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सोमवार, 31 मार्च 2008

फ़ैमीन ऑर फ़ीस्ट

ब्लॉग के सभी दोस्तों से माफ़ी.. पिछले कई दिनों से न तो ब्लॉग लिख रहा हूँ और न पढ़ पा रहा हूँ.. टिप्पणी तो ज़ाहिर है कहीं नहीं कर रहा.. हाँ इस बीच दिल्ली से यशवंत और उनके पनवेल के भड़ासी साथी डॉ० रूपेश से ज़रूर मुलाक़ात हुई.. ये ब्लॉगर मीट (कुछ लोग इसे मिलन कहते हैं और कुछ इसे संगत के नाम से नोश फ़रमाते हैं) मेरे घर पर ही सम्पन्न हुआ.. जिसमें मैंने यशवंत पर थोड़ी भड़ास निकाली और उसने निर्मलता से मुझे सुना.. प्रमोद भाई, अनिल भाई और बोधि के अलावा उदय भाई से भी इसी बहाने काम की अफ़रातफ़री के बीच, मिलना हो गया..

कुछ दोस्तों की चिट्ठियाँ आईं थीं.. उनका जवाब भी नहीं दे सका.. पर क्या है कि मैं एक स्टीरियोटिपिकल मेल हूँ विद वनट्रैकमाइन्ड.. सोचा कि अब जवाब लिख दूँगा कि तब.. मगर काम में मुब्तिला रहा और कई रोज़ निकल गए..इन दिनों कुछ ग़मेरोज़गार परवान चढ़ा हुआ है.. बीबी के ही भरोसे दालरोटी खाने लगूँगा तो स्टीरियोटिपिक्ल मेल की ईगो बड़ी गहरी डैन्ट हो जाएगी.. अभी भी कुछ प्रोजेक्ट्स निबटाने शेष हैं.. फिर फ़ुर्सत से लौटूँगा ब्लॉगिंग की दुनिया में..

मेरे एक लेखकीय गुरु रहे हैं मुम्बई में - सुजीत सेन.. उन्होने अर्थ और सारांश जैसी फ़िल्में लिखी थीं.. बाद में बहुत कुछ बाज़ारू भी लिखा... पर जो भी लिखा क़लम को दिल के क़रीब रखकर लिखा.. सब बनाने वाले तो महेश भट्ट नहीं होते न.. जो मर्म की बात का मर्म समझ सकें.. उनका ज़िक्र वी एस नईपाल ने भी अपनी किताब इन्डिया अ मिलियन म्यूटिनीज़ में भी एक छद्म नाम से किया है*.. सुजीत दा की एक बात हमारी फ़िल्म और टीवी इन्डस्ट्री के बारे में बड़ी सटीक थी.. वे कहते थे.. इन दिस इन्डस्ट्री.. इट्स आइदर फ़ैमीन ओर फ़ीस्ट.. नथिंग इन बिटवीन..

यही सूरतेहाल है.. बस यहाँ फ़ीस्ट और फ़ैमीन का अर्थ समय के सन्दर्भ में समझा जाय.. और फ़ीस्ट का अर्थ काम की बहुतायत निकाला जाय या रचनात्मक आराम की बहुतायत.. यह निर्णय आप खुद करें..




*ढाई बरस पहले पाँच दिल के दौरे झेलने के बाद सुजीत दा चल बसे..
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