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शुक्रवार, 10 जून 2011

कला कभी अनुशासित नहीं होती


हुसैन नहीं रहे। उनके साथ ही एक युग का अंत जैसा हो गया। उनके जाने से बहुत धक्का लगा या अपार दुख हुआ या मैं सन्न हूँ जैसा कुछ भी नहीं है मेरे पास। जब ९६ साल का आदमी मरता है तो उसके मरने की कल्पनाएं बहुत पहले से शुरु हो जाती हैं। हुसैन ने तो एक भरा-पूरा, लम्बा जीवन जिया। एक स्वस्थ जीवन। मरने से दो महीने पहले तक के इन्टरव्यूज़ में वे अपने विचार, उमंग और चेष्टाओं में पूरी तरह से चैतन्य और सजग दिखाई देते हैं। जीवन के प्रति लालसा और चाहना से भरे हुए। बहुत कुछ कर लेने के उत्साह से लबालब। उसी किसी साक्षात्कार में मैंने उन्हे यह कहते भी सुना कि वे आधे पेट ही खाते हैं। लम्बी उमर की कामना वाले नोट कर लें। मैं ने तो गाँठ बाँध ली है- लेकिन आत्मा के उस पहलू का क्या जो ज़ुबान पर बसती है?

हुसैन कितने पुरातन थे यह छियानबे कहने से पता नहीं चलता। वो आदमी देश के बँटवारे के समय तक ही बत्तीस का होकर एक उमर जी चुका था और मंटो और फ़ैज़ की तरह उसने पाकिस्तान नहीं चुना था। जब गुरुदत्त ने ख़ुदकुशी की तो हुसैन उन्चास साल के थे जबकि ख़ुद गुरुदत्त उन्तालिस में ही अपनी ज़िन्दगी से आजिज़ आ गए थे। और जब सत्तर के दशक में उन्होने अपनी कुख्यात देवी सीरीज़ के चित्र बनाने शुरु किए तो वो पचपन पार कर चुके थे और उनके स्टाईल में कई बुनियादी बदलाव आके गुज़र गए थे। अक्सर लोग उन चित्रों को आईसोलेशन में देखते हैं जिससे वो किसी अपशब्द की तरह लिखे दिखाई देते हैं। मगर अगर किसी किताब के किसी अध्याय के किसी वाक्य के किसी शब्द को अकेले ही पढ़ा जाय तो एक नहीं बहुत सारे शब्द अपशब्द बन जाएंगे। हर शब्द अपने सन्दर्भ में ही अर्थवान होता है।

अक्सर लोग हुसैन के नाम के साथ महान चित्रकार की माला जपते हुए क्रांतिकारी सलाम-वलाम ठोंकने लगते हैं। ये सब नासमझी और शोशेबाज़ी है। हुसैन चित्रकला में वैसे ही थे जैसे अभिनयकला में शाहरुख़ ख़ान हैं। मीडिया को लुभाना और अरझाना दोनों उन्हे आता था। उनकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि वे हिन्दोस्तान के सबसे महँगे बिकने वाले चित्रकार थे। अदा ये थी कि नंगे पैर चलते थे। चित्रकला में उनका क्या विशिष्ट योगदान है, यह पूछने पर कोई स्पष्ट जवाब आप पा सकेंगे, शक़ है। सबसे रौशनी में खड़ा आदमी ही सबसे ज़हीन और अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण चिह्नों से लैस नहीं होता। बहुत सारे दूसरे लोग नीम-अंधेरों और घुप अंधेरों में बहुत से अहम काम कर जाते हैं। लेकिन सचिन तेंदुलकर और सलमान ख़ान को बल भर गरियाने वाले लोगों को भी हुसैन के नाम के आगे पिघल कर पानी हो जाते मैंने देखा है। इससे उनके व्यक्तित्व की कशिश का अन्दाज़ा होता है या शायद लोगों की कलात्मक समझ का भी।

बुड्ढे में कितना दम था इसे ऐसे भी समझा जाय कि जब बॉलीवुड से उनका अफ़ैयर शुरु हुआ तो वो सतहत्तर पार कर चुके थे। और अपने जीवन के आठवें दशक में उन्होने माधुरी और तब्बु से अपने इश्क़ को जगज़ाहिर किया और गजगामिनी और मीनाक्षी बनाई। जीवन के अपने आख़िरी दौर में हुसैन ने देश छोड़ दिया था। तमाम लोग इसे तमाम तरह से देखते हैं लेकिन हुसैन का कहना था कि वो ९० की उमर में किसी से लड़ना नहीं चाहते थे। बीच में कभी फ़ेसबुक पर उदय प्रकाश ने राजेन्द्र यादव के लिए लिखा था कि सतहत्तर के बाद कोई भी सामान्य इन्सान देवता हो जाता है, हुसैन तो उस पर भी उन्नीस मुक़ाम पार कर गए थे।

रही बात भावनाओं को चोट पहुँचाने की तो कला ने भावनाओं को झकझोरा ही नहीं तो काहे की कला? किसी भी सभ्य समाज को अपने कलाकार के झकझोर के लिए इतनी जगह ख़ाली रखनी चाहिये। नहीं तो पिकासो ने ये भी कहा है कला कभी अनुशासित नहीं होती। और इसीलिए उसे नादान अज्ञानियों के लिए हराम रखना चाहिये, जो कच्चे-अधपके हैं उन्हे पास भी नहीं फटकने देना चाहिये। हाँ, कला ख़तरनाक है। और जहाँ वो अनुशासित है, कला नहीं है

सोमवार, 8 मार्च 2010

रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?

क़रीब तीन साल पहले जब ब्लौग जगत के कुछ उत्साही सेकुलरपंथियों ने हिन्दू धर्म के देवी-देवताओं की मर्यादा का अतिक्रमण करती कुछ पोस्टें चढ़ाई थीं तो धुरविरोधी* ने पूछा था : “रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?”

एम एफ़ हुसैन साहिब को लेकर जो बहस छिड़ी हुई है, उसमें मैं अपने पुराने साथी पंकज श्रीवास्तव और नीलाभ भाई से सहमत हूँ। मगर 'जनतंत्र' पर जो बात समरेन्द्र कहते हैं वो भी मुझे तार्किक लगती है। न तो हुसैन उतने मासूम हैं जितने कि हमारे साथी उन्हे बतला रहे हैं और न ही हमारे साथी उतने निरपेक्ष जितना कि वे दावा करते हैं। इसी कमी की ओर इंगित करते हुए धुरविरोधी ने पूछा था कि रंगीला रसूल भेज दूँ, छापोगे क्या?

बहुत लोग नहीं जानते होंगे कि 'रंगीला रसूल' क्या है। जो थोड़ी बहुत जानकारी** मिलती है वो कुछ यूँ हैं -

१९२० में दो किताबें प्रकाशित हुईं एक का नाम था- ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’, और दूसरी थी – ‘बीसवीं सदी का महर्षि’। इन किताबों में श्रीकृष्ण और आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द के चरित्र की जिस अन्दाज़ से विवेचना की गई थी, तत्कालीन पंजाब के हिन्दुओं को वह बहुत नहीं जंची। जवाब में एक आर्यसमाजी विद्वान पंडित चमूपति ने पैग़म्बर मोहम्मद के चरित्र पर एक किताब लिखी जिसका शीर्षक रखा – रंगीला रसूल। इस किताब में मोहम्मद साहब के यौन-जीवन पर बात की गई थी। लेकिन चमूपति जी किताब को अपने नाम से छपवाने में डर रहे थे कि कहीं ऐसा न हो कि जान से जायं। एक नए प्रकाशक राजपाल ने चमूपति को गुमनामी का आश्वासन दिया और पुस्तक पर लेखक की जगह ‘दूध का दूध पानी का पानी’ नाम दे दिया, मगर अपना नाम-पता न छिपाया।

जैसी कि आशंका थी, १९२४ में किताब छपते ही बड़ा बलवा म़चा। राजपाल जी पर बहुत दबाव आया कि बतायें कि लेखक कौन है। लेकिन उन्होने अपना वादा न तोड़ा। लिहाज़ा ग़ुस्से का निशाना वही बने। पहला जानलेवा हमला उन पर १९२६ में एक पठान ने छुरे से किया। हमलावर को सात साल की जेल हुई और राजपाल जी तीन मास में चंगे हो गए। कुछ मास बाद एक और हमला हुआ, लेकिन इस बार हमलावर ने उनके धोखे में किसी और को निशाना बना लिया।

मामला गर्म हो गया और गाँधी जी को भी बयान देना पड़ा कि ‘एक साधारण तुच्छ पुस्तक-विक्रेता ने कुछ पैसे बनाने के लिए इस्लाम के पैग़म्बर की निन्दा की है, इसका प्रतिकार होना चाहिये।’ ख़िलाफ़त आन्दोलन वाले मौलाना मोहम्मद अली ने जामा मस्जिद से तक़रीर की कि काफ़िर राजपाल को छोड़ना नहीं, उसे सज़ा देनी चाहिये। दबाव में आकर ब्रिटिश सरकार ने राजपाल जी पर पांच साल तक मुक़द्दमा चलाया, निचली अदालत ने छै महीने की सज़ा सुनाई। लेकिन हाई कोर्ट ने उस सज़ा को रद्द किया और फ़ैसला दिया कि किताब में दिए सारे तथ्य सच्चे और ऐतिहासिक हैं। रिहा होने के बाद राजपाल जी*** ने कहा कि रंगीला रसूल से मुसलमानों का दिल दुखा है इसलिए वे उसका अगला संस्करण नहीं छापेंगे।

इस के बावजूद १९२९ में एक अन्य हमलावर ने उनकी जान ले ली।

खोजने वाले को रंगीला रसूल इन्टरनेट पर मिल जाएगी। मैंने वहीं से खोज के पढ़ी है और पाया कि वाक़ई उस किताब में ‘तथ्यतः’ कुछ भी ग़लत नहीं है। (भावना का प्रश्न रह जाता है वह बड़ा सापेक्षिक है) आज भी दुकानों में रंगीला रसूल आप को ढूंढने से भी कहीं नहीं मिलेगी।

क्यों?

गाँधी जी आज जीवित होते तो हुसेन साहब के मसले पर भी वही राय रखते जो उनकी रंगीला रसूल पर थी?

अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए लड़ने वाले बन्धु ‘रंगीला रसूल’ और राजपाल की शहादत को भूल क्यों जाते हैं?


*एक सजग चिट्ठा जो अब अन्तरजाल से डिलीट किया चुका है।
**राजपाल जी के पुत्र दीना नाथ मल्होत्रा की किताब ‘भूली नहीं जो यादें’ में से।
***भारत के दो मुख्य प्रकाशन गृह
-राजपाल और हिन्द पॉकेट बुक्स -के स्वामी उन्ही के वंशज है।

विकी पीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार किताब मूल रूप से उर्दू में लिखी गई थी। बाद में उसका हिन्दी में लिप्यान्तर किया गया। किताब भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश में प्रतिबंधित है। राजपाल जी के हत्यारे इलम दीन को मौत की सज़ा हुई और उसे शहीद माना गया और बाद में गाज़ी का ख़िताब दिया गया।
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