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मंगलवार, 22 जुलाई 2008

हिन्दू और हिंसा

संत श्री आसाराम बापू की ग्रह-दशा ठीक नहीं चल रही है। कल के दिन जबकि पूरा देश संसद के मैच में फंसा हुआ था, ग़ुस्साए लोगों की भीड़ ने उनके अहमदाबाद आश्रम में घुसकर तोड़-फोड़ कर डाली। उसके कुछ रो़ज़ पहले उनके चेलों ने मीडिया के लोगों पर एक अप्रत्याशित हमला कर के पूरे देश को चौंका डाला। कहा ये भी जा रहा है कि उस हमले का आदेश स्वयं संत श्री आसाराम जी ने दिया था। हैरत की बात है कि कोई हिंदू संत ऐसा हिंसात्मक क़दम उठाने के बारे में सोच भी कैसे सका? वो भी गाँधी के गुजरात से?

पर मित्रों इसमें कोई हैरत की बात नहीं। मगर अफ़सोस की बात ये है कि हम पहले तो पढ़ते नहीं, पढ़ते हैं तो और बहुत कुछ पढ़ते है पर इतिहास नहीं पढ़ते और यदि इतिहास भी पढ़ते हैं तो ऐसा इतिहास पढ़ते हैं जो तथ्यों और साक्ष्यों पर नहीं बल्कि क्लेशों, कुण्ठाओं और कोरी कल्पनाओं पर आधारित है।

हमारे भारत देश में साधु और शस्त्र का बड़ा लम्बा नाता रहा है। वैदिक काल में ऋचाएं रचने वाले ऋषिगण सरस्वती के किनारे लेटकर गाय चराते हुए सिर्फ़ ऊषा और पूषा की ही वन्दना नहीं करते थे। बड़ी मात्रा में वैदिक सूक्त इन्द्र के हिंसा-स्तवन में रचे गए हैं। बाद के दौर में हमारे ब्राह्मण-पूर्वज हाथ में परशु लेकर बलिवेदी पर पशुओं का रक्तपात करते रहे हैं। परशु की चर्चा आते ही परशुराम को कौन भूल सकता है जो इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-शून्य कर गए थे।

तर्क ये दिया जाता है कि साधु अक्सर ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण चूंकि पठन-पाठन का काम करता है इसलिए उसका सम्बन्ध शस्त्र से नहीं शास्त्र से रहता है। और अपनी रक्षा का भार भी उसने क्षत्रिय पर छोड़ रखा है। पर ये बात भी एक खोखले सूक्त से ज़्यादा कुछ नहीं है। बौद्ध धर्म के उत्थान के बाद पुष्यमित्र शुंग के काल में पूरे भारत वर्ष में ब्राह्मण धर्म की हिंसात्मक पुनर्स्थापना हुई। पुष्यमित्र स्वयं ब्राह्मण था, और उसके अलावा पूर्व में खारवेल और दक्षिण में सातवाहन भी ब्राह्मण थे जो तलवार हाथ में लेकर ही सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे।(१) तो पहली बात तो ये कि ब्राह्मण अक्सर साधु नहीं होता और साधु अक्सर ब्राह्मण नहीं होता।

प्राचीन काल से ही पहले हमारे यहाँ वैष्णव और शैव एक दूसरे के खिलाफ़ बराबर पाला बाँधते आए हैं। शंकराचार्य ने, न सिर्फ़ वैदिक धर्म और बौद्ध धर्म को एकसार करने की कोशिश की बल्कि वैष्णव, शैव और शाक्त धर्म को भी एक करने के लिए किसी देवी-देवता को न छोड़ा.. सब की स्तुति कर डाली। एक तरफ़ उन्होने अद्वैत वेदान्त जैसा दर्शन प्रतिपादित किया और दूसरी तरफ़ सौन्दर्यलहरी जैसा शुद्ध तंत्र का ग्रंथ भी रचा।

लेकिन उन की इन तमाम कोशिशों के बावजूद शैव और वैष्णव का भेद समाज में व्यापक तौर पर व्याप्त रहा। और इसीलिए तुलसीदास को भी वाल्मीकि रामायण से अलग जाकर अपने रामचरितमानस में राम और शिव का एक पारस्परिक श्रद्धा का सम्बन्ध बनाना पड़ा। शिव जहाँ राम के भक्त है वहीं राम लंका पर आक्रमण करने के पहले सागरतट पर शिवलिंग बनाकर उसकी अर्चना करते हैं।

ये सब इशारे हैं समाज में व्याप्त उस वैष्णव-शैव संघर्ष की तरफ़ जो बहुधा शांतिपूर्ण नहीं हो्ते थे। कमलहासन की अभी हाल की फ़िल्म दशावतारम में ऐसे ही एक वैष्णव-शैव संघर्ष का उल्लेख है। मध्यकाल में भारत में आने वाले अनेक योरोपीय यायावरों ने इन साधुओं के प्रति अपने अचरज को कलमबद्ध किया है।

मिसाल के तौर पर इटैलियन घुमन्तु लुदोविको दि वरथेमा ने १५०३ और १५०८ के बीच कभी अपनी भारत यात्रा के दौरान सूरत के एक इयोघी/ जिओघी (योगी/जोगी) का उल्लेख किया है जो गुजरात के सुल्तान महमूद के साथ निरन्तर युद्ध में लिप्त था। ये जियोघी हर कुछ साल पर पूरे भारत के दौरे पर निकलता, अपने तीन-चार हज़ार की चेलों की पलटन और ‘बीबी-बच्चों’ समेत। (२)

इस साधु की युद्धनीति में कोई मित्र हिन्दू-मुस्लिम कोण से नज़र न डाले तो बेहतर होगा क्योंकि इन्ही वरथेमा साहब को मलाबार में एक अन्य योगी-राजा के दर्शन हुए। कालीकट में दो इटैलियन सौदागर का स्थानीय मुस्लिम सौदागरों से कोई आर्थिक विवाद हो गया था। जिसके नतीजे में कालीकट के काज़ी ने बजाय खुद कोई सैनिक कार्रवाई करने के एक योगी-राजा से सम्पर्क किया जो कालीकट में अपने तीन हज़ार चेलों के साथ डेरा डाले हुए थे। शीघ्र ही दो सौ योगियों की एक सेना ने एक संक्षिप्त युद्ध के बाद इन इटैलियन सौदागरों का प्राणान्त कर दिया। (३)

वरथेमा ने जो वर्णन किया है उस से लगता है कि ये योगी शैव थे। मगर वैष्णव नितान्त अहिंसक थे ऐसा समझ लेना फिर एक भूल होगी। जयपुर के बालानन्द मठ के पास १६९२-९३ में जारी औरंगज़ेब का एक फ़रमान है जिसके तहत इन वैष्णव रामानन्दियों को अपने पैदल और घुड़सवार सेना और आगे चलने वाले नगाड़ों समेत पूरी सल्तनत में कहीं भी आने-जाने की इजाज़त दी गई है। (४) इस एक फ़रमान से हमें कितनी सारी सूचनाएं मिलती हैं और हमारे कितने भ्रमों पर से धुँआ छँट जाता है.. ज़रा सोचिये।

अबुल फ़ज़्ल के अकबरनामा में १५६७ में थानेसर में हुए एक छोटे से युद्ध का उल्लेख है जो दो शैव सम्प्रदायों के बीच में आपस में लड़ा गया.. मुद्दा सिर्फ़ ये था कि एक खास घाट पर कौन नहायेगा?(५) इस झगड़े का ज़िक्र उस वक़्त के तमाम दूसरे ऐतिहासिक ग्रंथों में भी मिलता है। उस युद्ध के बाद से नागा सन्यासी बराबर मुग़ल सेना के लिए काम करते रहे।

अठारहवीं सदी का पूरा इतिहास हिम्मत बहादुर नाम के सेनानी के कारनामों से रंगा हुआ है। ये व्यक्ति जिसका असली नाम अनूपगिरि गोसाईं था.. १७५१ से १८०४ तक लड़ी गई लगभग सभी मुख्य लड़ाईयों में अनूपगिरि मौजूद था। यहाँ तक कि १७६१ के पानीपत के तीसरे युद्ध में जहाँ अहमद शाह अब्दाली ने भाऊ की सेना को रौंद डाला.. वहाँ पर भी अनूपगिरि के पाँच हज़ार लड़ाके अबदाली की तरफ़ से मराठों से लड़े(६) बावजूद इसके कि चार बरस पहले १७५७ में अब्दाली ने मथुरा में क़त्लेआम के साथ-साथ जम के बुतशिकनी की थी। और तब गोसाईंयों और अफ़्गानो के बीच युद्ध में दोनों तरफ़ से दो-दो हज़ार लाशें गिरी थीं। (७)

और सन्यासी विद्रोह को भी याद कर लिया जाय। उसी विद्रोह पर आधारित कर के ही तो बंकिम बाबू ने अपनी अमर कृति आनन्दमठ की रचना की। वही आनन्दमठ जिसके गीत वन्दे मातरम को लेकर आज भी मुसलमानों पर हमला जारी है। बंकिम बाबू के सन्यासी विद्रोह और १७७३ के बाद से तीस साल तक चले असली 'सन्यासी और फ़कीर विद्रोह' के बीच बड़े अंतर थे मगर इस पर कभी अलग से चर्चा करूँगा।

अभी तो बस इतना ही कि गाँधी की अहिंसा किसी भी कोण से 'हिन्दू' नहीं है वो जैन है.. 'हिन्दू' साधु का अहिंसा से दूर-दूर तक रिश्ता नहीं रहा, कभी नहीं। क्या आप किसी ऐसे 'हिन्दू' देवता को पहचानते हैं जो अस्त्र/शस्त्र धारण नहीं करते? सरस्वती जैसी एकाध देवी आप को मिल भी जायँ तो भी वे अपवाद ही रहेंगी।

(१) भगवत शरण उपाध्याय, खून के छींटे इतिहास के पन्ने पर, पृष्ठ ३७
(२) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६२
(३) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ६३
(४) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ७२
(५) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ २८-२९
(६) जदु नाथ सरकार, दि फ़ाल ऑफ़ मुग़ल एम्पायर वाल्यूम २, पृष्ठ ७१
(७) विलियम आर. पिंच, वॉरियर एसेटिक एंड इंडियन एम्पायर्स, पृष्ठ ११२
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