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मंगलवार, 28 अगस्त 2007

शरीर आराम कर रहा है..

जैनियों के यहाँ सूर्यास्त के बाद न खाने की परम्परा है। बहुत से हिन्दू साधु भी ऐसे ही नियम का पालन करते हैं। सत्यनारायण गोयनका के विपासना कोर्स में भी दिन का आखिरी खाना शाम पाँच बजे दे दिया जाता है। मुम्बई के योग संस्थान में भी शाम का खाना हल्का रखने और जल्दी से जल्दी करने की सलाह दी जाती है। ये एक परम्परागत ज्ञान है जिसे सभी पंथ/ मत के लोग अंगीकार किए हुए हैं। गाँव-देहात में भी जल्दी खा के जल्दी सोने की परिपाटी पुरातन काल से चली आ रही है। मगर शहरी जीवन ने इस मूल्य को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया है।

हम शाम के वक्त समोसा, चाट, वड़ापाव, बर्गर वगैरा खाते हैं, और उसके बाद भी आखिरी खाने का अवसर बचा रहता है। जो रात को नौ, दस, ग्यारह बजे तक सम्पन्न होता है। मेरे कुछ मित्र अपना ये सुप्रतीक्षित आहार रात के एक दो बजे भी कर के तृप्त होते हैं।

वैसे आयुर्वेद के अनुसार भोजन को पचाने में सहयोगी तत्व पित्त मध्य-दिवस और मध्य-रात्रि में ही प्रबल होता है। उस दृष्टिकोण से मध्य-रात्रि भोजन करने का सबसे उचित समय ही तो हुआ। मगर उस से दूसरी जटिलताएं पैदा होती हैं।

इस तरह के खाने के तुरन्त बाद व्यक्ति क्या करेगा; सो जाएगा या दो अढ़ाई घंटे और जागता रहेगा? अगर जागता रहेगा तो खाया हुआ खाना तो पच जाएगा मगर चार बजे सोकर अगले रोज़ दस बजे के बाद ही उठेगा। तो इस तरह से दिन की शुरुआत में पित्त प्रबल होगा और वात मन्द। मल की निकासी ठीक ढँग से नहीं हो सकेगी और शरीर में विकार जन्म लेगा। और पूरे शरीर का पाचन-चक्र बिगड़ जाएगा। और लम्बे समय तक इसी तरह चलते रहने पर शरीर में गम्भीर रोग उत्पन्न हो जाएंगे।

अगर व्यक्ति उपरोक्त मध्यरात्रि के भोजन के बाद तुरंत सो जाता है तो और भी मुश्किल है। एक तो खाये हुए भोजन का पाचन सही तरह से नहीं हो सकेगा। दूसरे शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाने के पाचन में लग जाने के कारण, नींद अच्छी नहीं आएगी। और सोकर उठने के बाद भी व्यक्ति को भारीपन लगता रहेगा।


कुछ लोग तो नींद को बेहोशी के सिवा कुछ नहीं मानते इसलिए हमेशा दारू पीकर छाई बेहोशी को ही नींद का पर्याय मानते रहे हैं। मेरा खयाल है कि ऐसे लोग बेहोशी के अँधेरे में ही नहीं, शुद्ध जहालत के अँधेरे में भी हैं। थोड़ी बुरी लगने वाली बात कह दी है, माफ़ कीजियेगा। इस अँधेरे में रहने और अपनी हानि करने का आप को पूरा हक़ है। मगर जानकर करें, अज्ञानता में क्यों?

नींद के वक्त लोग सोचते हैं कि शरीर आराम कर रहा है। क्या सचमुच? एक नज़रिया यह कहता है कि व्यक्ति आराम कर रहा है मगर शरीर काम कर रहा है। नई कोशिकाएं जन्म ले रही हैं, जो बीमार हैं, टूट-फूट गई हैं उनका इलाज हो रहा है। असल में तो जागते हुए शरीर आराम कर रहा है.. हल्की फुल्की गतिविधि कर रहा है। मगर 'सोते हुए' उसका काम इतना ज़्यादा है कि उसे दूसरे एप्लीकेशन्स शट-डाउन करने पड़ते हैं। इसीलिए बच्चा सोता है बीस-बीस घंटे। उसके पास बहुत काम है, बहुत तेज़ी से और बहुत सारा विकास करना है। जैसे-जैसे बचपन छूटता जाता है, नींद के घंटे कम होते जाते हैं। शरीर का विकास धीमा पड़ता जाता है, और एक मकाम पर आकर एकदम रुक जाता है।

मगर फिर भी नींद की ज़रूरत पड़ती रहती है। क्योंकि शरीर जीवित है और तमाम क़िस्म के बाहरी आक्रमण और भीतरी कमज़ोरियों का इलाज वह खुद करता है। ये लोगों की भ्रांति है कि दवाईयाँ कोई इलाज करती हैं। दवाईयाँ सिर्फ़ आपूर्ति करती हैं। शेष सारा काम शरीर स्वयं करता है। अतिवृद्ध हो जाने पर नींद आनी बंद हो जाती है- शरीर धीरे-धीरे जवाब दे रहा होता है; नई कोशिकाएँ बनना बंद हो जाती हैं, पुरानी की टूट-फूट की मरम्मत भी ठप पड़ जाती है।

इसलिए देर से खाकर तुरंत सोने पर नींद का बड़ा भाग और शरीर की अधिकतर ऊर्जा खाना पचाने में चली जाएगीऔर जागने पर भी एक नई सुबह का एहसास नहीं होगा। क्योंकि टूट-फूट की मरम्मत का काम नहीं हो पाया। अगर ऐसी ही दिनचर्या चलती रही तो वो कब होगा? वो मुल्तवी पड़ा रहेगा। और फिर धीरे धीरे एक गम्भीर रोग के रूप में विकसित हो जाएगा।

देर से खाने और भारी खाने से कितने नुकसान हैं, देखिए.. मेरा खयाल है कि यही कुछ कारण रहे होंगे जिसकी वजह से लगभग सभी पुरातनपंथी रात के खाने को जल्दी और हल्का रखने की कोशिश करते हैं।

कभी कभी इस तरह उपदेशात्मक लिखने का अधिकार मैंने सुरक्षित रख छोड़ा है..प्लीज़ एडजस्ट!


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