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शनिवार, 20 मार्च 2010

एल एस डी नहीं सच की गोली

फ़िल्म का नाम सचमुच वहमाना है। एल एस डी जो सच्चाई से दूर एक सपनीली दुनिया में तैराने की एक गोली हुआ करती थी, यह फ़िल्म आज के इण्डिया की वो सच्ची तस्वीर है जिसमें बुरक़े पहन कर जवान मुस्लिम लड़कियां ‘लव सेक्स और धोख़ा’ देखने चली आतीं है। सिनेमा हॉल में नौजवान लड़कों के गिरोह, लड़कियों के गिरोह, दर्ज़न भर जवान जोड़ों के बीच दो गिरोह बुरक़े बन्द लड़कियों के भी थे जो पूरी फ़िल्म में सेक्स के सारे सन्दर्भों पर खिलखिलाते रहे।

फ़िल्म में तीन अलग-अलग कहानियां है, तीनों में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के बीच में कैमरा है और सेक्स। फिर भी ये फ़िल्म वायरिज़्म के बारे में नहीं है। मानव मन के उस पहलू की कोई अलग से पड़ताल इसमें नहीं की गई है। कहा जा सकता है कि उनका सेक्स और कैमरे से सम्बन्धित होना एक संयोग है या आज के समय की एक दी हुई सच्चाई है जिसे दर्शाने में दिबाकर बैनरजी ने कोई चूक नहीं की है।

पिछले कुछ बरसों में इन्डियन सोसायटी में आए बदलावों के सेक्चुअल पहलू को ‘लव सेक्स और धोख़ा’ बख़ूबी पेश करने में कामयाब हैं। जैसा कि फ़िल्म दावा करती है बीच-बीच में धोख़ा होने लगता है कि आप फ़िल्म नहीं रिएलटी टी वी देख रहे हैं। सारे चरित्र दमबदम ज़िन्दा और तमाम जटिलताओं को समोये हुए हैं। अख़रने वाला प्रसंग सिर्फ़ एक है जब फ़िल्म के अंत के एक छोटे से सीन में आदर्श नाम का चरित्र अचानक अपनी किरदार की हदों से बाहर जा कर बड़ा विटी और कूल बन जाता है।

एल एस डी हिन्दी फ़िल्म इतिहास में एक अनोखा प्रयोग है मगर अफ़सोस! 'ओय लकी, लकी ओय' में दिबाकर ने मनोरंजक बने रहते हुए ही दिल्ली के समाज की जो परतें उघाड़ी थीं, यहाँ वो परतें तो हैं लेकिन फ़िल्म बोझिल सी है। पहली कहानी तो इतनी उबाऊ है कि आप को थिएटर छोड़ कर भागने की इच्छा करने लगती है। अलबत्ता फ़िल्म छोड़ कर भागा कोई नहीं क्योंकि शायद सभी दर्शक दिबाकर से किसी ओय लकी जैसे जादू की उम्मीद कर रहे थे। जादू नहीं होता, मगर हाँ फ़िल्म अपने अंजाम के क़रीब जाकर काफ़ी संगठित बन जाती हैऔर दिलचस्प भी। फ़िल्म के दो गानों में जो ऊर्जा है वह फ़िल्म में नहीं दिखती, इस अर्थ में फ़िल्म दुबारा वहमाना है।

इस प्रयोग के मेरी उम्मीदों पर पूरी तरह खरे न उतरने के बावजूद दिबाकर बैनरजी की प्रतिभा पर मेरे विश्वास को ज़रा ठेस नहीं पहुँची है।
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