
क्या हम डरते हैं क्योंकि हम अज्ञान के अँधेरे में हैं या हम डरते हैं क्योंकि हमें पता है कि सचमुच विखण्डन हो ही जाएगा? भारतीय अध्यात्म कहता है कि हमारा डर सिर्फ़ अज्ञान से उपज रहा है और विज्ञान मानता है कि सचमुच विखण्डन होना ही नियति है।
हिन्दू लोग अपनी आध्यात्मिक मान्यता के अनुसार इसीलिए मृत्यु के हर अवसर पर मोह-शोक—दुःख से ग्रस्त होने पर गीता-पाठ करते हैं कि आत्मा तो अजर-अमर है कपड़े बदलती है आदि आदि। पर वही लोग जो गीता-पाठ करते-कराते हैं गरुड़ पुराण का प्रेतकल्प पढ़ने और उसके अनुष्ठानों को करने की सलाह भी देते हैं। उस प्रेतकल्प के अनुसार शरीर को जला देने के बाद जो बचता है वह आत्मा नहीं अँगूठे के आकार का प्रेत है। कहीं और पढ़ेंगे तो आप को कुछ और मान्यता मिल जाएगी।
अध्यात्म के भीतर आत्मा सम्बन्धी विचार कोई एक नहीं है कि सीधे सीधे कपड़ने बदलने जैसी बात हो। मामला ज़रा जटिल है और आप उसमें जितना बूड़ियेगा उसका रंग उज्जवल होने के बजाय श्याम की ओर गहराता जाएगा। फिर भी यह मान्यता ठोस रूप में बनी रहती है कि आप चाहे, न चाहें, मानें, न मानें, मृत्यु के बाद आत्मा का अस्तित्व बना रहता है। शरीर से स्वतंत्र अस्तित्व!
गीता कहती है निष्काम कर्म करो! और बुद्ध कहते हैं कि कर्म बन्धन से कूद कर अलग हो जाओ और शरीर के भीतर चेतना की ऐसी अलख जगाओ कि पोर-पोर को जान लो..
विज्ञान ऐसा नहीं मानता। विज्ञान कहता है कि सबसे जटिल भौतिक संरचना और सबसे उन्नत चेतना वाला प्राणी मनुष्य है.. पर साथ ही मानता है कि शरीर के साथ ही चेतना का भी विखण्डन हो जाता है- मृत्यु के बाद चेतना (आत्मा) के स्वतंत्र अस्तित्व जैसी धारणा अतार्किक है। ग़ौरतलब है कि विज्ञान चेतना के अस्तित्व को नहीं नकारता.. सिर्फ़ उसके स्वतंत्र अस्तित्व को नकारता है।तो फिर चेतना क्या है? विज्ञान के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं है पर हाँ वह इसे भौतिक पदार्थ के जटिल सरंचना का साइड इफ़ेक्ट सा मानता है। आत्मा की अनादि अनन्त स्वभाव पर अध्यात्म का ज़ोर है और पदार्थ की अखण्डता, शाश्वतता को विज्ञान मानता है.. कहीं ये एक ही सिक्के के दो पहलू तो नहीं? पर किस तरह.. ?
अब वापस लौटते हैं मूल बूँद और सागर की बात पर.. यदि वैज्ञानिक मान्यता से इस बात को देखें तो ठीक और तार्किक मालूम होती है। सिवाय एक पहलू के कि व्यष्टि के समष्टि में विलीन होने पर चेतना के स्तर पर कुछ भी घटित नहीं होगा क्योंकि शरीर की जटिल सरंचना का विखण्डन होते ही चेतना नष्ट हो जाएगी।

शरीर के भीतर चेतना की यह अलख वाली बात ध्यान देने योग्य है। बुद्ध अपने साधकों को वैचारिक मारा-मारी से दूर रहकर विपश्यना करने की सलाह देते हैं। वि-पश्य-ना.. वि माने विशेष और पश्य माने देखना। विपश्यना माने शरीर को खास तरह से देखना। ऐसे कि शरीर के एक-एक अणु को आप स्वतंत्र अस्तित्व के बतौर पहचान सकें, जान सकें और देख सकें।
क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ?या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्न्त स्वभाव चित को प्राप्त हो जाता है ..?
जब कोई ऐसी अवस्था में पहुँच जाते हैं तो इसे बोध हो जाना कहते हैं या दूसरे शब्दों में पूरी तरह से चेतन हो जाना। इस अवस्था को प्राप्त हुआ व्यक्ति फिर जन्म नहीं लेता वह महाबोधि को, कैवल्य को, मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। मतलब कि फिर बूँद का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं रहता। बूँद सागर में मिलने से घबराती नहीं क्योंकि कुछ खोता नहीं बहुत कुछ, सब कुछ मिल जाता है।अगर इस आध्यात्मिक परिघटना को विज्ञान से समझने की कोशिश करें तो शायद यह कहना अनुचित न होगा कि चेतना का जो साइड इफ़ेक्ट, जो चेतन व्यवहार, पदार्थ का जो आधिभौतिक पहलू, पदार्थ की जटिल संरचना के चलते पदार्थ के भीतर फ़ौरी तौर पर पाया गया था वो साइड इफ़ेक्ट जटिलता के नष्ट होने पर भी पदार्थ के सरल स्वरूप में भी पदार्थ संचित कर ले जाता है। और एक महाचेतना का अंग बन जाता है। कैसे?
क्या माया के परदे से बाहर निकल अँधेरे को हटा कर पदार्थ सीख जाता है, जान जाता है.. क्या उसे बोध हो जाता है कि उसका मूल स्वभाव चित है ? या फिर अपने मूल स्वभाव अज्ञान को त्याग एक नए उन्नत स्वभाव- चित को प्राप्त हो जाता है ? और अगर ऐसी कोई परिघटना अगर सचमुच सम्भव है तो क्या इसीलिए बड़े-बूढ़े बार-बार चेताते हैं कि मनुष्य योनि बार-बार नहीं मिलती इसका सदुपयोग कर लो..? .. ह्म्म ! कुछ कहानी बनती है क्या?