मैं बनारस की ट्रेन बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में सवार था। खिड़की के बगल वाली सीट थी। ट्रेन लगभग खाली थी। आराम से सामने की सीट पर पैर टिकाकर अधलेटे होने में मन अवचेतन में विचरने लगा। बाहर के खेत-मेंड़, पेड़-पंछी देखते-देखते अचानक मन में विचार आया कि चश्मा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। फिर सोचा कि बैग से कैमरा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। जेब से मोबाइल निकाल कर उसे भी खिड़की के बाहर उछाल दूँ।
ऐसे विचारों के पीछे मेरे पास कोई कारण कोई तर्क नहीं था। मैं न तो क्षुब्ध, न क्रुद्ध और न अवसादग्रस्त। न किसी से झगड़ा न कोई मेरे ऊपर कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती। फिर भी मन अजीब दिशा में ठेल रहा था। मैं मनमानी करने वाला आदमी नहीं हूँ। इच्छाओं का दास तो बिलकुल नहीं। मन पर, विचारों पर तक कठोर नियंत्रण रखने वाला आदमी हूँ। मगर मन अभी स्वतन्त्र था। मेरी उस पर कोई रोक न थी। वो कह रहा था- चश्मा, मोबाइल, और कैमरा खिड़की के बाहर फेंक दूँ। न जाने क्यों?
कुछ दिन बाद बनारस में दरभंगा घाट के एक ऊँचे चबूतरे पर बैठ कर मन में आने लगा कि वहाँ से सीधे नीचे गंगा में कूद जाऊँ। बनारस आकर मैं आनन्द में हूँ। जीवन का अन्त करने का मेरा कोई विचार नहीं है। ऐसी प्रेरणा मुझे पहले भी हुई है। गंगटोक में एक बार सीधी घाटी में झाँकते एक मकान के छोर पर खड़े होकर जब मैंने अपने तलवों से लेकर घुटनों तक एक भयावह झुरझुरी और मस्तक तक दौड़ते खून को महसूस किया तो मैंने जाना कि मेरा शरीर ऊपर से नीचे तक अज्ञात में कूदने की भौतिक तैयारी कर चुका है।
इस अन्तः प्रेरणा के सम्बन्ध में मेरा एक विचार है। मेरा सोचना है कि यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हर किसी को ऊँचाई पर जाकर डर लगता है। क्योंकि हर एक के भीतर ऊँचाई पर जाकर नीचे छलांग लगाने की प्रेरणा जागती है। सिर्फ़ उसे डर नहीं लगता जो या तो छलांग लगा-लगा कर अज्ञात के डर के पार हो गया है या फिर उसे जो अपनी प्रवृत्तियों के पार हो गया है।
मल्लाहों के बच्चे इस प्रेरणा को सुनते हैं और छलांग लगा कर नदी को अपना दोस्त बना लेते हैं। हम जो छलांग नहीं लगाते, सारी उमर किनारे बैठकर इस अन्तः प्रेरणा को सुनते हैं और सुन-सुन कर डरते हैं। डर कर किनारे से थोड़ा और दूर हो जाते हैं।
अज्ञात में छलांग की प्रेरणा उठना हमारी स्वाभाविक वृत्ति है- यह सोचकर मैं घाट के चबूतरे से उठ गया। पास ही एक कुत्ता सो रहा था। मन में आया कि उसे एक लात लगाऊँ। पर मैंने अपने को रोक लिया। क्या आप जानते हैं कि मेरे भीतर कुत्तों का कितना डर है?