ाबू तब हो चला जब कोलोनियल शिक्षा नीति - और कुछ दूसरे कारणों ने जैसे कि क़स्बों में व्यापारियों और साहूकारों के हाथों में वेल्थ के एकुमुलेशन - ने एक ऐसे इलीट वर्ग को पैदा कर दिया था जो भाषाई भेदभाव के द्वारा मुमकिन हुई, और अपरिहार्य हो गई राजनीति की बाग़डोर सम्हाल सके।

* * *

उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध को, कम से कम उत्तर भारत को, डिफ़ाइन करने वाली –बहुत मक़बूल न भी सही- घटना १८५७ का विद्रोह थी। कोलोनियल इतिहासकारों ने जिसका महत्व ‘सिपाही विद्रोह’ कह कर घटाने की सायास कोशिश की। १९७७ में राम विलास शर्मा की लिखी हुई असरदार किताब ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ एक घनघनाती हुई घोषणा से शुरु होती है: “हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम से आरम्भ हुआ।” शर्मा जी के अनुसार, १८५७ के विद्रोहियों द्वारा जारी तमाम एलानों में व्यक्त पापुलर, डेमोक्रेटिक और एन्टी कोलोनियल विचारों से, भारतेन्दु और उनके समकालीनों में अभिव्यक्त चेतना तक, एक अबाध संक्रमण है। इसके बाद वे भारतेन्दु युग से, द्विवेदी जी के प्रभावशाली पत्रिका ‘सरस्वती’ से जुड़े लेखकों की चारित्रिक नेशनलिस्ट और मार्डनिस्ट बेचैनी तक, भी एक सीधा विकास देखते हैं। ये ऊपरी तौर पर विश्वसनीय और एक ख़ुशगवार अवधारणा है, लेकिन इसके साथ कुछ मुश्किलें हैं। १८५७ के विद्रोहियों की वैचारिक प्रेरणा में पापुलर-डेमोक्रेटिक और फ़्यूडल तत्व मिले-जुले थे। ये हैरानी की बात नहीं, और शर्मा जी १८५७ के विद्रोहियों की कोलोनियल नज़रिये से इतिहास में उन पर रखे गए दोषारोपण से उद्धार की ज़बरदस्त वक़ालत करते हैं। लेकिन १८५७ के सदमे के बाद वाली पीढ़ी का उस धरोहर से एक दुविधापूर्ण रिश्ता रहा। निश्चित ही इस धरोहर को ख़ुले तौर पर न अपना पाने के भारी कारण भी थे। फिर भी, ये ग़ौर करने लायक़ बात है कि कुछ दशक बीत जाने के बाद ही १८५७ की याद की जा सकी। नागरी/हिन्दी के आन्दोलन के एक पहलू पर उनके पायनियर स्टडी में क्षितिकंठ मिश्र अनायास कहते हैं कि भारतेन्दु हरिशचन्द्र और उनके समकालीनों में १८५७ को कोई जगह नहीं मिलती।

और जबकि १८५७ के विद्रोहियों को अपनाया नहीं जा सकता था, उस भूचाल के बाद क़ाबिज़ कोलोनियल सत्ता के साथ एक समझौते का रास्ता बनाना ही था। नतीजे में पैदा हुई चेतना एक अन्तरविरोध के तनाव में है, एक कोलोनियल आतंक के सन्दर्भ में एक राष्ट्रीय चेतना को गढ़ने की ज़रूरत के तनाव में है। भारतेन्दु का करियर कुछ अर्थों में इस तनाव का मार्मिक मुज़ाहरा है: अपनी दुनिया की ज़िम्मेदारी लेने को आतुर आज़ाद चेतना की लगाम बार-बार कसी जाती है, कोलोनियल ताक़त की सच्चाई के मुताबिक चलने के लिए मजबूर होती है, चुप रहने के लिए मजबूर होती है। शर्मा जी को सम्मान सहित, मेरा मत है कि कि यही तनाव है जो भारतेन्दु, उनके समकालीनों और उनके उत्तराधिकारियों के भी विकास का निर्धारण करता है। यही वजह है, म्यूटैटिस म्यूटैन्डिस*, कि हिन्दी आन्दोलन के आरम्भिक दौर में बेशक़ जो डेमोक्रेटिक और मार्डन तत्व थे वे समय के साथ संकीर्ण और रिएकशनरी बन गए। १८५७ एक वाटरशेड है, लेकिन राजनीति- सांस्कृतिक राजनीति भी - जो वाटरशेड के इस तरफ़ विकसित हुई वो मुक्ति और दमन, दोनों के क्षण से दाग़ी हुई है। १८५७ को एक ऐसी देहरी या ऐसे मंच, जिससे भारतीय राष्ट्र की आधुनिकता का प्रोजेक्ट शुरु हुआ, के बजाय मेरा सोच में वह एक रसातल की तरह है। रसातल के इस तरफ़ जो राजनीति हुई वो रसातल और उससे पैदा हुए शक्ति शून्यता, दोनों से बराबर प्रभावित थी, और उतनी ही विद्रोहियों के ऐलानों से और यहाँ तक कि सदमे के पहले के संसार की स्मृतियों से भी।

* दूसरे बदलावों को ज़ेहन में रखते हुए



(हालांकि किताब लिखने के बाद गंगा में और तमाम पानी बह गया है, हिन्दी आम लोगों तक पहुँचने की एक कारगर भाषा के रूप बाज़ार में उसके लिए जगह बनाई जा रही है तो दूसरी तरफ़ लण्डन में बैठे भाषाविद, हिन्दवी के इतिहास से नई बातें खोज निकाल रहे हैं। जिन्हे पढ़ने के बाद हिन्दी की उर्दू के कंधे पर सवार होने की बात शक़ के दायरे में जा रही है। )
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