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रविवार, 12 अगस्त 2007

विनीता की एक नई छलाँग

कल एक खास दिन था.. कल एक बहुत पुरानी और मेहरबान मित्र विनीता कोयल्हो की ज़िन्दगी का एक अहम दिन था.. उस अहम दिन के बारे में बताने से पहले मैं आप को विनीता के बारे में बताता हूँ.. विनीता भी टी वी की दुनिया से रोज़गार करने वाली एक शख्स हैं.. पर वो मेरी तरह 'बाज़ार से गुज़रा हूँ मगर खरीदार नहीं हूँ' के फ़लसफ़े में यक़ीन नहीं रखती.. वो जो करती हैं पूरी शिद्दत और जोश से करती हैं.. सच तो यह है कि मैंने पिछले कुछ सालों में जो गिने चुने काम किए हैं उनमें से काफ़ी कुछ विनीता की छत्रछाया में सम्पन्न हुए हैं.. विनीता कई बड़ी-बड़ी टीवी कम्पनी की क्रिएटिव पोज़ीशन्स पर शोभायमान रही हैं.. वे सोनी एन्टरटेनमेन्ट चैनेल यानी सोनी टी वी की वाइस प्रेसीडेन्ट भी रह चुकी हैं.. और आजकल इंटरनेशनल टी वी जायन्ट एण्डेमॉल की क्रिएटिव कन्सल्टेन्ट हैं..

वे मुम्बई में काम करती हैं.. मगर अपनी प्यारी माँ मैरी कोयल्हो और चार कुत्तो और तीन बिल्लियों की गुदगुदी सुरक्षा का आनन्द लेने हर सप्ताहांत अपने गोवा के घर में लौट जाती हैं.. वो नग़मे भी बड़ी सुरीली आवाज़ में गुनगुनाती हैं.. और खाली वक़्त में कैनवास फैला कर पेंटिग करने बैठ जाती हैं.. इस दुनिया की मेरी चन्द पसंदीदा औरतों में विनीता का भी नाम है.. क्योंकि एक सक्षम प्रशासक होने के बावजूद उनके भीतर का कलाकार हमेशा जागा रहता है.. और टीवी की बेदिल संगीन दुनिया में उनकी लेखकों के प्रति ये नर्मदिली मुम्बई में मेरा सहारा है.. सच्चाई ये है कि मेरी जेब की तंगी का राज़ सिर्फ़ मजबूरी की आसन्न बेरोज़गारी नहीं.. चुनी हुई बेरोज़गारी है.. मुझे काम के लिए फोन आते ही रहते हैं..काम हमेशा उपलब्ध रहता है.. लेकिन मैं कतराता रहता हूँ क्योंकि स्वस्थ मानवीय माहौल और मानवीय सम्बन्ध बनाने सकने वाले विनीता जैसे लोग कम ही मिलते हैं.. मेरे जीवन में उनके न होने पर मेरी हालत और शोचनीय हो जाती..

कल विनीता की लिखी हुई पहली किताब का बुक लांच था.. किताब का नाम है डन्जन टेल्स.. जो मूलतः बच्चों के लाभार्थ लिखी गई है.. प्रकाशक हैं स्कॉलस्टिक.. और मूल्य है मात्र २५० रुपये.. मुम्बई की इनफ़िनिटी मॉल स्थित लैण्डमार्क बुक स्टोर्स में यह आयोजन रखा गया.. ज़ाहिर है विनीता ने मुझे इस अवसर पर मौजूद रहने के लिए बुला भेजा था.. मैं नियत समय से पहुँच भी गया.. किताबों की रैक्स को सरका कर बच्चों और बड़ों के बैठने के लिए जगह बनाई गई थी.. किताब का लोकार्पण करने के लिए मशहूर अभिनेता राहुल खन्ना आए थे.. उन्होने विनीता को गोवा की जेके राउलिंग बन जाने की शुभकामना दी.. जो मुझे कुछ जँची नहीं.. असली शुभकामना तो जेके राउलिंग को अपदस्थ करने की होगी.. जो मैं विनीता को देना चाहता हूँ.. दे रहा हूँ..

लोकार्पण के बाद विनीता ने अपनी किताब के बारे में बताना शुरु किया.. डन्जन टेल्स कहानी है एक बदमाश बादशाह की जो अपने एक शाप से बचने के लिए अपने कै़दखाने को हमेशा ठसाठस रखता है.. और कैदखाने में बंद कै़दी एक दूसरे को बताते हैं अपने क़ैद हो जाने की कहानियाँ.. जादुई फ़ंतासी से भरी रूमानी दुनिया की रोमांचकारी कहानियाँ.. ऐसी दुनिया जो बच्चों को विस्मय और अद्भुत की यात्रा पर भेज देती है..

विनीता अपनी बात कर ही रही थीं कि इसी बीच अचानक सबको चौंकाते हुए बदमाश बादशाह सचमुच लैंडमार्क में हो रहे इस समारोह में आ धमका और उसकी ज़िद और धमकी पर विनीता को एक डन्जन टेल पढ़कर सबको सुनानी पड़ी.. एक ऐसे कै़दी की कहानी जिसने अपना नाम खो दिया था.. सोचिये ऐसा खोया उसका नाम कि उसकी माँ तक को याद नहीं रहा..

फिर क्या क्या कैसे कैसे हुआ जानने के लिए पढ़िये डन्जन टेल्स.. अपने लिए न तो अपने बच्चों के लिए ज़रूर खरीदिये यह किताब.. और हिन्दी अंग्रेज़ी के टंटे में मत पड़िये.. हिन्दी में अभी मौलिक लेखन का बाज़ार विकसित नहीं हुआ है.. लिखने वाले आप को मिल भी जायं तो खरीदने वाले नहीं मिलेंगे.. मैंने भी अभी किताब पूरी नहीं पढ़ी है.. पर मुझे विनीता की रचनात्मकता पर इतना भरोसा है कि वह मुझे निराश नहीं करेगी और न ही आप को..

लिखने वाले जानते हैं.. ब्लॉग लिखने की बात तो कर ही नहीं रहा.. टी वी के लिए लिखना, फ़िल्म के लिए लिखना, अखबार और पत्रिका के लिए लिखना भी अपनी जगह.. असली लिखना तो किताब लिखना ही है.. जैसे कि आप तब तक फ़िल्म मेकर नहीं कहे जा सकते जब तक आप ने फ़ीचर फ़िल्म न बनाई हो.. आप तब तक असली लेखक नहीं कहे जा सकते जब तक आप की कोई किताब प्रकाशित ना हुई हो.. तो विनीता के जीवन में कल ११ अगस्त को वह बड़ा दिन आ पहुँचा.. लेखक तो विनीता बहुत पहले से ही थीं.. मगर अब वह गर्व से कह सकेगी कि वह एक लेखक है.. राइटर है.. या ज़्यादा स्टाइल मारना हो तो कहेगी कि वह ऑथर है.. मेरी उसे ढेरों शुभकामनाएं..

शनिवार, 7 जुलाई 2007

हल्लम हल्लम हौदा

कल की कविता इब्न बतूता पहन के जूता के ऊपर भाई बोधिसत्व की प्रतिक्रिया आई.."..आज कुछ ही कवि हैं जो बच्चों के लिए भी लिखते हैं बनारस के श्री नाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल और सुरेश सलिल को छोड़ दें तो शायद ही कोई कवि बाल कविताएं रच रहा हो। मैं भी अपने को अपराधी पाता हूँ.." ..हिन्दी समाज की आम और हिन्दी साहित्य की खास और उसमें भी बच्चों की खासम खास दुर्दशा पर बोधिसत्व और तमाम दूसरे मित्रों के अपराध बोध को हवा देने के लिए एक और प्यारी और प्रासंगिक कविता को पेश कर रहा हूँ..
इस कविता के लेखक डा० श्री प्रसाद के बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं है.. कविता हाथरस के संगीत कार्यालय के बाल संगीत अंक में प्रकाशित हुई थी .. मेरी मित्र ऋतिका साहनी सम्भवतः इस गीत और कुछ अन्य बच्चों के गीतों पर शीघ्र ही एक ऑडियो एल्बम निकालेंगी.. इस कविता से मेरा परिचय उन्ही के मार्फ़त हुआ .. उनको धन्यवाद देते हुए आप के आनन्द के लिए प्रस्तुत है.. हल्लम हल्लम हौदा..


हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम,
हम बैठे हाथी पर,
हाथी हल्लम हल्ल्म।

लम्बी लम्बी सूँड़,
फटाफट फट्टर फट्टर,
लम्बे लम्बे दाँत,
खटाखट खट्टर खट्टर।

भारी भारी मूँड,
मटकता झमम झमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

परवत जैसी देह,
थुलथुल थल्लम थल्लम,
हल्लर हल्लर देह हिले,
जब हाथी चल्लम।

खम्बे जैसे पाँव,
धपाधप पड़ते धम्मम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

हाथी जैसी नहीं सवारी,
अग्गड़ बग्गड़,
पीलवान मुच्छड़ बैठा है,
बाँधे पग्गड़।

बैठे बच्चे बीस,
सभी हैं डग्गम डग्ग्म,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

दिन भर घूमेंगे,
हाथी पर हल्लर हल्लर,
हाथी दादा,
ज़रा नाच दो थल्लर थल्लर।

अररे नहीं,
हम गिर जायेंगे धमम धमम,
हल्लम हल्लम हौदा,
हाथी चल्लम चल्लम।

कवि -डा० श्री प्रसाद

मंगलवार, 22 मई 2007

बिल्लू का बचपन ४

बिल्लू ने देखा सड़क के किनारे की ज़मीन सड़क से काफ़ी नीचे थी जैसे कोई बड़ा सा गढ्ढा हो.. और उस गढ्ढे में उनसे थोड़ी दूर पर एक औरत बैठी हुई थी.. उनकी तरफ़ पीठ करके.. बिल्लू को उसका चेहरा नहीं दिख रहा था.. पर उसके साँवले शरीर की कमर के नीचे का हिस्सा बिना कपड़ो का नंगा दिख रहा था.. बिल्लू ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था..

वह एक टक उधर देखता ही रह गया..वो दो साँवली गोलाइयाँ थीं.. अगर वो लाल होतीं और उनके किनारे हरे रंग के.. तो बिल्लू समझ जाता कि वो एक बड़े तरबूज़ की कटी हुई दो फाँकें हैं जो अगल बगल रख कर आपस में किसी तरह जोड़ दी गई हैं..अगर वो उजली होती तो बिल्लू सोचता कि शायद वो कोई भूला भटका पूरा चाँद है जो भरी दोपहर में निकल आने की अपनी गलती जानकर एक औरत के लहँगे में घुसने की कोशिश में फट कर दो हो गया है.. मगर ये ना चाँद था ना तरबूज़ ये तो कुछ और था गोल चिकना मगर साँवला.. बिल्लू ने सामान्य कूल्हे खूब देखे थे.. कपड़ों से ढके छिपे..एक पूरे शरीर का हिस्सा.. उन्होने कभी बिल्लू को इस तरह मोहित नहीं किया.. इन कूल्हो में कुछ विशेष था.. ये उसे किसी शरीर का हिस्सा नहीं बल्कि अपने आप में वो एक विराट हसीन हस्ती बन कर उसके दिलोदिमाग़ पर छाते जा रहे थे.. उन गोलाइयों से बिल्लू की नज़रें हट ही नहीं रही थी.. मानों वे उम्र भर उन्ही गोलाइयों को खोज रही थीं और अपनी मंज़िल पा जाने पर अब कहीं और भटकने से उन्हे साफ़ इन्कार हो..

बिल्लू न जाने कब तक ऐसी ही खड़ा रहा.. इसी बीच उन साँवली गोलाइयों की स्वामिनी उस औरत ने अचानक मुड़कर उनकी दिशा में देखा.. और झटके से अपनी गोलाइयों को ढक दिया.. बिल्लू इस व्यवहार के लिये तैयार नहीं था.. फिर उसने सुना कि गोलाइयों को छिपा लेने वाली औरत एक ऐसी भाषा में कुछ बड़बड़ा रही है.. जो उसने पहले नहीं सुनी थी.. सुन्दर गोलाइयो वाली औरत क्रुद्ध दिख रही थी.. कुछ बात हुई थी जो उसके मन के विरुद्ध थी.. वो बिल्लू की ओर भी देख रही थी पर राजू की ओर अधिक अपना क्रोध फेंक रही थी.. बिल्लू ने देखा कि राजू हँस रहा था.. फिर अचानक मोहक गोलाइयों को छिपा लेने वाली औरत ने एक नुकीला पत्थर उठाकर राजू की तरफ़ फेंका.. बिल्लू और राजू दोनों छिटक थोड़ा दूर हट गये.. दूसरा पत्थर भी उनकी दिशा में उड़ता चला आ रहा था.. बिल्लू अपना बस्ता सँभालते हुए भागने लगा.. राजू भी भाग रहा था पर वो बस्ता नहीं अपनी पैंट की म्यानी सँभाल रहा था.. बिल्लू ने देखा कि उसने भागते भागते ही म्यानी की चेन को बंद किया.. बिल्लू को कुछ समझ नहीं आया वे भागते भागते काफ़ी दूर निकल आने के बाद ही थमे.. जब उनकी साँस फूलने लगी..राजू अभी भी हँस रहा था.. बिल्लू को समझ में नहीं आया कि हँसने की क्या बात थी.. क्या राजू उन गोलाइयों के ढक जाने से खुश था.. या उन की स्वामिनी से पत्थर खाकर उसे आनन्द आया था.. या कोई और ही वजह थी जिसे बिल्लू समझ नहीं सका..

इस घटना के बहुत दिनों बाद तक भी बिल्लू उन गोलाइयों को भुला नहीं सका.. उसे पत्थर फेंकने वाली औरत का चेहरा याद नहीं था मगर गोलाइयां किसी अनोखे आधे चाँद की तरह उसके मन के आकाश पर सर्वदा आरूढ़ रहतीं.. उसके आँखे बंद करते ही न जाने कहाँ से वो तैरती सी आ जातीं.. और ऐसे उसके मानसिक पटल पर लहराती रहती जैसे यही उनके अस्तित्व का उद्देश्य हो..

सपनों में तो और भी विकट स्थिति थी.. बिल्लू पतंग उड़ा रहा होता और उसकी पतंग का आकार उन गोलाइयों जैसा होता.. बिल्लू पतंग की डोर छोड़ने के बजाय लपेटने लगता.. जब वो नज़दीक आती तो बिल्लू को पता चलता कि वे पतंग की तरह हलकी नहीं .. उनसे भी ज़्यादा हलकी होतीं.. इतनी ज़्यादा कि उन्हे छूते ही बिल्लू सतह से उठने लगता और उठता ही जाता ऊपर.. और ऊपर.. या फिर बिल्लू इम्तिहान का परचा लिख रहा होता..और कॉपी पर शब्दों की जगह गोलाइयां आकार ले रहीं होतीं.. बिल्लू उसे रबर से मिटाने की कोशिश करता.. और रबर के बदले उसके हाथ में वो गोलाइयां आती.. उनके स्पर्श से बिल्लू एक अजीब सनसनी से ग्रस्त हो जाता.. और धीरे धीरे उनका आकार बढ़कर इतना हो जाता कि वह बिल्लू के बाज़ुओं से बाहर निकल जातीं..और बिल्लू घबरा कर उन्हे सँभालने की कोशिशें करता हुआ कक्षा के बाहर भागता..

जागृति के हादसे भी कम नहीं थे.. स्त्रियों के कूल्हे देखते ही बिल्लू के मन में बसी हुई गोलाइयां.. उन कूल्हों के ऊपर छा जातीं.. ये स्त्रियां जो बिल्लू की पड़ोस की कोई दीदी या आंटी होती.. जो एक खास सामाजिक माहौल में बिल्लू को दिखतीं मिलतीं.. बिल्लू का उनके साथ एक आदर सम्मान का रिश्ता होता.. उनके ढके छिपे कूल्हों पर बिल्लू की उन मनभावन गोलाइयों के छा जाने से बिल्लू के मानसिक जगत में बड़ा गड्ड-मड्ड होने लगता.. और न जाने क्यों इस गड्ड-मड्ड के होने के बाद मन में कहीं से एक तरल ग्लानि आ कर सब ओर फैल जाती और उन गोलाइयों के आनन्द को डुबा देती.. उनके डूब जाने से या किसी अन्य वजह से बिल्लू देर तक अपराधी महसूस करता रहता..

मंगलवार, 15 मई 2007

बिल्लू का बचपन ३


बिल्लू के पापा जी सिगरेट नहीं पीते थे.. वो पान खाते थे.. सिगरेट फ़िल्मों में विलेन पीते थे और हीरो भी जब वो दुनिया से नाराज़ होते थे.. राजू ने विलेन जैसी कोई बात नहीं की थी.. उसने तो "कहीं नहीं" जैसा ईमानदार जवाब देकर अपने मन की सच्चाई का परिचय दिया था.. वो हीरो हो सकता है.. वो जिस बेपरवाह नज़रों से नहर और उसके पार की कॉलोनी की ओर देख रहा था.. शायद वह किसी तरह की छिपी हुई नाराज़गी थी.. ऐसा बिल्लू ने सोचा..
राजू क्यों नाराज़ होगा दुनिया से.. क्या उसके पापा शराब पीकर उसकी माँ को पीटते थे.. या उसके पापा नहीं थे सिर्फ़ माँ थी जो उसको पढ़ाने के लिये दूसरों के घरों में महरी का काम कर रही थी.. या माँ भी नहीं थी.. बहुत बचपन में ही मर गई थी, टी बी की दवा वक्त पर ना पहुँच पाने के कारण.. क्योंकि दवा की दुकान वाले ने पैसे पूरे ना होने के कारणं सारी दवाओं का पैकेट उसके हाथ से छीन कर उसे सड़क की ओर धकेल दिया था.. या फिर किसी ने उसके हाथ पर लिख दिया था कि उसका बाप चोर है..
ये आखिरी बात सोच कर बिल्लू ने धीरे से राजू की हाथ की ओर देखा.. राजू ने एक हाथ मोड़कर सर के नीचे रखा हुआ था और दूसरे हाथ से सिगरेट पी रहा था..राजू ने अपनी कमीज़ की आस्तीनें मोड़कर ऊपर तक चढा़ई हुई थीं.. बिल्लू ने देखा कि सिगरेट वाले हाथ में कुछ भी नहीं लिखा था.. सर के नीचे वाले हाथ को ठीक से ना देख पाने के लिए बिल्लू और आगे की ओर झुक गया.. मगर फिर भी ना देख पाने के कारण.. उसने राजू के बराबर लेटने की मुद्रा में आने का फ़ैसला किया.. बिल्लू के लेटते ही राजू ने सर के नीचे का हाथ निकाला और उसी का सहारा लेकर उठ खड़ा हुआ.. इस अन्तराल में बिल्लू को राजू के उस हाथ की एक झलक भर ही मिल सकी.. वहाँ नीले रंग से कुछ लिखा हुआ था..बिल्लू ठीक से पढ़ नहीं सका कि क्या.. बिल्लू ने देखा राजू ने सिगरेट को उंगलियों से ठोकर मार कर नहर की तरफ़ उछाल दिया.. सिगरेट उड़ती हुई नहर के पानी पर गिरी.. और नहर के पानी की सतह पर हलके हलके हिलने लगी..

यह देखते देखते बिल्लू थोड़ा भ्रमित हो गया उसे समझ नहीं आया कि नहर के हलके हलके हिलते पानी के साथ सिगरेट हिल रही थी.. या सिगरेट जिस गति से उड़ती हुई आई थी उस गति के प्रभाव से अब नहर का पानी हिल रहा था..इस परिघटना को ठीक से समझने के लिये बिल्लू ने नहर किनारे की मिट्टी का एक बेढंगा ढेला नहर के पानी पर लगभग सिगरेट के आस पास ही फेंका.. ढेला जल्दी से पानी में डूब गया.. जैसे बिल्लू के इस प्रयोग में उसका सहयोग सिर्फ़ किनारे से उड़कर पानी की सतह तक जाने तक ही था.. ढेले के इस असहयोग का दोष बिल्लू ने ढेले को नहीं दिया और सोचा कि शायद यह पानी का अपना फ़ैसला था कि किसे वो तैरने देगा और किसे डुबो देगा..बिल्लू को तैरना नहीं आता था.. यह सोच कर वो नदी के स्वभाव के प्रति थोड़ा सशंकित हो गया..उसने देखा कि सिगरेट पानी की सतह पर अभी भी हलके हलके हिल रही थी.. सूरज की किरणें पानी पर गिर कर बिल्लू की आँखों को चौंधियाँ रही थीं.. और हैलीकॉप्टर की शक्ल के कीड़े भी पानी की सतह का निरीक्षण कर रहे थे.. फिर उस ने सोचा कि ऐसा भी तो हो सकता है कि उसके ढेले फेंकने और राजू के सिगरेट फेंकने के कौशल में अन्तर हो.. आखिर दोनों के उम्र और कद में भी तो अन्तर था.. और फिर राजू दुनिया से नाराज़ भी था..
राजू का ख्याल आते ही बिल्लू ने मुड़कर राजू की तरफ़ देखा.. उसके हाथ में अभी भी कुछ नीली स्याही से लिखा हुआ था .. जिसे बिल्लू पढ़ नहीं सका था..उसे पढ़ने के लिये बिल्लू दिन भर राजू के साथ साथ घूमता रहा.. और जब बिल्लू को उसे पास से पढ़ने का अवसर मिला तो उसने पाया कि वहाँ डॉटपेन से लिखा था.. राजू लव टू पिंकी.. बिल्लू थोड़ा निराश हुआ.. कहानी कुछ और थी.. राजू का किसी से प्रेम था और यह वाक्य उसी का बयान था.. इतना समझदार था बिल्लू.. मगर यह पढ़कर बिल्लू के मन में राजू की जो छवि बनी थी उसकी विराटता में थोड़ा अन्तर आ गया इसलिये नहीं कि राजू का बाप चोर नहीं था और वह किसी पिंकी नाम की लड़की के प्यार में था.. बल्कि इसलिये कि राजू की अंग्रेज़ी ठीक नहीं थी.. बिल्लू ने पूरे आत्मविश्वास से अपने नए दोस्त की गलती सुधारनी चाही..
'राजू लव टू पिंकी नहीं होता'..
'क्या ?'.. राजू ने त्यौरियाँ चढ़ाकर पूछा..
'ये गलत सेनटेन्स है.. राजू लव्स पिंकी सही सेनटेन्स है'..
राजू को बिल्लू की बात अच्छी नहीं लगी थी..
'इसको फिर से लिखो'.. बिल्लू ने मित्रवत सलाह दी...
'पागल है क्या'.. राजू ने बिल्लू को लगभग हिकारत से देखते हुए कहा..
राजू की हिकारत बिल्लू को समझ में आ गई.. वह चुप हो गया.. दोनों चलते रहे.. इस बीच दोनों चलते चलते नहर पार कर के कॉलोनी के अन्दर चले आये थे..अधिकतर सड़कें खालीं थीं.. कहीं कहीं दोनों तरफ़ मकान बन के तैयार खड़े थे.. कहीं एक तरफ़.. और कहीं एकदम सन्नाटा था.. वे अभी एक सन्नाटी सड़क पर थे.. अचानक चलते चलते राजू रुक गया और एक तरफ़ देखकर बोला.. 'वो देख'.. बिल्लू ने देखा सड़क के किनारे की ज़मीन सड़क से काफ़ी नीचे थी जैसे कोई बड़ा सा गढ्ढा हो.. और उस गढ्ढे में उनसे थोड़ी दूर पर एक औरत बैठी हुई थी.. उनकी तरफ़ पीठ करके.. बिल्लू को उसका चेहरा नहीं दिख रहा था.. पर उसके साँवले शरीर की कमर के नीचे का हिस्सा बिना कपड़ो का नंगा दिख रहा था.. बिल्लू ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था..
(आगे फिर.. )

सोमवार, 14 मई 2007

बिल्लू का बचपन २

उस दिन भी बिल्लू के साथ ऐसा ही हुआ था कि जब वह स्कूल पहुँचा तो स्कूल अपने गेट के उस तरफ़ और बिल्लू गेट के इस तरफ़ बंद हो गये थे.. तभी स्कूल के अंदर बंद एक बच्चे को बिल्लू ने दीवार पर से स्कूल के बाहर की पथरीली ज़मीन पर फाँदते हुए देखा.. वह बच्चा जिसका नाम राजू था बिल्लू का दोस्त नहीं था.. राजू के इस दुस्साहस में उसे एक विचित्र आकर्षण अनुभव हुआ..जो उसे राजू की दोस्ताना नज़दीकी पाने के लिए प्रेरित करने लगा..

राजू बरमा से आया था .. और उसकी ही कक्षा में पढ़ता था.. पर वह कक्षा के अन्य विद्यार्थियों से उम्र में बड़ा और क़द में ऊँचा था..बिल्लू ने राजू से पहले किसी बरमा के निवासी को नहीं देखा था पर नक्शे में बरमा की स्थिति को देखा था... बरमा भारत वर्ष के पूर्वी किनारे पर होता है.. और उसका एक बड़ा भाग दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में लटका होता है.. कई सारे नक्शो में जो पोस्टरो और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बनाये जाते हैं.. बरमा वाला वह ज़मीनी हिस्सा भारत के नक्शे के भीतर ही दिखाया जाता है.. यह भी बिल्लू ने देखा था.. और इसी वज़ह से वह बरमा और भारत के एक नज़दीकी सम्बंध की एक कल्पित छाप भी मन में रखता था..

बिल्लू के मन में बरमा के निवासी की जो छवि थी उसमें उनकी नाक चपटी, आँखे छोटी और भिंची हुई होती थी लेकिन उसे समझ नहीं आता था कि राजू जो कि बरमा से आया है उसकी नाम आम हिन्दुस्तानियों से भी ज़्यादा ऊँची कैसे है.. सच में राजू की नाक उसके चेहरे का सबसे अनोखा पहलू थी जो माथे से निकलते ही अचानक उठ गई थी और फिर लगभग ९०अंश के कोण पर सीधे होठों की तरफ़ गिरती थी.. बड़ी सुडौल नुकीली और गठी हुई राजू की वह नाक बिल्लू को बहुत हैरान करती वह जब भे राजू को देखता तो उसकी नाक के विषय में सोचने लगता.. मगर उस दिन बिल्लू ने राजू की नाक के विषय में नहीं सोचा था.. क्योंकि उस दिन उसे राजू में कुछ और दिखा था जो उसकी नाक से भी ज़्यादा आकर्षक था..

राजू कूदते समय अपना संतुलन खो बैठा था और उसको अपने आपको पूरी तरह गिरने से बचाने के लिए हाथों का सहारा लेना पड़ा था.. सड़क के किनारे का एक नुकीला पत्थर उसकी हथेली में धँस गया था और हाथ के उस हिस्से में एक लाल रक्त की रेखा बन गई थी.. बिल्लू उसे मंत्रमुग्ध देख रहा था.. राजू ने रक्त की कोई परवाह ना की, अपने हाथों को झाड़ा, फिर हाथों से अपनी पैंट को झाड़ा और सबसे आखिर में अपने बस्ते को झाड़ा और चल पड़ा.. बिल्लू स्कूल की दुनिया की चिंताओं से बंधा वहीं खड़ा रहा.. मगर बिल्लू का मन उसको छोड़ राजू के साथ जाने लगा.. तो बिल्लू ने मुड़कर स्कूल के गेट की तरफ़ एक और बार देखा, स्कूल की चिंताओ की धूल को राजू की तरह अपने दिमाग के बस्ते से झाड़ा और वह भी चल पड़ा..

राजू धीरे धीरे बड़ी बेफ़िक्री से कदम रखता हुआ चल रहा था.. और बिल्लू उस तक पहुँचने की हड़बड़ाहट में जल्दी जल्दी.. दो चार कदम में ही बिल्लू राजू तक पहुँच गया.. राजू ने बिल्लू की ओर नहीं देखा जब बिल्लू ने राजू के ओर देखा.. वह दूर आकाश में देख रहा था.. 'कहाँ जा रहे हो?', बिल्लू ने पूछा.. 'कहीं नहीं' राजू ने लापरवाही के साथ कुछ समय के बाद बोला.. उतने समय बिल्लू उस अन्तराल के सन्नाटे को सहता रहा.. जवाब मिल जाने पर बिल्लू को ऐसी खुशी हुई जैसे कोई खोई हुई किताब मिल गई हो.. बिल्लू ने सोचा कि राजू तुमसे मतलब कहके उसे अपनी दुनिया से बाहर भी कर सकता था पर उसने सच्चा जवाब देकर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है.. इसी बात को उसने खोई हुई किताब के बराबर मूल्यवान पाया.. और उसका सारा बदन हलका हो कर एक ऐसी लापरवाही से भर गया जो उसकी अपनी ना थी .. किसी को देख कर उसने जल्दी से सीख ली थी..

राजू जाकर नहर के किनारे पसर गया था और बिल्लू भी बस्ता कंधों से उतार कर उसकी बगल में बैठ गया था.. ये नहर स्कूल से सौ एक कदम की दूरी पर थी.. और धूप में चमकते पानी से लबालब भरी थी.. नहर के पार जाने के लिए सड़क पर एक पुल बना था जिस पर इक्का दुक्का सायकिल और स्कूटर आती जाती रहती थी.. नहर के पार एक विशाल कॉलोनी थी जो अभी पूरी तरह बनकर तैयार नहीं हुई थी.. कुछ मकान बन कर पूरी तरह तैयार थे पर उसमें लोग रहने के लिए अभी नहीं आये थे.. और कुछ बन रहे थे जबकि लोग उसमें आकर बस चुके थे.. बिल्लू कभी भी नहर के उस पार नहीं गया था लेकिन कई बार स्कूल जाने के पहले और कई बात स्कूल छूटने के बाद इसी नहर के किनारे खड़े होकर उसने नहर के पार की उस विशाल कॉलोनी को देर तक ताका था और उसके भीतर होने के अनुभव की कल्पना की थी..

राजू ने लेटे लेटे ही अपनी जेब में हाथ डालकर एक सिगरेट का पैकेट निकाला और फिर दुबारा उसी जेब में हाथ डाल कर एक माचिस की डिबिया.. बिल्लू ने आँख फाड़ कर उसे देखा.. 'पियोगे'. राजू ने उसकी तरफ़ मुड़कर पूछा.. बिल्लू कुछ न कह पाया उसने बस तेजी से अपनी गरदन को ना में हिलाया.. शायद राजू को इसी जवाब की उम्मीद थी.. उसने बिना कोई हैरानी जतलाये सिगरेट सुलगाई और धुआँ उगलने लगा..

(आगे फिर.. )

रविवार, 13 मई 2007

बिल्लू का बचपन

बिल्लू ने गद्दी से उतरकर पैडलों पर ज़ोर मारते हुए चढ़ाई पार कर ली.. अब सायकिल हलकी हो गई थी.. दो चार पैडल मारकर वह गद्दी पर सुस्ताने लगा.. सायकिल में गति आ गई थी वह चलती रही..पुल के नीचे से ट्रेन गु़जरने वाली थी.. बिल्लू आती हुई ट्रेन को बिल्लू देखने लगा.. ट्रेन को पुल के नीचे से गुज़रते देखना बिल्लू को पसन्द था.. इस से उसे अचानक बड़े होने का अजीब सा एहसास होता था.. ट्रेन जै्सी विशालकाय हस्ती से भी बड़ा.. तो इस अनुभव को फिर से अनुभव करने के लिये बिल्लू ने साइकिल के पैडल से अपना पाँव हलका कर लिया ताकि ढलान शुरु होने के पहले ट्रेन का गुज़रना हो जाय..

बिल्लू के कुछ दोस्त पुल के नीचे से गु़ज़रती ट्रेन के ऊपर थूक कर मज़ा लेते थे.. बिल्लू को इस खेल में कभी मज़ा नहीं आया.. ऐसा करने के खयाल से ही उसे लगता कि वह ट्रेन में बैठे लोगों के सर पर थूक रहा है.. और ये सोच कर ही उसे याद आता कि उसे बताया गया है कि लोगों पर थूकना अच्छी बात नहीं है और वो ऐसा करने से अपने आप को रोक लेता क्योंकि वो एक अच्छा लड़का बने रहना चाहता था..

ट्रेन ने पुल के नीचे पहुँचने से पहले एक लम्बी सीटी मारी और दो छोटी.. थोड़ी देर के लिये बिल्लू के कानों से टेम्पो का भड़-भड़ करता शोर डूब गया.. और सिर्फ़ ट्रेन की सीटी की कनकनी उसके कानों को देर तक छेदती रही.. बिल्लू को ये कनकनी अच्छी लगती थी.. वह मुस्कुराया और एक बार दूसरी तरफ़ से निकल्ती ट्रेन को देखकर पेडल पर अपना पैर दबा दिया.. अब उसकी सायकिल ढलान पर फ़िसलने लगी तेज़ी से.. बिल्लू को पुल पर चढ़ना पसन्द था क्योंकि उसे पुल की ढलान से सायकिल का यूँ फ़िसलना अच्छा लगता था .. जितनी देर सायकिल ढ़लान से फ़िसलती रहती बिल्लू के माथे पर पड़े रहने वाले बाल पीछे की ओर उड़ते रहते.. उसकी कमीज़ सामने शरीर से एकदम चपक जाती और पीठ की तरफ़ से हवा भरने से फूल जाती.. और कानों में हवा के फ़ड़फड़ाने की आवाज़ उसे देर तक भीतर से गुदगुदाती रहती..

बिल्लू को सायकिल मिले ज़्यादा दिन नहीं हुए हैं.. पहले ये सायकिल उसके भैया के पास थी पर जब से उसका दाखिला एक बड़े स्कूल में हुआ है.. पापा जी ने साइकिल भैया से लेके उसे दे दी है.. भैया को अब साइकिल की ज़रूरत नहीं.. ज़रूरत को बिल्लू को भी नहीं है.. उसकी दुनिया में कुछ भी ज़रूरत का ग़ुलाम नहीं.. वो जो करता है मन की उमंग से भरकर करता है.. इसलिये सायकिल उसके लिये स्कूल जल्दी पहुँचने का और स्कूल से जल्दी घर लौट आने का एक ज़रिया भर नहीं है.. बड़े लोगों को ऐसा लगता है कि बिल्लू स्कूल जाने के लिये सायकिल चला रहा है.. जबकि सच्चाई यह है कि बिल्लू सायकिल चलाने के लिये स्कूल जा रहा होता है..

जब बिल्लू के पास सायकिल नहीं थी और उसका स्कूल भी पास में था..तो बिल्लू पैदल स्कूल जाता था..स्कूल का बस्ता जो अभी कैरियर पर दबा रहता है तब कंधो पर बद्धियों से लटका रहता.. बिल्लू को बार बार ढीली बद्धियो की वजह से झूल जा रहे बस्ते को सँभालने के लिये हाथों से ऊपर खींचना पड़ता, और बार बार कंधे उचकाने पड़ते..लेकिन इस उलझन के बावजूद बिल्लू रास्ते भर चिड़ियों, कुत्तों और सड़क के किनारे पौधों की जड़ों के पास रेंगते कीड़ों को देखते सुनते हुए जाता.. कई बार तो ये जीव इतने मनमोहक होते कि बिल्लू भूल जाता कि वो स्कूल जाने के लिये निकला है..और देर तक यूँ ही घर से स्कूल तक की छोटी सी दूरी पर भटकता रहता..

तीन चार बार तो वो इतनी देर से स्कूल पहुँचा कि प्रार्थना हो गई, बच्चे स्कूल के मैदान से कक्षाओं के भीतर चले गये, पहले पीरियड का घंटा बज गया, टीचर ने पढ़ाना शुरु कर दिया और स्कूल का गेट भी बंद हो गया.. एक बार स्कूल का गेट बंद हो जाने पर वह सिर्फ़ पूरी छुट्टी के बाद ही खुलता था..आधी छुट्टी यानी कि इन्टरवल में भी नहीं..यहाँ तक कि कुछ टीचरों ने प्रधानाचार्य से सिफ़ारिश भी की कि बच्चो को इन्टरवल के समय स्कूल के बाहर खड़े ठेले वालों और फेरी वालों से गेट की पतली झिरी से सामान लेने में बहुत कचर मचर हो जाती है..स्कूल का गेट खोल देना चाहिये.. पर प्रधानाचार्य नहीं माने.. उन्हे स्कूली बच्चों के पढ़ाई के प्रति आस्था में आस्था नहीं थी.. उनका खयाल था कि जो बच्चे सुबह अपनी मरज़ी से खुद स्कूल की कक्षाओं में आकर बैठे हैं वो इन्टरवल के समय गेट खोल देने पर भरभरा कर भाग निकलेंगे.. और वो ऐसा नहीं चाहते थे..शायद उनका ऐसा सोचना सही भी था.. क्योंकि कुछ बच्चे इन्टरवल में और कुछ इन्टरवल के भी पहले स्कूल की ऊँची दीवार फाँद कर बाहर की दुनिया में शामिल हो जाते थे..

(आगे फिर.. )
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