
मगर दूसरी तरफ़ विरोध करने वालों पर भी नज़र डाल ली जाय। एक तरफ़ सीपीआई और सीपीएम हैं। जिनकी राजनैतिक बुद्धि की जितनी 'तारीफ़' की जाय कम है। सीपीएम चीन के आक्रमण के मुद्दे पर सीपीआई से टूट कर अलग हो गई थी। उन्हे चीन का पक्ष सही लगा था। आज कश्मीर में आज़ादी के सवाल पर चिंता व्यक्त करने वाले कैसे तिब्बत की आज़ादी के प्रति संवेदना नहीं रख पाए? (अक्साई चिन पर उनका दावा तिब्बत पर उनका दावा सिद्ध होने के बाद ही सिद्ध होगा।) और सीपीआई ने अपनी स्वतंत्र राजनैतिक सोच का परिचय तब दिया, जब पूरा देश तानाशाही का विरोध करते हुए इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी के खिलाफ़ गोलबंद हो गया था। तो इस दल ने श्रीमती गाँधी का दमनकारी हाथ मज़बूत करने का निर्णय लिया था।

रह गई भाजपा, उस की बात न ही की जाय तो ठीक होगा। वे कब क्या कहेंगे और कब उसी से उलट जायेंगे कुछ तय नहीं। बस एक चीज़ से नहीं उलटते- अपने सतत मुसलमान-विरोध से। पिछले चुनाव में उस से भी उलटने का एक प्रयास दर्शाया था। धड़ाधड़ मुस्लिम सम्मेलन और आरिफ़ मोहम्मद खान तक को पकड़ लिया था। मगर हारकर अपनी पुरानी नीति पर लौट आए। तो उनके इस विरोध को गम्भीरता से न लिया जाय। ये माना जाय कि अगर सरकार गिर गई और खुदा न खास्ता उनके हाथ सत्ता लग गई। तो वे इसी समझौते को ससम्मान लागू करेंगे।
पत्रकारों, विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों में से किसी को भी अपने आप में मैं भरोसे के काबिल नहीं समझता? कौन किस स्वार्थ से बोल रहा है आप कैसे जानते हैं? क्या सचमुच सागरिका घोष को देश के हित की चिंता है या उन्हे और राजदीप को अपने सी एन एन वाले साझेदारों/ मालिकों की चिंता की चिंता है? रात को सोते समय उनके मानस पर अपनी घटती-बढ़ती टी आर पी का ग्राफ होता है या देश की ऊर्जा ज़रूरतों में नाभिकीय दखल की तार्किक ऊहापोह? इसलिए अपनी एक स्वतंत्र समझ न विकसित कर पाने और किसी दूसरे के मत पर भी विश्वास न धर पाने की सूरत में हम अपने आप को एकदम असहाय पा रहे हैं। हमें नहीं मालूम कि सही पक्ष क्या है।
तो हे प्रभु अब तुम ही सँभालना इस देश की नैय्या। एक पहलू और है जिसके बारे में ज़्यादा बात नहीं हो रही है, सुरक्षा का। इस देश के तीन बड़े गाँधियों की तो सुरक्षा कर नहीं पाए, इस संवेदनशील तत्व की लम्बे समय तक सुरक्षा कैसे होगी। यह सवाल भी रह-रह कर परेशान करता है। चेर्नोबिल अफ़्रीका के किसी देश में नहीं हुआ था। हे राम जी.. तुम्हारा ही सहारा है।
