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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

कथा अनन्ता


रावण मारा जा चुका है। युद्ध समाप्त हो चुका है। सीता ने अग्नि परीक्षा देकर अपनी पवित्रता सिद्ध कर दी है। युद्ध में खेत रहे वानरों को इन्द्र ने फिर से जिला दिया है। राम अब जल्दी से अयोध्या लौट जाने के लिए उद्यत हैं। उनकी आतुरता देख विभीषण उन्हे पुष्पक विमान सौंप देते हैं। राम जी, राह में सीता जी के आग्रह पर किष्किंधानगरी से तारा आदि वानर पत्नियों को भी साथ ले लेते हैं। और सीता को उनकी यात्रा के विभिन्न पड़ावों का दर्शन कराते हुए श्रीराम भरद्वाज मुनि के आश्रम पर उनका आशीर्वाद लेने रुकते हैं और हनुमान को उनके आगमन की सूचना देने आगे भेज देते हैं। निषादराज गुह से मिलते हुए हनुमान आश्रमवासी कृशकाय भरत को राम की कुशलता का समाचार देते हैं। भरत जी हर्ष से मूर्च्छित हो जाते हैं और दो घड़ी बाद जब उन्हे होश आता है तो भाव विह्वल होकर हनुमान जी को बाहों में भरकर और आँसुओं से नहलाते हुए यह कहते हैं:
देवो वा मानुषो वा त्वमनुक्रोशादिहागतः
प्रियाख्यानस्य ते सौम्य ददामि ब्रुवतः प्रियम् || ४०||
गवां शतसहस्रं च ग्रामाणां च शतं परम् |
सकुण्डलाः शुभाचारा भार्याः कन्याश्च षोडश || ४१||
हेमवर्णाः सुनासोरूः शशिसौम्याननाः स्त्रियः |

सर्वाभरणसम्पन्ना सम्पन्नाः कुलजातिभिः || ४२||

ऊपर दिये गए श्लोकों का अर्थ है: "भैया, तुम कोई देवता हो या मनुष्य जो मुझ पर कृपा करके यहाँ पधारे हो। हे सौम्य, जितना प्रिय समाचार तुमने मुझे सुनाया है बदले में उतना प्रिय क्या तुम्हें दूँ? मैं तुम्हें एक लाख गायें, सौ उत्तम गाँव, और अच्छे कुण्डल पहनने वाली तथा शुभ आचार वाली सोलह कन्याएं पत्नी बनाने के लिए देता हूँ। सोने के रंग वाली, सुघड़ नाक वाली, मनोहर जंघाओं और चाँद जैसे मुखड़े वाली  उच्च कुल व जाति की वे कन्याएं सभी आभूषणों से भी सम्पन्न होंगी।"

जो लोग हनुमान के ब्रह्मचारी होने का दावा करते हैं या हनुमान के ब्रह्मचारी न होने के किसी भी उल्लेख पर भड़ककर लाल-पीले हो जाते हैं और वाल्मीकि रामायण को ही रामकथा का पहला और बीज स्रोत मानते हैं- तय बात है कि उन लोगों ने रामायण का यह अंश नहीं पढ़ा है और बिना पढ़े ही वे 'मूल' रामायण की मान्यताओं की रक्षा करने को उद्धत हो रहे हैं।

इसे पढ़ लेने के बाद भी कुछ स्वयंसिद्ध विद्वान यह कहने लगेंगे कि श्लोक में भरत के विवाह योग्य कन्याओं के देने भर का उल्लेख है पर हनुमान के स्वीकार करने की बात नहीं है!? पर उनको समझने की ज़रूरत है कि अगर स्वीकारने की बात नहीं है तो अस्वीकार करने की बात भी नहीं है। इन श्लोकों के बाद हनुमान जी प्रेम से भरत जी के साथ बैठकर राम की विजयगाथा की कथा कहने लगते हैं। अगर वे वाक़ई अविवाहित रहने वाले ब्रह्मचारी थे तो भरत भैया के आगे हाथ जोड़ लेते, पर उन्होने ऐसा कोई उपक्रम न किया। और हनुमान के ब्रह्मचर्य से वाल्मीकि जी की यही मुराद होती कि वे स्त्री तत्व से दूर रहेंगे तो वाल्मीकि महाराज भी वहीं पर सुनिश्चित कर देते कि इस मामले को लेकर कोई भ्रांति न पैदा होने पाये। 

मसला यह है कि अभी हाल में दिल्ली विवि के पाठ्यक्रम से ए के रामानुजन का लेख 'थ्री ह्ण्ड्रेड रामायनाज़ : फ़ाइव एक्ज़ाम्पल्स एण्ड थ्री थॉट्स ऑन ट्रान्सलेशन' इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसमें विभिन्न रामायणों की कथाओं के विविध पाठों का वर्णन हैं। और कुछ स्वघोषित संस्कृति के रक्षक (या राक्षस?) इस पर आपत्ति उठा रहे हैं। मुझे यह बात बेहद विचित्र मालूम देती है कि विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम तय करने में ऐसे अनपढ़ों की राय सुनी जा रही है जो न पढ़ते हैं और न पढ़ने देना चाहते हैं। और यह पहला मामला नहीं है जब ऐसा हुआ है इसके पहले मुम्बई विवि में भी ऐसी ही घटना हो चुकी है। आये दिन किसी किताब के किसी अंश को लेकर कोई न कोई बलवा करता रहता है। पर दिलचस्प बात यह है कि इनके बलवों का असर अक्सर उलटा होता है। भले ही मुम्बई विवि से रोहिन्टन मिस्त्री की किताब पाठ्यक्रम से हटा दी गई पर उनकी उठाई आपत्तियों से जनता में उस किताब में वापस दिलचस्पी पैदा हो गई। उसकी बिक्री में ज़बरदस्त उछाल आया। यही रामानुजन वाले मामले में भी हो रहा है। उनके लेख का अंश भले ही पाठ्यक्रम से निकाला गया हो पर इन्टरनेट पर उसे खोज निकाला गया है। और ख़ूब पढ़ा जा रहा है। इस इन्फ़र्मेशन ऎज में इस तरह की बकलोलियों का कोई अर्थ नहीं है। कुछ समय के लिए अपने पूर्वाग्रही समर्थकों के बीच सस्ती लोकप्रियता हासिल भले ही कर लें मगर किताबविरोधी और ज्ञानविरोधी इन कट्टरपंथियों का मक़सद आप विफल हो रहा है और होता रहेगा।

दुहाई रामकथा की दी जा रही है और हमारी परम्परा में रामकथा बेहद लोकप्रिय कहानी है और लगभग हर प्राचीन ग्रंथ में रामकथा का उल्लेख है। अकेले महाभारत में ही चार बार राम की कहानी सुनाई जाती है, जिनके भीतर भी छोटे-मोटे अन्तर मौजूद हैं। जब भी कोई कहानी बार-बार कही-सुनी जाएगी तो उसमें विविधिता आ जाना स्वाभाविक है। काल और देश का अन्तर जितना बढ़ता जाएगा, विविधिता की भी उसी अनुपात में बढ़ते जाने की सम्भावना बनती जाती है।

और विविधता के इसी पक्ष पर बल देता हुआ रामानुजन जी का यह तथाकथित विवादास्पद (सच तो यह है कि उनके लेख में सब कुछ तथ्य पर ही टिका हुआ है) लेख का आधार हिन्दी भाषा के विद्वान कामिल बुल्के का बहुमूल्य शोधग्रंथ 'रामकथा'ही है। रामानुजन अपने लेख की शुरुआत में उसका उल्लेख भी करते हैं। बुल्के जी अपने शोध में महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों में वर्णित रामकथाओं के अलावा मगोलिया, तिब्बत, ख़ोतान और इण्डोनेशिया तक प्रचलित विविध रामकथाओं और उनकी विभिन्न पाठों का भी तुलनात्मक अध्ययन करते हैं। मिसाल के लिए तमाम रामकथाओं में कहीं फल से, कईं फूल से, कहीं अग्नि से, कहीं भूमि से जन्म लेने वाली सीता को महाभागवतपुराण, उत्तरपुराण और काश्मीरी रामायण में रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, तो दशरथ जातक में दशरथ की पुत्री कहा गया है। पउमचरियं में (आम तौर पर अविवाहित समझे जाने वाले) हनुमान की एक हज़ार पत्नियों में से एक पत्नी सुग्रीव के परिवार की है और दूसरी पत्नी रावण के परिवार की। मलय द्वीप में प्रचलित 'हिकायत सेरी राम' में तो हनुमान राम और सीता के पुत्र हैं- और यही नहीं 'हिकायत सेरी राम' के प्रचलित दो पाठों में उनके इस पुत्र होने की दो अलग ही कहानियाँ है। इसी तरह के और भी विचित्र भेद पढ़ने वालों को मिल जाएंगे।

हम जिस रामायण को जानते हैं, उसकी कहानी वाल्मीकि की बनाई हुई नहीं है। उनके बहुत पहले से लोग रामकथा कहते-सुनते रहे थे। पूरी पृथ्वी पर भ्रमण करने वाले नारद ने उनको रामकथा सुनाई थी; जैसे बुद्ध ने अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त कहते हुए अपने शिष्यों को रामकथा सुनाई थी जो ई०पू० तीसरी शताब्दी से दशरथ जातक में सुरक्षित मिलती है; और जैसे बहुत काल बाद तुलसीदास को उनके गुरु ने सोरोंक्षेत्र में रामकथा सुनाई थी। ध्यान देने की बात यह है कि किसी ने भी रामकथा को पढ़ा नहीं है, सुना-सुनाया है। वाल्मीकि रामायण और रामचरितमानस का जो अन्तर है वो इसलिए भी है कि तुलसी स्पष्ट कह रहे हैं कि उनकी कथा, रामायण पर आधारित है ही नहीं- वो तो गुरुमुख से सुनी कहानी पर आधारित है। और बहुत विद्वान ऐसे है जो वाल्मीकि की रामायण को नहीं बल्कि दशरथ जातक को उस कहानी को मूल रामकथा मानते हैं जिसमें न तो रावण है और न लंका, और जिसमें सीता और राम भाई-बहन होकर भी शादी करते हैं। निश्चित तौर पर कथा का यह रूप इसके एक ऐसे प्राचीन काल के होने का संकेत देता है जब राजपरिवारों की सन्तानें रक्तशुद्धि के विचार से आपस में ही विवाह कर लेते थे- जिसका एक और उदाहरण मिस्र के फ़िरौनों में मिलता है।

पर मुद्दा यह नहीं है कि कौन सी रामायण मूल कथा है। ग़ौर करने लायक बात यह है कि रामकथा की ग्रंथ परम्परा से पहले एक जीवंत श्रुति परम्परा भी रही है- जिसे गाथा के नाम से पुराणों आदि में भी पहचाना गया है। और इस श्रुति परम्परा के चलते यदि कोई मूल कथा रही भी होगी तो उसमें देश-काल--परिस्थिति के अनुसार बदलाव होते रहे हैं। अब जैसे जैन रामायण प‌उमचरियं में रावण का वध राम करते ही नहीं, लक्ष्मण करते हैं। क्योंकि जैन धर्म में हिंसा महापाप है और जिस पाप को करने के कारण ही लक्ष्मण नरक के भागी होते हैं।

इतिहास और मिथकों की इस गति को समझने के लिए एक के रामानुजन जैसे लेखों को 'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' का जाप करने वाले आस्थावान कट्टरपंथी न पढ़ना चाहें तो न पढ़ें मगर 'हरि कथा अनन्ता' का मर्म समझने की आंकाक्षा रखने वाले और सजग चेतना विकसित करने के इच्छुक छात्रों के लिए ऐसी पढ़ाई बेहद अनुकूल है।


***

बुधवार, 25 अगस्त 2010

क्रौञ्च की खरौंच


'शब्द चर्चा' पर आए दिन ज़बरदस्त शब्द संधान और शब्द विवेचना होती रहती है। कई दफ़े तो सन्देशों की संख्या पचास के भी पार चली जाती है। पिछले दिनों योगेन्द्र सिंह शेखावत ने क्रौञ्च पक्षी के बारे में शंका ज़ाहिर की। इस क्रौञ्च पक्षी की प्रसिद्धि यह है कि वाल्मीकि के कवि बनने और उसके बाद कवियों के बोझ से इस पवित्र भूमि के भारी हो जाने के पीछे यही क्रौञ्च पक्षी ज़िम्मेदार था। वह करुणगान, काव्य इतिहास का वह तथाकथित पहला श्लोक जो इस क्रौञ्च के निमित्त जन्मा वह वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के द्वितीय सर्ग में मिलता है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

photo by Fraser Simpson
तमसा तट पर अपने प्राण का बलिदान दे कर जिस क्रौञ्च पक्षी ने कविता जैसी आतंकित कर देने वाली विधा को जन्म दिया है उसके प्रति पीडि़तजनों की जिज्ञासा स्वाभाविक है। आम तौर पर लोगों का विश्वास है कि यह सारस नाम को वह पक्षी है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है। उस बेचारे सारस को यह बात मालूम नहीं है और वह निष्ठावान निरीह पक्षी ग़रीब किसानों के पानी भरे खेतों में छोटे-मोटे कीड़ों से ही अपनी क्षुधातृप्ति करता है। अगर उसे पता चलता तो वो लाल बत्ती लेकर शहरों के बजबजाते ट्रैफ़िक को चीरता हुआ किसी भी रेस्तरां में जा कर अपनी पसन्द के कीटों का महाभोज पा सकता था। लेकिन उसके जीवन की कहानी शुरु से अभी तक करुणा से ही भरी हुई है। और करुण बात ये है कि रामायण में वर्णित और उसमें सहज प्राप्य, अपने साथी के प्रति जीवन भर की निष्ठा के बावजूद कुछ लोग उस के क्रौञ्च होने पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। आयें समझें कि मामला क्या है?

सारस के बारे में मुख्य आपत्ति यह है कि वह नदी किनारे नहीं बल्कि मुख्य रूप पानी भरे खेतों में पाया जाता है, यानी दलदली भूमि में पैदा होने वाले कीट उसका मुख्य आहार हैं। अब यह प्रश्न उठ ही सकता है, और जिसे चर्चा में मेरे मित्र आशुतोष ने उठाया भी कि भई क्या तमसा नदी के किनारे हरे-भरे पानी से भरे खेत नहीं हो सकते? हो सकते हैं.. कभी-कभी नदी के ठीक किनारे पर खेत मिलते हैं। मगर यहाँ वाल्मीकि के श्लोक स्वयं आड़े आ जाते हैं।
उसी प्रकरण यानी बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग के चौथे श्लोक में वे कहते हैं-
स तु तीरं समासाद्य तमसाया महामुनिः।
शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम॥

यह जो श्लोक के अंत में तीर्थमकर्दमम्‌ आया है इसका सन्धि विच्छेद होगा तीर्थं अकर्दमं यानी बिना दलदल का किनारा। ये हुआ एविडेन्स नम्बर वन माई लौर्ड। और ये देखिये एविडेन्स नम्बर टू, उसे सर्ग के आठवें श्लोक में-
स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः।
विचचार ह पश्यंस्तत्सर्वतो विपुलं वनम्॥

पश्यं तत्‌ सर्वतो विपुल वनं यानी वहाँ खड़े विस्तृत जंगल को देखते हुए। मतलब किनारे पर जंगल है और दलदली पानी नहीं है। ऐसी जगह सारस के लिए ज़रा भी अनुकूल नहीं है।

सारस के विरुद्ध संस्कृत के महाविद्वान वामनराव शिवराव आप्टे भी सारस की कोई सहायता न करते हुए उसकी पहले से ही करुण परिस्थिति को और भी करुण बना देते हैं। उनके संस्कृत-हिन्दी कोष में क्रौञ्च का अर्थ क्रौंच का अर्थ जलकुक्कुटी, कुररी और बगला दिया हुआ है। एक सारस का नाम दे देते तो उनका क्या घटता था क्योंकि जो नाम उन्होने दिये वे भी क्रौञ्च पर सही नहीं बैठते। जलकुक्कुटी (water hen) तो स्वयं संस्कृत नाम है और उसकी पहचान एकदम अलग पक्षी के रूप में आज तक बनी हुई है। कुक्कुट वो शब्द है जिससे भरतीय भाषाओं में मुर्गी के लिए तमाम शब्द कुकड़ी,कुकड़ा, कुकड़ो आदि बने हैं। (कुक्कुट पर भी 'शब्द चर्चा' में चर्चा हो चुकी है) बगला होना मुश्किल है क्योंकि स्वतंत्र रूप से 'बक' की अन्यत्र काफ़ी महिमा है; क्रौञ्च के साथ उसका भ्रम नहीं हो सकता।

रह गई कुररी.. कुररी के बारे में पता चलता है कि इसे sea osprey/ sea hawk/ समुदी उक़ाब कहते हैं। स्वयं आप्टे के कोष में कुररः के मायने क्रौंच और समुदी उक़ाब दोनों दिया है। अब उकाब ज़मीन पर चलते-फिरते तो नहीं दिखते, बहुत ऊपर आसमान से अपना शिकार तड़ते हैं। तो कुररी भी नहीं हो सकता। (इस परचे पर टिप्पणी करते हुए अरविन्द मिश्रा जी ने बताया है कि कुररी नाम की एक और चिड़िया होती है, जिसे अंग्रेज़ी में टर्न कहते हैं, देखें नीचे सदुपदेशों में) और सबसे प्रमुख बात यह कि इन तीनों में साथी के प्रति उस तरह की निष्ठा नहीं मिलती जिसे क्रौञ्च का विशिष्ट गुण बताया गया है। उसकी यह निष्ठा एक नहीं दो जगह बताई गई है.. उसी प्रकरण में नवां श्लोक है..
तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम्।
ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम॥

चरन्तम्‌ नपायिनम्‌ यानी कि चलते हुए वे कभी एक दूजे से अलग नहीं होते थे। दूसरे प्रमाण के रूप में आगे बारहवां श्लोक है-
वियुक्ता पतिना तेन द्विजेन सहचारिणा।
ताम्रशीर्षेण मत्तेन पत्त्रिणा सहितेन वै॥
पतिना सहचारिता यानी सदैव पति के साथ फिरती थी।

अब सारस की समस्या को और जटिल बनाते हुए किन्ही महाशय ने इन्टनेट के एक पन्ने पर क्रौञ्च की पहचान यूरेशियन कर्ल्यू के रूप में कर दी है। रहता भी ये कर्ल्यू नदी, जलाशयों के पास ही है। इस चिड़िया के पक्ष में और महत्वपूर्ण बात ये है कि इसका एक हिन्दी नाम गौंच है। वाल्मीकि के काल से (बीस हज़ार साल से दो हज़ार के बीच कोई भी समय, पाठक अपनी श्रद्धा के अनुसार काल का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं) अब तक तमसा में इतना पानी तो बह ही गया है कि क्रौञ्च जैसे कठोर आर्य शब्द को लोगों ने घिस-घिस कर नदी के पत्थर की तरह चिक्कन और कोमल गौंच बना लिया हो। (लोग आहत न हों कठोर का विशेषण आर्य संस्कृति पर किसी तरह का आक्षेप नहीं बल्कि क और ग ध्वनि का अन्तर है; क, च, ट, त, प, ध्वनियां कठोर गिनी जातीं हैं और ग, ज, ड, द, ब, ध्वनियां मृदु)

लेकिन गौंच महाशय बारहों महीने तमसा तट क्या किसी भी भारतीय तट पर नहीं टिकते। गर्मियों में उत्तरी योरोप और साइबेरिया में रहते हैं, सर्दियों में दक्षिणी योरोप, अफ़्रीका और भारत चले आते है। इस से भी क्या फ़र्क़ पड़ना था और क्रौञ्च का फ़ैसला हो ही जाता मगर सबसे दुख की बात ये पता चली कि वे यहाँ घोंसला नहीं बनाते। और चूंकि मनुष्येतर अधिकतर प्राणी सिर्फ़ प्रजनन के लिए ही मैथुन करते हैं इसलिए कामचेष्टा में लिप्त उस पक्षी युगल के यूरेशियन कर्ल्यू होने की सम्भावना कमज़ोर हो जाती है।

लेकिन दोस्तों, कहानी पिक्चर तो अभी बाक़ी है! यानी एक और सबूत, इस बार सारस के पक्ष में.. इसी प्रकरण के (ऊपर दिए गए) बारहवें श्लोक में ताम्रशीर्षेण का पद उसकी रंगत का एक राज़ खोलता है। ताम्रशीर्षेण यानी तांबे के रंग के सर वाला। अब देखिये सारस और साइबेरियन क्रेन दोनों के सर पर लाल निशान होता है। सारस में सर पर तो नहीं मगर गरदन क एक लम्बा हिस्सा लाल होता है और साइबेरियन क्रेन में ज़रा सा मगर ठीक चोंच के ऊपर।

लेकिन एक कौमन क्रेन भी है, जिसके लिए हिन्दी में नाम है- कुरुन्च, कुर्च, सिन्धी में केअन्ज, और तेलुगु में कुलंग। और मी लौर्ड, इस कुरुंच यानी कौमन क्रेन के सर पर भी लाल निशान मिलता है- ठीक सर पर! अगर भौगोलिक विवरण को अनदेखा कर दें तो इस नई जानकारी के आधार पर लगता है कि अगर कोई क्रौंच हो सकता है तो ये ही। लेकिन नहीं..

निष्कर्ष पर पहुँच जाने की ख़ुशी मैं बाधा डालने के लिए क्षमा चाहता हूँ, मगर ये कुरुंच महाराज, इनका दूसरा नाम यूरेशियन क्रेन है, भी जाड़े भर के मेहमान होते हैं और प्रजनन वहीं साइबेरिया में निपटा कर आते हैं।

हद है बताइये, नाम से लगता है कि ये कुरंच ही है..
साथी के प्रति निष्ठा के चरित्र, और अपने पूर्णकालिक भारतनिवास से लगता है कि सारस है..
और भौगोलिक विवरण से लगता है कि कर्ल्यू है..
सोचिये ज़रा, एक प्रसंग में एक पक्षी की पहचान में इतनी उलझने हैं और जबमामला अयोध्या और लंका जैसे शहरों का हो तो सर फुटव्वल कैसे न हो..

ऐसा लगता है कि वाल्मीकि ने अपने कवि होने के उस अधिकार का कुछ अधिक ही इस्तेमाल कर लिया है जिसे अब पोएटिक लिबर्टी कहा जाता है। लेकिन ये बात नहीं हो सकती क्योंकि इस प्रकरण में वाल्मीकि स्वयं एक चरित्र के रूप में दर्शाये गए हैं, यानी लिखने वाला कोई और है। और इस प्रसंग को बाद में रामायण में जोड़ दिया गया है। और जोड़ने वाले हमारे पूर्वज जो भी थे, या तो वे एक से अधिक थे जो क्रौञ्च को अपने-अपने प्रिय पक्षी के रूप में बताना चाहते थे, और उनकी खींचतान में ऐसी घालमेल हुई है कि क्रौञ्च सिर्फ़ कवि की कल्पना में पाये जाने वाला एक पक्षी बन गया है।

और अगर कोई एक ही महापुरुष थे तो खेद के साथ लिखना पड़ता है कि वे पक्षियों के बारे में अधिक नहीं जानते थे। एक अन्तिम सम्भावना और भी है- जिसे मेरे बहुत सारे मित्र जो किसी भी पुरातनता पर प्रश्नचिह्न उठाने के प्रश्न से ही ठिठर उठते हैं, लोक लेना चाहेंगे- कि ये क्रौञ्च एक ऐसा पक्षी था जो वाल्मीकि के समय में तो मिलता था मगर कलियुग में गंगा और दूसरी नदियों के पापसिक्त विषाक्त जल के कीट खा कर, पूरी प्रजाति समेत परमधाम को प्राप्त हो गया।

***
(शब्द चर्चा में हुई इस क्रौञ्च चर्चा में घुघूती बासूती, आशुतोष कुमार, नारायण प्रसाद, योगेन्द्र शेखावत, अरविन्द मिश्रा और अजित वडनेरकर ने भी भाग लिया। परचे के शीर्षक के लिए राजेन्द्र स्वर्णकार का आभारी हूँ, यह पद 'शब्द चर्चा' में वे ही लाए थे।)
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