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शनिवार, 12 जनवरी 2008

बुड़ुम.. बुड़ुम.. बुड़ुम..

आज सुबह एक पोस्ट लिख कर वापस सोने चला गया। जब जागा तो बाहर के कमरे से कुछ आवाज़ आ रही थी। भली सी, सुखद, तसल्ली देने वाली आवाज़। एक पल के बाद याद आ गया कि यह आवाज़ एक कम्प्यूटर गेम से आ रही थी जो तनु खेल रही थी। आम तौर पर वीडियो गेम्स, कम्प्यूटर गेम्स से धाँय धूम, धाड़ भाड़, शाँय शूँ, भीं‍ऽऽऽ ईंऽऽऽऽ तरह की आवाज़े आती हैं पर इस गेम से टुड़ुम-टुड़ुम-टुड़ुम, बुड़ुम-बुड़ुम, टुपुक, छपाक जैसी आवाज़े आ रही थीं। थोड़ी देर इन्हे सुनते रहने के बाद समझ आया कि ये सारी आवाज़े बूँद के जलराशि में मिलने की आवाज़े हैं।

और फिर इस ख्याल के साथ एक गूढ़ बात में उलझ गया। पुराना मुहावरा है बूँद के सागर में मिलने का- आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध को परिभाषित करता। और ख्याल आया अपनी मृत्यु और मृत्यु जनित अपने भय का.. अपने अस्तित्व के विखण्डन का। कोई अनोखा भय नहीं है मेरा। सभी डरते हैं मरने से। क्या यह जानकारी इस भय को भगाने के लिए काफ़ी नहीं कि मर कर हम बूँद के बदले सागर का अस्तित्व ग्रहण करेंगे? शायद नहीं.. या बिलकुल नहीं.. अगर काफ़ी होती तो हम डरते ही क्यों?

क्या हम डरते हैं क्योंकि हम अज्ञान के अँधेरे में हैं या हम डरते हैं क्योंकि हमें पता है कि सचमुच विखण्डन हो ही जाएगा? भारतीय अध्यात्म कहता है कि हमारा डर सिर्फ़ अज्ञान से उपज रहा है और विज्ञान मानता है कि सचमुच विखण्डन होना ही नियति है।

हिन्दू लोग अपनी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार इसीलिए मृत्यु के हर अवसर पर मोह-शोक—दुःख से ग्रस्त होने पर गीता-पाठ करते हैं कि आत्मा तो अजर-अमर है कपड़े बदलती है आदि आदि। पर वही लोग जो गीता-पाठ करते-कराते हैं गरुड़ पुराण का प्रेतकल्प पढ़ने और उसके अनुष्ठानों को करने की सलाह भी देते हैं। उस प्रेतकल्प के अनुसार शरीर को जला देने के बाद जो बचता है वह आत्मा नहीं अँगूठे के आकार का प्रेत है। कहीं और पढ़ेंगे तो आप को कुछ और मान्यता मिल जाएगी।

अध्यात्म के भीतर आत्मा सम्बन्धी विचार कोई एक नहीं है कि सीधे सीधे कपड़ने बदलने जैसी बात हो। मामला ज़रा जटिल है और आप उसमें जितना बूड़ियेगा उसका रंग उज्जवल होने के बजाय श्याम की ओर गहराता जाएगा। फिर भी यह मान्यता ठोस रूप में बनी रहती है कि आप चाहे, न चाहें, मानें, न मानें, मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व!

गीता कहती है निष्काम कर्म करो! और बुद्ध कहते हैं कि कर्म बन्धन से कूद कर अलग हो जाओ और शरीर के भीतर चेतना की ऐसी अलख जगाओ कि पोर-पोर को जान लो..
विज्ञान ऐसा नहीं मानता। विज्ञान कहता है कि सबसे जटिल भौतिक संरचना और सबसे उन्नत चेतना वाला प्राणी मनुष्य है.. पर साथ ही मानता है कि शरीर के साथ ही चेतना का भी विखण्डन हो जाता है- मृत्यु के बाद चेतना (आत्मा) के स्वतंत्र अस्तित्व जैसी धारणा अतार्किक है। ग़ौरतलब है कि विज्ञान चेतना के अस्तित्व को नहीं नकारता.. सिर्फ़ उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारता है।

तो फिर चेतना क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं है पर हाँ वह इसे भौतिक पदार्थ के जटिल सरंचना का साइड इफ़ेक्ट सा मानता है। आत्मा की अनादि अनन्त स्वभाव पर अध्यात्म का ज़ोर है और पदार्थ की अखण्डता, शाश्वतता को विज्ञान मानता है.. कहीं ये एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं? पर किस तरह.. ?

अब वापस लौटते हैं मूल बूँद और सागर की बात पर.. यदि वैज्ञानिक मान्यता से इस बात को देखें तो ठीक और तार्किक मालूम होती है। सिवाय एक पहलू के कि व्यष्टि के समष्टि में विलीन होने पर चेतना के स्तर पर कुछ भी घटित नहीं होगा क्योंकि शरीर की जटिल सरंचना का विखण्डन होते ही चेतना नष्ट हो जाएगी।

यदि आध्यात्मिक मान्यता से भी चला जाय तो बूँद सागर में मिल भी गई तो भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है प्रेत के रूप में जो कर्म-बन्धन के चलते बार-बार जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते रहने के लिए बाध्य है। मगर प्रेत के रूप में और बारम्बार शरीर के रूप में उसे अनन्त दुःखों का भागी-भोगी होना ही पड़ता है। इसीलिए बुद्ध ने इस दुःख से निवृत्ति का मार्ग बताया.. जो गीता के मार्ग से सैद्धान्तिक रूप से अलग नहीं है। गीता कहती है निष्काम कर्म करो! और बुद्ध कहते हैं कि कर्म बन्धन से कूद कर अलग हो जाओ और शरीर के भीतर चेतना की ऐसी अलख जगाओ कि पोर-पोर को जान लो।

शरीर के भीतर चेतना की यह अलख वाली बात ध्यान देने योग्य है। बुद्ध अपने साधकों को वैचारिक मारा-मारी से दूर रहकर विपश्यना करने की सलाह देते हैं। वि-पश्य-ना.. वि माने विशेष और पश्य माने देखना। विपश्यना माने शरीर को खास तरह से देखना। ऐसे कि शरीर के एक-एक अणु को आप स्वतंत्र अस्तित्व के बतौर पहचान सकें, जान सकें और देख सकें।

क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ?या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्न्त स्वभाव चित को प्राप्त हो जाता है ..?
जब कोई ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं तो इसे बोध हो जाना कहते हैं या दूसरे शब्दों में पूरी तरह से चेतन हो जाना। इस अवस्था को प्राप्त हुआ व्यक्ति फिर जन्म नहीं लेता वह महाबोधि को, कैवल्य को, मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। मतलब कि फिर बूँद का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। बूँद सागर में मिलने से घबराती नहीं क्योंकि कुछ खोता नहीं बहुत कुछ, सब कुछ मिल जाता है।

अगर इस आध्यात्मिक परिघटना को विज्ञान से समझने की कोशिश करें तो शायद यह कहना अनुचित न होगा कि चेतना का जो साइड इफ़ेक्ट, जो चेतन व्यवहार, पदार्थ का जो आधिभौतिक पहलू, पदार्थ की जटिल संरचना के चलते पदार्थ के भीतर फ़ौरी तौर पर पाया गया था वो साइड इफ़ेक्ट जटिलता के नष्ट होने पर भी पदार्थ के सरल स्वरूप में भी पदार्थ संचित कर ले जाता है। और एक महाचेतना का अंग बन जाता है। कैसे?

क्या माया के परदे से बाहर निकल अँधेरे को हटा कर पदार्थ सीख जाता है, जान जाता है.. क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ? या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्नत स्वभाव- चित को प्राप्त हो जाता है ? और अगर ऐसी कोई परिघटना अगर सचमुच सम्भव है तो क्या इसीलिए बड़े-बूढ़े बार-बार चेताते हैं कि मनुष्य योनि बार-बार नहीं मिलती इसका सदुपयोग कर लो..? .. ह्म्म ! कुछ कहानी बनती है क्या?

गुरुवार, 29 नवंबर 2007

गूगल का स्काई

विन्डोज़ ९८ के दिनों से ही मैं ऐसे कई सॉफ़्टवेयर अपने कॅम्प्यूटर पर इन्स्टॉल करता रहा हूँ जो आकाश के अन्तहीन प्रसार में कोई खिड़की खोलते हों.. इस श्रंखला में आखिरी सॉफ़्टवेयर था स्टेलैरियम.. पर अब से इन सब की शायद कोई ज़रूरत नहीं पड़ेगी.. गूगल अर्थ ने एक नया फ़ीचर प्रस्तुत किया है स्काई.. जो दूरबीन को पृथ्वी से हटा कर आकाश की ओर पलट देता है... और फिर आप देख सकते हैं अपने सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहो के अलावा अनन्त आकाश में मौजूद अनोखे ब्रह्माण्ड.. विस्मय और अद्भुत के संसार में विचरते रहिये जी भर के..

यहाँ देखिये इस फ़ीचर के बारे में गूगल की एक परिचयात्मक फ़िल्म..


शुक्रवार, 2 नवंबर 2007

शनिश्चर के स्वर

कई बरस पहले जोडी फ़ोस्टर की एक फ़िल्म आई थी मशहूर साई-फ़ाई लेखक कार्ल सागान की किताब पर आधारित- कॉन्टैक्ट। फ़िल्म में जोडी दूरस्थ तारों-ग्रहों से आती आवाज़ों का अध्ययन करती हैं। आज सचमुच वैसा ही कुछ हो रहा है- शनि और उसके उपग्रहों से आते स्वर को सुनना चाहेंगे आप? अगर हाँ तो क्लिक कीजिये नासा द्वारा उपलब्ध कराए गए इस सनसनीखेज़ लिंक पर।


अन्धविश्वासी कमज़ोर हृदय वाले बन्धु जो शनि का नाम सुनते ही काँपने लगते हैं, को मेरी सलाह नहा लेने की होगी दिन भर के मौन व्रत के बाद.. :)

गुरुवार, 1 नवंबर 2007

आपका अगला जन्म

कहते हैं कि इंसान सबसे अधिक प्यार अपनी औलाद को करता है। माँ के बच्चों के प्रति प्रेम/ समर्पण को कितना महिमामण्डित किया गया है। पिता के बारे में भी कहा जाता है कि वह प्रदर्शित नहीं करता मगर जो कुछ करता है औलाद के लिए ही। काफ़ी हद तक सच भी है यह बात। हम मनुष्य ही नहीं प्रकृति का एक-एक अवयव, सभी जीवित पदार्थ स्वयं का पुनरुत्पादन कर रहे हैं। बैक्टीरिया से लेकर पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी अपने सीमित जीवन काल को अनन्त काल तक खींचने के लिए अपने ही जैसी संरचना को अपने भीतर से जन्म देकर अपने से स्वतंत्र कर देते हैं। और अपनी मृत्यु के बाद भी एक दूसरे स्वरूप में जीवित रहते हैं।

यदि जीवन जीना किसी भी प्राणी की सबसे बड़ी प्रवृत्ति है तो उसका पुनरुत्पादन भी उसी वृत्ति का ही एक पक्ष है। ये एक दूसरी बात है कि मनुष्य ने अपने विकास क्रम में उसी यौन-वृत्ति को अपराध भावना और ग्लानि से जोड़ दिया है जो जीवन की इस निरन्तरता का आधार है। इस अपराध-बोध में धर्म की भूमिका केन्द्रीय रही है। पर मैं यहाँ कुछ और ही बात करना चाह रहा हूँ.. कि ऊपर दिये हुए तर्क के बाद यह कहना अनुचित न होगा कि इंसान अपनी औलाद के ज़रिये अपने जीवन को जारी रखता है। दूसरे शब्दों में किसी के बच्चे ही उसका अगला जन्म हैं।

आप को मेरी बात अनोखी ज़रूर लग सकती है। मगर मैं अपनी बात के लिए शास्त्रों का भी साक्ष्य देना चाहूँगा। ज्योतिष का साक्ष्य- किसी भी व्यक्ति की कुण्डली में पाँचवा स्थान उसकी सन्तान का स्थान होता है और वही अगले जन्म का भी। नवाँ स्थान माता-पिता गुरुजनों का स्थान होता है और वही पूर्वजन्म का भी।

ठीक है चलिये ये मान लिया गया कि हम अपने औलाद के ज़रिये और और जीते ही जाते हैं। वैज्ञानिक शब्दावलि में कहें तो अपने डी एन ए कोड को सफ़र में रखते हैं, भले ही संवर्धित करते हुए। एक रिले रेस के धावक की तरह- पीछे से बेटन लेकर बस आगे तक दे देते हैं। अपने जीवन काल में हम जो जीवन के बारे में अच्छा-बुरा सीखते हैं वह उस ब्लूप्रिन्ट में कोडीफ़ाई कर देते हैं।

.. क्या सचमुच? क्योंकि अगर ऐसा होता तो माता/पिता के जीवन के सारे अनुभव/ज्ञान सब बेटे/ बेटी को स्वतः पता चल जाते। मगर ऐसा होता नहीं। तो या तो ये पूरी प्रस्थापना ही गलत है या स्मृति/ज्ञान इतना महत्वहीन कि इसे कोडीफ़ाई करने की कोई ज़रूरत नहीं समझता हमारा शरीर/ प्रकृति/ ईश्वर। आप का क्या ख्याल है?

मंगलवार, 30 अक्टूबर 2007

बैक्टीरिया अच्छे हैं!

हार्वर्ड पत्रिका में एक दिलचस्प लेख छपा है। लिखते हैं कि बहुत पहले वैज्ञानिकों ने पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवों को जीन सम्बन्ध के आधार पर एक जीवन वृक्ष के रूप में प्रदर्शित किया था जिसमें जिसका चित्र कुछ यूँ था..

मगर हाल की कुछ खोजों से पता चला है कि पुराने लोग इस पूरे जीवन को टेलेस्कोप के गलत सिरे से देख रहे थे.. सच्चाई कुछ यूँ दिखती है..

वनस्पति, जन्तु और फ़न्गी जगत इस विशाल वृक्ष के अत्यन्त मामूली अंग है..जिसके मुख्य अंग का निर्माण करते हैं:
१)बैक्टीरिया यानी एककोशीय वे सभी जीव जिनके भीतर कोई नाभिक नहीं होता।
२)आर्किया या आर्किबैक्टीरिया यानी वे जीव जो अपने सरल रूप में बैक्टीरिया जैसे ही होते हैं पर उनकी कोशीय संरचना काफ़ी अलग होती है। और
३)यूकेरया यानी शेष सभी जीव जिनके कोश में नाभिक मौजूद होता है। इस श्रेणी में पशु, पक्षी पौधे सभी आयेंगे।

पुरानी समझ के चित्र में मोनेरा के अन्तर्गत बैक्टीरिया और आर्किया को रखा गया है और प्रोटिस्टा के अन्तर्गत बची हुई सारी नाभिकीय संरचनाएं। हम अपनी पृथ्वी में किस कदर अल्पमत में हैं, इसका एहसास इस नई खोज से हो रहा है।

अगर आप के मन इन जीवों को लेकर कोई विकार हो तो दूर कर लें। आप सोचते हों कि बैक्टीरिया मतलब बीमारी। तो समझें कि हम भी इन्ही के जैसे ही एक जीव हैं बस हमारी कोशिकाओं में एक नाभिक है और हमनें पौधों और अन्य पशुओं की तरह या उनके साथ एक लम्बी विकास की प्रक्रिया में एक जटिल संगठन बना लिया है.. अपनी ही विघटित कोशिकाओं का संगठन। आज भी मनुष्य का जीवन एक कोशिका से ही शुरु होता है, जो माँ के गर्भ में विघटित हो-हो कर एक जटिल संरचना के रूप में विकसित हो जाता है जिसे हम मनुष्य मानते हैं। और इस जटिल संरचना का ब्लू प्रिंट ही हमारा डी एन ए कहलाता है। और जहाँ तक डी एन ए का प्रश्न है तो एक आलू और मनुष्य ज़्यादा करीब के रिश्तेदार हैं बजाय कि दो बैक्टीरिया के। कल्पना कीजिये इस जगत की विविधता को।

हमारा जीवन इस अदृश्य माइक्रोबायल जगत से बुरी तरह प्रभावित है। वे बादल बनाते हैं, चट्टानों को तोड़ते हैं, खनिज जमाते हैं, पौधों को खाद देते हैं, मिट्टी को तैयार करते हैं, विषैले अवशिष्ट को साफ़ करते हैं। मनुष्य के शरीर में लगभग १० ट्रिलियन कोशिकाएं हैं, मगर १०० ट्रिलियन माइक्रोब्स हैं। जो हमारे लिए खाना पचाते हैं, विटैमिन्स बनाते हैं, और हमें इन्फ़ेक्शन से बचाते हैं। हाँलाकि कुछ माइक्रोब्स हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरनाक भी हैं। लेकिन अगर हमें इन माइक्रोब्स से वंचित कर दिया जाय तो हम बुरी तरह बीमार पड़ जायेंगे। अभी भी इनकी पूरी भूमिका को जाना जाना है।

पूरा लेख पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।
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