पिछले कुछ बरसों में इन्डियन सोसायटी में आए बदलावों के सेक्चुअल पहलू को ‘लव सेक्स और धोख़ा’ बख़ूबी पेश करने में कामयाब हैं। जैसा कि फ़िल्म दावा करती है बीच-बीच में धोख़ा होने लगता है कि आप फ़िल्म नहीं रिएलटी टी वी देख रहे हैं। सारे चरित्र दमबदम ज़िन्दा और तमाम जटिलताओं को समोये हुए हैं। अख़रने वाला प्रसंग सिर्फ़ एक है जब फ़िल्म के अंत के एक छोटे से सीन में आदर्श नाम का चरित्र अचानक अपनी किरदार की हदों से बाहर जा कर बड़ा विटी और कूल बन जाता है।
एल एस डी हिन्दी फ़िल्म इतिहास में एक अनोखा प्रयोग है मगर अफ़सोस! 'ओय लकी, लकी ओय' में दिबाकर ने मनोरंजक बने रहते हुए ही दिल्ली के समाज की जो परतें उघाड़ी थीं, यहाँ वो परतें तो हैं लेकिन फ़िल्म बोझिल सी है। पहली कहानी तो इतनी उबाऊ है कि आप को थिएटर छोड़ कर भागने की इच्छा करने लगती है। अलबत्ता फ़िल्म छोड़ कर भागा कोई नहीं क्योंकि शायद सभी दर्शक दिबाकर से किसी ओय लकी जैसे जादू की उम्मीद कर रहे थे। जादू नहीं होता, मगर हाँ फ़िल्म अपने अंजाम के क़रीब जाकर काफ़ी संगठित बन जाती हैऔर दिलचस्प भी। फ़िल्म के दो गानों में जो ऊर्जा है वह फ़िल्म में नहीं दिखती, इस अर्थ में फ़िल्म दुबारा वहमाना है।
इस प्रयोग के मेरी उम्मीदों पर पूरी तरह खरे न उतरने के बावजूद दिबाकर बैनरजी की प्रतिभा पर मेरे विश्वास को ज़रा ठेस नहीं पहुँची है।