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सोमवार, 28 जनवरी 2008

मंगलेश जी की पार्टीलाइन

क्या मंगलेश जी बाबरी मस्जिद की वर्षगाँठ पर प्रकाशित चीज़ों को हाण्डी का चावल मान रहे हैं कि एक सर्च मारकर देख लिया और पता चल गया की ब्लॉग की हाण्डी में कितनी धर्मनिरपेक्षता है। अगर मंगलेश जी को उसी विषय पर अपनी सर्च में चार लोगों की श्रद्धांजलि मिल जातीं तो उनकी राय क्या होती?.. कि ब्लॉग की दुनिया बड़ी प्रगतिशील, बड़ी परिपक्व है? नवभारत टाईम्स में छपे अपने आलेख में वे लिखते हैं कि

लेकिन ब्लॉग की अवधारणा और उसके उद्देश्यों के समर्थक इन पंक्तियों के लेखक का एक दुख यह है कि उसे 6 दिसंबर 2007 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के पंद्रहवें वर्ष पर ब्लॉगों के हलचल-भरे संसार में सिर्फ 'कबाड़खाना' नामक एक ब्लॉग पर कैफी आजमी की कविता 'दूसरा वनवास' के अलावा कुछ नहीं मिला।

क्या ब्लॉग के बारे में राय बनाने का यह सही पैमाना है। मुझे कल यदि मंगलेश जी की कविता के ऊपर एक लेख लिखना हो तो क्या मैं फटाफट उनकी कविता संग्रह में भोपाल त्रासदी पर लिखी किसी कविता की तलाश करूँ और न मिलने पर घोषित कर दूँ कि कवि में सामाजिक चेतना का अभाव है।

मैं पूछना चाहता हूँ कि ये ६ दिसम्बर का संदर्भ दिया क्यों जा रहा है? जो भी ब्लॉग की दुनिया से परिचित है वह जानता है कि साम्प्रदायिकता को लेकर यहाँ कितनी आग उगली गई है.. हिन्दी ब्लॉगिंग के तथाकथित 'मोहल्ला युग' में तो काफ़ी सारे ब्लॉगर्स ने और उसके पहले भी भाई प्रियंकर और अफ़लातून ने भी साम्प्रदायिक सोच के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। मगर इसकी मंगलेश जी को कोई हवा नहीं इसीलिए मेरा शक़ है कि मंगलेश जी को हिन्दी ब्लॉग की दुनिया की उतनी ही जानकारी है जितनी हाथी की पूँछ पकड़ कर उसका आकार रज्जुवत बताने वाले पण्डित की होती है।

वे यहीं नहीं रुकते और दुःख प्रगट करते हैं कि किसी एक अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता जिसका हिंदी अनुवाद कवि असद जैदी ने किया था उन्हे ब्लॉग पर नहीं मिली.. हद है.. उम्मीद पालने की.. बच्चा जुम्मा- जुम्मा आठ दिन का हुआ और आप उस से कह रहे हैं कि हाइज़ेनबर्ग का अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल बताओ.. जिसमे आधुनिक विज्ञान को मूलभूत रूप से बदल दिया.. बहुत महत्वपूर्ण है पर कितने लोगों को पता है क्या होता है अनसर्टेनिटी प्रिन्सिपल..?

मुझे भी दो दुःख हैं एक तो यह कि मैं एक बड़े कवि से इस सुर में बात कर रहा हूँ और दूसरे यह कि मेरी भाषा का बड़ा कवि उलटे-सीधे निष्कर्ष निकाल रहा है। उन्होने हिन्दी ब्लॉग की दुनिया विकसित होने से पहले ही उसके उद्देश्य और मंज़िलें तय कर दी है-

लगता है कि बाजारवादी और वर्चस्ववादी मुख्य धारा के मीडिया के बरक्स यह वैकल्पिक माध्यम आने वाले वर्षों में हाशियों की अस्मिता का एक प्रभावशाली औजार बनेगा.. वे आगे कहते हैं कि क्या ब्लॉगों से गंभीर, वैचारिक, बौद्घिक होने की मांग करना अनुचित होगा, क्या यह कहना गलत होगा कि उन्हें उर्दू के सतही शायर चिरकीं की मलमूत्रवादी गजलों, लेखकों की निजी कुंठाओं और पारिवारिक तस्वीरों की बजाय एमानुएल ओर्तीज की कविताएं, एजाज अहमद की तकरीरें और तहलका द्वारा ली गई गुजरात के कातिलों की तस्वीरें जारी करनी चाहिए?

अगर आप सचमुच सवाल कर रहे हैं तो मेरा जवाब है कि हाँ अनुचित होगा। पहली बात तो ये कि आप जिस बौद्धिकता, वैचारिकता की अनुपस्थिति की बात कर रहे हैं वो ही ग़लत है। दूसरे ये कि आप सवाल नहीं कर रहे माँग कर रहे हैं.. और मैं तो कहता हूँ कि आप माँग भी नहीं कर रहे.. आप सवाल की शक्ल में व्हिप जारी कर रहे हैं। जैसे साहित्य की दुनिया में राजनीतिक पार्टी और आलोचक लेखक का मार्गदर्शन करते हैं कि किन विषयों पर लिखो.. क्या विमर्श करो? जैसे कुछ साल पहले स्त्री विमर्श और दलित विमर्श का दौर था अभी भी शायद वही चल रहा है। जो साहित्य पार्टीलाइन सोच कर लिखा जाता है.. मैं उसे अभिव्यक्ति नहीं नारेबाज़ी कहता हूँ।

ब्लॉग के ज़रिये आम आदमी को एक आज़ादी मिली है। आप उस में पार्टी लाइन चलाना चाहते हैं? भड़ास वाले अपने ब्लॉग पर विचार वमन करें या साधुवादी लोग जन्मदिन मना कर एक दूसरे को बधाई दें..वो उनकी अभिव्यक्ति है। वे भी आप की ही तरह सम्पूर्ण मनुष्य हैं और वे वही अभिव्यक्त करेंगे जो करना चाहते हैं और उन्हे इसका हक़ है। अगर आप को लगता है कि आप लोगों को यह बताकर कि उन्हे क्या करना चाहिये किसी बौद्धिकता का परिचय दे रहे हैं तो मुझे फिर दुःख है। वे क्या बो्लें या न बोलें और कब बोलें.. आप ज़रा सोचें.. आप उन्हे बताएंगे?

सदिच्छाएं तो मेरी भी बहुत हैं पर वास्तविक समाज से अलग कोई ब्लॉग का समाज बन जाएगा.. ऐसी कोई ग़लतफ़हमी हम और आप कैसे पाल सकते हैं? हमें तो मार्गदर्शन की ज़रूरत है पर आप तो समझदार आदमी हैं। गुजरात में मोदी जीतता रहे और गुजराती ब्लॉगियों से आप उम्मीद करें कि वे गुजरात के क़ातिलों के तस्वीर जारी करें। क्या उनको आप आकाश से आया हुआ मान रहे हैं? जितने प्रतिशत लोग आप की कविताएं पढ़कर आह्लादित होते हैं उस से अधिक लोग यहाँ एमानुएल ओर्तीज की कविताओं पर भावुक हो रहे होंगे ऐसी कल्पना ही बचकानी है। रही बात उन बहुसंख्यक लोगों की जो न आप की कविता पढ़ते हैं और न गुजरात पर धरना-प्रदर्शन.. उनसे ऐसी उम्मीद, साफ़ शब्दों में, मूर्खतापूर्ण है।
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