बाबा रामदेव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बाबा रामदेव लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 7 जून 2011

यू पी की लड़ाई में बाबा चँप गए


दिल्ली के रामलीला मैदान में जो हुआ वह कोई रणनैतिक भूल नहीं थी जैसे कि अभी कांग्रेस पार्टी, पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ जाने पर, बता रही है। असल में यह एक लाइन से पलटी मार कर दूसरी लाइन पकड़ लेने का झटका था। कांग्रेस में पिछले कुछ समय से दो लाइनें आपस में टकराती रही हैं। एक लाइन तो साफ़ तौर पर सत्ता पर क़ाबिज़ है और जिसका मक़सद है देश में भूमण्डलीय प्रतिमानों पर पूँजीवाद का विकास करना। मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम इस लाइन के प्रवक्ता हैं। दूसरी लाइन का मक़सद है कांग्रेस के पुराने क़िले उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करना। सन १९८९ के बाद से कांग्रेस का यूपी से जो सफ़ाया हुआ है तो दुबारा वहाँ सत्ता की उसकी फ़सल बटाई पर भी काटने लायक़ भी नहीं हो सकी है।

राहुल बाबा का जादू भी निहायत बेअसर रहा है। चालीस का हो जाने के बाद भी उनके अन्दर किसी भी तरह की राजनैतिक बुद्धि पनपती नहीं दिख रही है। और कांग्रेसजन इस बात पर एकमत हैं कि सत्ता हासिल करने के लिए गांधी परिवार की किसी सदस्य का सदर की कुर्सी पर बैठना उनके लिए भाग्यशाली रहता आया है। चाहते तो वो असल में ये हैं कि राहुल के बदले प्रियंका जी टोपी पहन लें मगर सोनिया ज़िद करके बैठी हैं कि प्रधानमंत्री बनेगा तो मेरा बेटा ही। और बेटाजी भी पापाजी के नक़्शेक़दम पर चलने को बेताब हैं। लिहाज़ा दिग्विजय सिंह की घाघ बुद्धि को उनकी सेवा में लगा दिया गया है। तभी से दिग्विजय सिंह कांग्रेस की दूसरी लाइन के प्रवक्ता के रूप में उभरे हैं जिसका म़कसद, जैसा कि पहले कहा, यूपी में सत्ता हासिल करके केन्द्र में पूर्णबहुमत की सरकार में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है।

इन्दिरा गांधी के समय तक कांग्रेस का वोट तीन तरफ़ से आता था- ब्राह्मण, दलित और मुसलमान। राजीवगांधी ने १९८९ के चुनाव के बाद इन तीनों पर से अपने इज़ारेदारी गँवा दी। १९८७ के भागलपुर के दंगे और हाशिमपुराकाण्ड के बाद से मुसलमान का कांग्रेस से पूर्ण मोहभंग हो गया और उन्होने दूसरा रास्ता देखा। और १९८४ के बाद से निरन्तर एक शक्ति के रूप में बढ़ती बीएसपी के कांशीराम ने दलित को जगाकर बता दिया कि कांग्रेस उनके वोटों की हक़दार क्यों नहीं है। धीरे-धीरे दलित वोटबैंक भी कांग्रेस के हाथ से रेत की तरह खिसक गया। और इन दोनों के जाने के बाद ब्राह्मण जाति के वोट कांग्रेस को मिलते तो रहे मगर किसी बैंक की तरह नहीं। और पिछले चुनाव में तो मायावती ने वो भी छीन लिए। 

दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को समझा लिया है कि यूपी में वापसी इन जातियों का वोट मिले बिना मुमकिन नहीं है। लिहाज़ा राहुल, राजकुमार के मोहक चेहरे से बहक सकने वाले दलितो को कनविन्स करने में लगे हैं कि वो उनके कितने हितचिंतक हैं। दूसरी तरफ़ अधिक कठिन मुसलमानों को बरग़लाने का काम दिग्विजय ने अपने हाथ में लिया है। ब्राह्मणों की चिंता वो अभी नहीं कर रहे हैं क्योंकि जब सत्ता मिलती दिखाई देगी तो परम्परा से हमेशा से सत्ता के क़रीब रहने वाली ब्राह्मण जाति आसानी से वापस लौटा ली जाएगी।

इसीलिए जब से उन्हे यूपी का प्रभार मिला है मुसलमानों के भीतर मौजूद अल्पसंख्यक भय को भाने वाली बातों को कहने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। ये बहुत ही अफ़सोस की बात है कि इस देश की राजनीति की धुरी बड़े तौर पर भय से प्रचालित होती है। इस धुरी का एक पहलू है जिसमें मुसलमानों को हिन्दू कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं और उसी धुरी का दूसरा पहलू वो है जिसमें हिन्दुओं को मुसलमान कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं। वामपंथ को इनमें से खुरचन भी नहीं मिलती लेकिन वो ख़ुद अपने हाथों से इस धूल को अपनी और अपने समर्थकों की आँखों में झोंकता रहता है।

जब बाबा रामदेव को एअरपोर्ट लेने चार मंत्री पहुँचे तो उसके पीछे मनमोहन की समझौतापरस्त लाइन काम कर रही थी जो पूँजीवादी विकास के लिए शांति का माहौल चाहती है और व्यवस्था में थोड़े-मोड़े सुधार करने की भी पक्षधर है। लेकिन जब आधी रात को सोते हुए लोगों पर पुलिस को छोड़ दिया गया तो वो दिग्विजय की लाइन थी जो साफ़ तौर पर हिन्दू दिखने वाले और हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करने वाले बाबा को ठग बताकर मुसलमान को उनके हितचिन्तक होने का विश्वास दिलाना चाहते हैं। जब वे ओसामा जी के दफ़न-कफ़न के प्रति चिन्तित होते हैं तो उसके पीछे भी ही यही मंशा काम कर रही होती है।

और बाबा को आर एस एस का मुखौटा बताने के पीछे भी यही सोच है कि मुसलमानों को डराया जाय और ये बताया जाय कि कैसे वो आर एस एस के ख़िलाफ़ हैं और इसलिए उनके पक्ष में हैं। जबकि बाबा रामदेव का आर एस एस से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं। जो मुद्दे आर एस एस उठाता रहा है वो बाबा भी उठा रहा है और आर एस एस उनका समर्थन भी कर रहा है। इसी आधार पर उन्हे आर एस एस का कीच मलकर मलिन किया जा रहा है। ये दिलचस्प है कि कैसे कोई मुद्दा किसी संगठन को मलिन करता है और फिर संगठन ही दूसरे मुद्दों को छू देने भर से मैला कर देता है। अब भ्रष्टाचार आर एस एस के छू देने से मैला हो चुका है। और रही बात रामदेव की तो वो ज़ाहिरी तौर पर आर्यसमाजी परम्परा में है। आर्यसमाज भी एक समय में मुसलमानों के साथ संघर्ष की भूमिका में रहा है मगर आम मुसलमान को वो सूक्ष्म अंतर कौन समझाए। और अब आर एस एस का खौफ़ फ़ैशन में भी है तो इसीलिए दिग्विजय हर बात घुमा-फिरा कर आर एस एस की ओर मोड़ देते हैं।   

बाबा का तम्बू उखाड़कर कांग्रेस ने २०१२ के यूपी के चुनावों में  मुसलमानों के वोट पर अपनी दावेदारी पेश की है और मायावती को सीधी चुनौती दी है। क्योंकि असल में मायावती ही कांग्रेस की विरासत पर कुण्डली मारकर बैठ गई हैं। दलित, मुसलमान और ब्राह्मण का समीकरण अब उनके पास है। कांग्रेस की इस चाल को मायावती भी अच्छी तरह समझती हैं इसीलिए जब बाबा को दिल्ली से हकाला गया तो मायावती ने उनको भाव देना तो दूर यूपी की सीमा में वापस घुसने भी नहीं दिया। वो नहीं चाहतीं कि मुसलमान के बीच यह इम्प्रेशन जाय कि वो बाबा को बढ़ावा दे रही हैं। अपने व्यवहार में मायावती ने कहीं अधिक राजनैतिक परिपक्वता का मुज़ाहिरा किया है। 

कुछ भटके हुए लोग भले यह समझते रहें कि भ्रष्टाचार १९९१ के आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं मगर घुटे हुए समझदार लोग जानते हैं कि भ्रष्टाचार युगों पुराना रोग है। प्राचीन काल में था और मुग़ल काल में भी। कम्पनी के गोरे भी इस रोग से ग्रस्त थे और आज़ादी के तथाकथित मतवाले भी। बीच-बीच में जनता आजिज़ आकर हल्ला मचाती है मगर वापस ढर्रे पर लौट जाती है क्योंकि हर आदमी जो दूसरे के भ्रष्टाचार से दुखी है अपने भ्रष्ट आचरण के साथ सुखी है। बाबा रामदेव ने भी भ्रष्टाचार का झण्डा अपनी सस्ती लोकप्रियता को और भड़काने के लिए उठाया है। बाल-दाढ़ी बढ़ाकर शादी न करने से आदमी वास्तविक ब्रह्मचारी नहीं हो जाता। ब्रह्म के अलावा भी बहुत कुछ में विचरण करने वाले बाबा ने ब्लेड और शादी से सन्यास भले लिया हो सांसारिकता से सन्यास नहीं लिया है।

बाबा कितने आत्मकेन्दित और महत्वाकांक्षी हैं, ये कोई भी देख सकता है। अगर उन्हे वास्तव में भारत और भारतीय मानस में व्याप्त भ्रष्टाचार की चिंता तो है तो भ्रष्टाचार की जड़ पर वार क्यों नहीं करते? आचार पर? धर्म तो समाज की इकाई व्यक्ति को मानता है। समाज परिवर्तन की धुरी वो व्यक्ति को मानता है। इसीलिए साधु समाज को नहीं बदलता, स्वयं को बदलता है। बाबा कहाँ अनशन में जुट गए?

अनशन बापू का हथियार था और याद रहे बापू साधु नहीं, राजनीतिज्ञ थे। उनका अनशन अपने भीतर की वृत्तियों पर क़ाबू पाने के लिए नहीं था जैसा कि हर सच्चा धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति करता है, उनका अनशन राजनैतिक लक्ष्य के लिए होता था। इसलिए कोई अगर ये कहे कि बाबा तो राजनीति नहीं कर रहे थे, तो वो नासमझ हैं। सिर्फ़ चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं होती। राज्य की नीति परिवर्तन के लिए जो कुछ भी किया जाय वो सब राजनीति है।

मगर बाबा कच्चा है। वो दिग्विजय सिंह जैसा घाघ नहीं है। राजनीति उसके बस की नहीं। अच्छी राजनीति करने के लिए सिर्फ़ अच्छा आदमी होना ज़रूरी नहीं, कुटिलता ज़रूरी है। और बाबा के तो अच्छे होने पर भी सन्देह है। बाबा का असली योगदान तो यह हो सकता था कि वो व्यक्तियों के भीतर भ्रष्टाचार के अनैतिक बीज के विरुद्ध आध्यात्मिक जंग का ऐलान करे। मगर वो यह कर सकें ये बूता उनमें नहीं है। जिस व्यक्ति ने योग को महज़ शरीर को एक स्वस्थ रखने की पद्धति बना दिया उससे आप किसी आध्यात्मिक समझ की क्या उम्मीद कर सकते हैं? जिस पतंजलि के नाम पर उन्होने अपना विद्यापीठ बनाया है उनकी दो हज़ार से भी पुरानी किताब योगसूत्र में किसी आसन का कोई ज़िक़्र नहीं है, वो सिर्फ़ एक दार्शनिक-आध्यात्मिक सिद्धान्त है। आसन-बन्ध-मुद्रा वाला ये संस्करण तो गोरख और मछन्दर के बाद नौवीं-दसवीं सदी से आया है। और उसका भी ध्येय शरीर में रमना नहीं, स्थूल शरीर के पार जाना ही है। पर वो सब किसे याद है?


दिल्ली से निकाले जाने के बाद बाबा ने जिस तरह की अनावश्यक दारुणता का मुहावरा चुना है उससे कुछ लोग भले ही धोखा खा जायें पर अधिकतर लोग उनकी नौटंकी के आर-पार देख सकेंगे। 
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...