
मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। बाद में मेरे मित्रों ने फ़ेसबुक और ब्लौग्स पर इस घटना को दक्षिणपंथी गुण्डों द्वारा किए हमले की संज्ञा देते हुए इस लोकतंत्र पर हमला, फ़ासीवाद, और न जाने क्या-क्या बताया। फिर अरुंधती की चिठ्ठी देखी जिसमें उन्होने भी घर का गेट तोड़कर तोड़फोड़ की बात कही, हालांकि उन्होने ख़ुद स्वीकारा कि वे उस वक़्त घर पर नहीं थी। अभी देखता हूँ कि अरुंधती ने न्यूयौर्क टाइम्स में एक लेख में इस घटना का उल्लेख किया है और उन्होने वहाँ इसे हमले की नहीं, एक प्रदर्शन की संज्ञा दी है।
भाजपा का एक दंगाई इतिहास है (है तो वैसे कांग्रेस का भी, और तमाम दूसरी पार्टियों का भी) और जिसके लिए मैं उनका कड़ा विरोधी भी हूँ। लेकिन उनके विरोधी होने भर से मैं उनकी अभिव्यक्ति का भी विरोध करना उचित नहीं समझता। अगर हम अरुंधती और दूसरे वामपंथियों की अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए उत्सुक होते हैं तो अपने विरोधियों की अभिव्यक्ति को सहन करने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिये। न कि उनके बोलने के पहले ही –इसने मुझे गाली दी, मुझे मारा- का आरोप लगाने चाहिये। जैसा कि इस मामले में हुआ।
संयोग से चाणक्यपुरी स्थित अरुंधती के पति प्रदीप क्रिशन के घर पर भाजपा के महिला मोर्चे द्वारा इस प्रदर्शन के इस तथाकथित हमले से आभासी जगत पर मची हलचल से पहले मैंने इसकी रपट टीवी पर देखी थी। मैंने देखा कि तक़रीबन सौ औरतें एक बड़े से घर के बड़े से गेट के आगे नारे लगा रही हैं। उनमें से एक औरत एक गमले को उठाकर उसे पटकने का उपक्रम करती है, एक दूसरी औरत उसे रोकती है, पहली उस गमले को वापस जा कर रख देती है। फिर भी कुछ गमले ज़रूर टूटे लेकिन न तो उन्होने किसी पर हमला किया न कोई मारपीट। यहाँ पर दिये वीडियो से साफ़ पता चलता है कि विरोध करने वाली महिलाएं दक्षिणपंथी विचारधारा की ज़रूर थीं मगर हूलिगन या गुण्डी नहीं थीं। उनका विरोध भी टीवी कैमरों के लाभार्थ अधिक है, ऐसा भी साफ़ दिख रहा है।
लेकिन मेरे वामपंथी उदारवादी मित्रों ने इस दक्षिणपंथी गुण्डों का हमला बताया? उनसे ये चूक कैसे हुई? क्या वे वास्तविकता का सही आकलन करने में असमर्थ हैं? ये कैसी असमर्थता है जिसमें पत्थर फेंकने वाली भीड़ अहिंसक कहलाती है और नारे लगाकर प्रदर्शन करने वाली भीड़ हमलावर?
या वे जानबूझ कर अपने पक्ष को मज़बूत करने के लिए अपने विरोधियों की हर हरकत को एक आपराधिक रंगत देने की नीति में यक़ीन रखते हैं? क्या यही मानसिकता दो विरोधी पक्षों के बीच साम्प्रदायिक दंगे जैसी तनाव की स्थिति में भारी जानमाल की क्षति का कारण नहीं बनती है? साम्प्रदायिकता का प्राणपन से विरोध करने वाले मेरे वामपंथी मित्र सच्चाई को अपनी सहूलियत के अनुसार मरोड़ने, और उस मरोड़ी हुई सच्चाई का ऊँचे स्वर से प्रचार करने की दंगाई मानसिकता से कैसे ग्रस्त हो रहे हैं, यह मेरे लिए गम्भीर चिंता का विषय है।