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शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

एक निर्मम राज्य के पक्ष में

बावजूद इसके कि लोकतांत्रिक राज्य अभी भी, मानवाधिकारों को अनदेखा कर के अपनी प्रजा का दमन करता है, और एक विशेष वर्ग के हित में समाज के दूसरे वर्गों के शोषण को प्रायोजित करता है, ऐतिहासिक तौर पर अब तक लोकतांत्रिक राज्य ही सबसे उदार और मानवतावादी सिद्ध हुआ है- और वो व्यवस्थाएं जो अपने को मनुष्य के विकास की आगे की अवस्थाएं मानती थीं, कहीं अधिक क्रूर और दमनकारी सिद्ध हुईं जैसे समाजवाद और साम्यवाद।

देश में चल रहे आन्दोलनों, विशेषकर कश्मीर के हुर्रियत आन्दोलन और आदिवासियों के बीच जंगल के अधिकार को लेकर माओवादियों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन, के सन्दर्भ में हमें ये समझने की ज़रूरत है कि राज्य कोई व्यक्ति नहीं है कि जिसकी पकड़ संवेदना के नदी के प्रवाह में बह कर अचानक ढीली पड़ जाएगी और वो कश्मीरियों को उनकी आज़ादी ले लेने देगा और आदिवासियों को उनके जंगल। राज्य हज़ारों साल के मनुष्य के इतिहास में विकसित एक जटिल सरंचना है जो अपने अस्तित्व को विलीन नहीं होने दे सकती न अपनी विघटन को सहन कर सकती है। ऐसे ही नहीं टूट गई बर्लिन वाल; उसके टूटने की पूर्वशर्त थी एक राज्य का विघटन, जैसा कि हुआ। और ये बात बेहद बचकानी है कि कोई किसी राज्य से यह उम्मीद करे कि वो अपने क़ब्ज़े की ज़मीन छोड़ दे?

ये एक अजीब विरोधाभास है : हमारे भारत के उदारवादी भद्रजन सबसे प्रगतिशील लोग, सबसे पिछड़े जन के साथ मोर्चाबद्ध हैं। मात्र विरोध दर्ज करने के लिए? या वे सच में विश्वास करते हैं कि भविष्य का समाज यही लोग गढ़ेंगे? मैं समझ नहीं पाता कि कश्मीर में कट्टर जमाते इस्लामी के नेता सैयद अली शाह गिलानी जैसे शख्स के हाथ में यदि सत्ता आएगी तो वह किस तरह के लोकतंत्र का निर्माण करेगा? चलिए उन्हे छोड़ दें और मान लीजिये कि हुर्रियत के दूसरे धड़े मीरवाइज़ (यानी इस्लाम के उपदेशक) उमर फ़ारुख ही अगर अगुआ हुए तो?

मीर वाइज़ पेशे से एक मौलवी हैं एक ऐतिहासिक मस्जिद के मुल्ला - कुछ ऐसे समझें कि जैसे कि अपने जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी साहब। जो लोग भूल गए हों वे कृपया याद कर लें कि शाही इमाम साहब ने हमारी अपनी उदार मानवतावादी नायिका शबाना आज़मी के बारे में क्या उद्गार प्रगट किए थे एन डी टी वी के एक कार्यक्रम पर। हो सकता है कि व्यक्तिगत रूप से मीरवाइज़ बेहद उदार और भले हों पर जिस विचारधारा के वे प्रवक्ता हैं वो बेहद दमनकारी है।

मेरा मानना है कि कहीं न कहीं औद्योगिक विकास एक ऐसी छंछूदर बन चुका है जिसे अब सिर्फ़ निगला जा सकता है, उगला नहीं। साम्राज्यवादी शक्तियों और उनके ऐतिहासिक अन्याय से लड़ने की एक अन्य मिसाल ज़िम्बाब्वे में राबर्ट मुगाबे भी हैं –जिन्होने सौ-डेढ़ सौ साल पहले गोरों द्वारा की हुई ज़मीन की लूट का इंसाफ़ तो कर दिया मगर देश, समाज और अर्थव्यवस्था का कबाड़ा कर दिया। ज़िम्बाब्वे अब शायद एक महामारी बन चुका है।

स्वयं अपने गांधी जी भी एक रामराज्य का सपना देखते थे। उनका मानना था इस समाज की सबसे बड़ी बुराइयों में वक़ील और डॉक्टर हैं। वक़ीलों और डॉक्टरों दोनों के व्यवहार से मैं भी बहुत क्षुब्ध रहता हूँ, मगर गांधी जी के रामराज्य में दलितों की जगह को लेकर अम्बेडकर को क्या आपत्ति थी इसे नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। उनके ग्रामीण समाज में जातीय रिश्ते सिर्फ़ सवर्णों की सहृदयता के बंधुआ होते। क्या वो हमें, उदार मानवतावादियों को स्वीकार्य है?

अगर मुझ से पूछा जाय कि मुझ किन आदर्शों में विश्वास है तो शायद मैं एक अराजकतावादी सिद्ध हो जाऊँ। जहाँ न राज्य है, न पुलिस, न क़ानून, आदमी प्रकृति के साथ एकाकार है और ‘जीवनयापन के लिए काम करना’ मानवता का अपमान है। पर क्या मैं आज के समाज में इन आदर्शों के साथ जी सकता हूँ? यदि मैं भारत सरकार से माँग करूँ कि पुलिस और क़ानून का अन्त कीजिये और उसके बाद खुद भी विलोप हो जाइये और जेन्टलमैनली मनमोहन सिंह मेरी माँग मान कर सब कुछ समाप्त कर के अपने आसाम वाले घर में पलायित कर जाएं तो क्या मेरे आदर्शों का अराजक समाज क़ायम हो जाएगा? या पलक़ झपकते ही हरियाणवी गुण्डे/ बिहारी बाहुबली/इस्लामी आतंकवादी/हिन्दू हलकट अपने-अपने शक्ति-वृत्त बना लेंगे और समाज में व्यवहारिक अराजकता क़ायम हो जाएगी। दार्शनिक अराजकता और व्यवहारिक अराजकता में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है।

मुझे खेद है कि इस देश में आत्महत्या कर रहे ग़रीब किसानों और अपने ही ज़मीन से बेदखल किए जा रहे आदिवासियों, और क़ानून ताक़ पर रखकर सताए जा रहे नक्सलियों के प्रति अपनी सारी चिन्ताओं के बावजूद मैं माओवादियों की हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता। क्योंकि मुझे पूरा भरोसा है कि एक बार माओवादी लड़ाकू मानवता से द्रवित होकर अपने दुश्मन (आम सिपाही) को गोली मारने से हिचकिचा सकता है, लेकिन राज्य तंत्र की नमक-रोटी खाने वाला सिपाही ये रियायत माओवादी को नहीं बख्शेगा। मैं शायद उमर बढ़ने के साथ कुछ अधिक निराशावादी (या व्यवहारिक) हो गया हूँ और अपने उस क्रांतिकारी जोश को पूरी तरह हिरा चुका हूँ जो कि जवानी के दिनों में मुझे क्रोध और आक्रोश से भर दिया करता था- अब मुझे यक़ीन है कि माओवादियों और राज्य की इस लड़ाई में मारे आदिवासी ही जाएंगे या फिर निरीह सिपाही।

मैं नहीं जानता कि कारपोरेट पूँजीवाद और उसकी सहयोगी शक्तियों ने मिलकर ये जो भूमण्डलीकरण की महा संरचना/ महातंत्र खड़ा किया है, उसका विकल्प क्या हो सकता है? पर ये ज़रूर लगता है कि जो शक्तियाँ अभी अमरीकी नेतृत्व में इस पूँजीवादी लोकतंत्र का विरोध कर रहे हैं – इस्लामिक जड़वादी और माओवादी – वो इसका विकल्प नहीं हो सकते। ये दोनों प्रतिगामी शक्तियाँ हैं जो एक पुरातनता को बचाने की कोशिश की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस्लाम लड़ रहा है एक मध्ययुगीन नैतिकता को बचाने के लिए- उसका विकल्प है शरई क़ानून।

और माओवादी लड़ रहे हैं आदिवासियों के जंगल पर अधिकार के लिए, कम से कम नज़र तो ऐसा ही आता है और दावा भी वो ऐसा ही करते हैं, पर उनके इरादे कुछ और हैं। वे नव-लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं- माओ की एक अवधारणा न्यू डेमोक्रेसी के लिए – जो पूंजीवाद को सामन्तवाद और साम्राज्यवाद के चंगुल से आज़ाद करेगी। यह सोच माओ ने १९४० में चीन की हालात के अनुसार पेश की थी। वे पूँजीवाद (यानी उद्योग, कारखाने, खनन, बाज़ार; सब मिला कर जंगल के आदिम जीवन से पूर्ण विरोध) के विरोधी नहीं है मगर उनका मानना है कि अभी का शासक वर्ग पूँजीवाद का सही विकास करने में अक्षम है। यदि वे सत्ता में आए तो चीन की तरह खुद ही पूँजी का विकास करेंगे- चीन के मानवाधिकार हनन से कैसे बचेंगे, ये वे नहीं बताते।

पहले तो इस तरह की सोच एक नियतिवादी चिन्तन है: विकास की सारी अवस्थाएं और नमूने पहले से तय हैं अब मनुष्य को अंजाम देना है- मगर मनुष्य (उनकी समझ से) ऐसा मूढ़ है कि विकास की नमूने से भटक कर एक अलग ही रास्ता पकड़ लेता है; अपने नियन्ता के सच्चे अनुगामी होने के नाते माओवादी ये ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हैं कि नमूने की योजना को जस का तस लागू किया जाय।

दूसरे ये कि नियन्ता माओ के द्वारा पूज्य एक पूर्वगामी नियन्ता लेनिन ने इस विषय में एक विरोधी बात कह रखी है – “कोई मार्क्सवादी यह कभी नहीं भूल सकता कि पूँजीवाद, सामन्तवाद की तुलना में प्रगतिशील है, और साम्राज्यवाद इजारेदारी के पहले की पूँजीवादी अवस्था से प्रगतिशील है। इसलिए हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ़ हर संघर्ष का समर्थन नहीं करना चाहिये। साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों के संघर्ष का समर्थन हम नहीं कर सकते”।

लेनिन की समझ से माओवादी प्रतिक्रियावादी साबित होते हैं। (विकास के साथ उनके विरोधाभास पर यहाँ और पढ़ें) और क्रांतिकारी भी तभी तक क्रांतिकारी रहता है जब तक सत्ता की लड़ाई जारी है, सत्ता पलटते ही वह खुद प्रतिक्रियावादी हो जाने के लिए अभिशप्त है। नेहरू जी आज़ादी मिलने के पहले तक तो नौकरशाहों की सख्त खिलाफ़त किया करते थे, मगर सत्ता हाथ में आते ही उन्होने नौकरशाहों में ही अपना सबसे बड़ा मित्र पाया। और जो क्रांतिकारी प्रतिक्रियावादी नहीं होते वे कितने बड़े मानवतावादी होते हैं इसे स्टालिन के दौर में मारे गए और माओ की सतत क्रांति के प्रयोग सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मारे गए लाखों लोगों की मिसाल से समझना चाहिये।

निछन्दम जंगल का प्राकृतिक जीवन और शरई क़ानून की सीमाओं में रहकर एक पवित्र नैतिक जीवन दोनों ही काल्पनिक अवधारणाएं हैं और रूमानी दोष से ग्रस्त हैं। औद्योगिकीकरण और उसकी संस्कृति का पहाड़ एक ऐसा वस्तुगत सच है जिसे अनदेखा करना, शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर दबाना है। भविष्य का समाज इस पहाड़ के उस पार ही बन सकता है, इस पार नहीं।

औद्योगिक समाज ने हम से बहुत कुछ छीना है मगर जो हमें दिया है उसकी चर्चा करना हमारे क्रांतिकारी मित्र हमेशा भूल जाते हैं? भौतिकवाद मानता है कि मनुष्य का वस्तुजगत से एक गहरा तादात्म्य है, और वस्तुओं से भी। आज जिन-जिन वस्तुओं को हम अपने इर्द-गिर्द पाते हैं जिसने हमारा जीवन सुविधाजनक बनाया है, उन्हे हम तक लाने में पूँजीवादी बाज़ार ने जो क्रांतिकारी भूमिका निभाई है, उसे लगातार अनदेखा किया नहीं जा सकता। स्त्री अधिकार को एक मानसिक अवधारणा के जगत से निकालकर उसकी बराबरी के लिए एक वास्तविक दुनिया बनाने का काम पूँजीवाद ने ही किया है। ज्ञान को कुलीन कुटियाओं से निकालकर जनसाधारण तक पुस्तकाकार में पहुँचाने का काम क्या बाज़ार ने नहीं किया है? इन्टनेट जैसे सूचना के महामार्ग और लैपटॉप जैसे उपकरण को जनसुलभ करने का काम बाज़ार के बिना कैसे मुमकिन हो सकता था?

समस्या दुनिया भर में चल रहे बाज़ारीकरण के साथ आ रहे बदलाव से होने वाले संक्रमण की है। जैसे भारत की सरकार कृषि में आधुनिकीकरण तो चाहती है मगर ज़मीन पर हल जोत रहे किसान को आत्महत्या के पहाड़ी से नीचे धकेल कर। सरकारी तंत्र द्वारा अपने लोगों की प्रति इस संवेदनहीनता का विरोध करते हुए क्या हम उन सब के पक्ष में भी खड़े हो जाएंगे जो विरोध में हमारे साथ हैं? चूंकि वो बन्दूक लेकर अत्याचार के विरोध की लड़ाई लड़ रहे हैं क्या सिर्फ़ इसलिए उनके सपने के दुनिया खुदबखुद इस दुनिया से बेहतर हो जानी है?

उम्मीद बस यही की जा सकती है कि उनके इस आन्दोलन से आदिवासियों और नक्सली कार्यकर्ताओं के प्रति बरती जा रही निर्ममता में कमी आए और उनके साथ न्याय हो!
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