हुसैन नहीं रहे। उनके साथ ही एक युग का अंत जैसा हो गया। उनके जाने से बहुत धक्का लगा या अपार दुख हुआ या मैं सन्न हूँ जैसा कुछ भी नहीं है मेरे पास। जब ९६ साल का आदमी मरता है तो उसके मरने की कल्पनाएं बहुत पहले से शुरु हो जाती हैं। हुसैन ने तो एक भरा-पूरा, लम्बा जीवन जिया। एक स्वस्थ जीवन। मरने से दो महीने पहले तक के इन्टरव्यूज़ में वे अपने विचार, उमंग और चेष्टाओं में पूरी तरह से चैतन्य और सजग दिखाई देते हैं। जीवन के प्रति लालसा और चाहना से भरे हुए। बहुत कुछ कर लेने के उत्साह से लबालब। उसी किसी साक्षात्कार में मैंने उन्हे यह कहते भी सुना कि वे आधे पेट ही खाते हैं। लम्बी उमर की कामना वाले नोट कर लें। मैं ने तो गाँठ बाँध ली है- लेकिन आत्मा के उस पहलू का क्या जो ज़ुबान पर बसती है?
हुसैन कितने पुरातन थे यह छियानबे कहने से पता नहीं चलता। वो आदमी देश के बँटवारे के समय तक ही बत्तीस का होकर एक उमर जी चुका था और मंटो और फ़ैज़ की तरह उसने पाकिस्तान नहीं चुना था। जब गुरुदत्त ने ख़ुदकुशी की तो हुसैन उन्चास साल के थे जबकि ख़ुद गुरुदत्त उन्तालिस में ही अपनी ज़िन्दगी से आजिज़ आ गए थे। और जब सत्तर के दशक में उन्होने अपनी कुख्यात देवी सीरीज़ के चित्र बनाने शुरु किए तो वो पचपन पार कर चुके थे और उनके स्टाईल में कई बुनियादी बदलाव आके गुज़र गए थे। अक्सर लोग उन चित्रों को आईसोलेशन में देखते हैं जिससे वो किसी अपशब्द की तरह लिखे दिखाई देते हैं। मगर अगर किसी किताब के किसी अध्याय के किसी वाक्य के किसी शब्द को अकेले ही पढ़ा जाय तो एक नहीं बहुत सारे शब्द अपशब्द बन जाएंगे। हर शब्द अपने सन्दर्भ में ही अर्थवान होता है।
अक्सर लोग हुसैन के नाम के साथ महान चित्रकार की माला जपते हुए क्रांतिकारी सलाम-वलाम ठोंकने लगते हैं। ये सब नासमझी और शोशेबाज़ी है। हुसैन चित्रकला में वैसे ही थे जैसे अभिनयकला में शाहरुख़ ख़ान हैं। मीडिया को लुभाना और अरझाना दोनों उन्हे आता था। उनकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि वे हिन्दोस्तान के सबसे महँगे बिकने वाले चित्रकार थे। अदा ये थी कि नंगे पैर चलते थे। चित्रकला में उनका क्या विशिष्ट योगदान है, यह पूछने पर कोई स्पष्ट जवाब आप पा सकेंगे, शक़ है। सबसे रौशनी में खड़ा आदमी ही सबसे ज़हीन और अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण चिह्नों से लैस नहीं होता। बहुत सारे दूसरे लोग नीम-अंधेरों और घुप अंधेरों में बहुत से अहम काम कर जाते हैं। लेकिन सचिन तेंदुलकर और सलमान ख़ान को बल भर गरियाने वाले लोगों को भी हुसैन के नाम के आगे पिघल कर पानी हो जाते मैंने देखा है। इससे उनके व्यक्तित्व की कशिश का अन्दाज़ा होता है या शायद लोगों की कलात्मक समझ का भी।
बुड्ढे में कितना दम था इसे ऐसे भी समझा जाय कि जब बॉलीवुड से उनका अफ़ैयर शुरु हुआ तो वो सतहत्तर पार कर चुके थे। और अपने जीवन के आठवें दशक में उन्होने माधुरी और तब्बु से अपने इश्क़ को जगज़ाहिर किया और गजगामिनी और मीनाक्षी बनाई। जीवन के अपने आख़िरी दौर में हुसैन ने देश छोड़ दिया था। तमाम लोग इसे तमाम तरह से देखते हैं लेकिन हुसैन का कहना था कि वो ९० की उमर में किसी से लड़ना नहीं चाहते थे। बीच में कभी फ़ेसबुक पर उदय प्रकाश ने राजेन्द्र यादव के लिए लिखा था कि सतहत्तर के बाद कोई भी सामान्य इन्सान देवता हो जाता है, हुसैन तो उस पर भी उन्नीस मुक़ाम पार कर गए थे।
रही बात भावनाओं को चोट पहुँचाने की तो कला ने भावनाओं को झकझोरा ही नहीं तो काहे की कला? किसी भी सभ्य समाज को अपने कलाकार के झकझोर के लिए इतनी जगह ख़ाली रखनी चाहिये। नहीं तो पिकासो ने ये भी कहा है – “कला कभी अनुशासित नहीं होती। और इसीलिए उसे नादान अज्ञानियों के लिए हराम रखना चाहिये, जो कच्चे-अधपके हैं उन्हे पास भी नहीं फटकने देना चाहिये। हाँ, कला ख़तरनाक है। और जहाँ वो अनुशासित है, कला नहीं है।”