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शनिवार, 19 जनवरी 2008

एक टन का चूहा

पिछले दिनों प्रमोद भाई ने स्वीकारा कि वे चूहे से कितना घबराते हैं और फिर प्रत्यक्षा जी ने भी चूहे को लेकर एक अजीब भय और जुगुप्सा की चर्चा की अपने लेखन में। चूहे के सामने आने पर मैं भी अपने और उसके सापेक्षिक आकार के प्रति कोई विवेक बरत पाता हूँ, ऐसा नहीं है।

और चूहे के अलावा छिपकली और तिलचट्टे के सामने आते ही अच्छे-अच्छों की हालत जवाब देने लगती है। क्यों? प्रमोद भाई के बलिष्ठ शरीर और चूहे के चूहेपन का कोई मुक़ाबला है; एक पैर जमा के रख दिया तो टें बोल जाएगा मगर नहीं.. अपने ही पसीने छूट जाते हैं।

कल्पना कीजिये कि अगर यही चूहे किलो भर के नहीं टन भर के हों तो हमारा क्या हाल होगा? वैसे अब कल्पना करने की ज़रूरत नहीं.. वैज्ञानिकों को उरुग्वे में ऐसे चूहे (रोडेन्ट) के बीस लाख साल पुराने जीवाश्म मिले हैं जिसका अकेले सिर ही लगभग दो फ़ुट का था। और उसका कुल भार १००० किलो तक आँका जा रहा है। राहत की बात यह है कि उसके दाँत बताते हैं कि वह फल-सब्ज़ी खाने वाला प्राणी था।

आज शाकाहारी महाचूहे का जीवाश्म मिला है कल मांसाहारी चूहे के जीवाश्म मिल सकते हैं! जीवाश्म मिलना उनके अस्तित्व को सिद्ध करता है पर न मिलना यह सिद्ध नहीं करता कि अस्तित्व नहीं था।

प्रमोद भाई ने मुझे बताया है कि उनकी कल्पनाओं के चूहे बिल्ली और कुत्ते के आकार के हैं! आप जानते हैं कि पहले चीनियों की ड्रैगन की लोक-कथाओं को कोरी कल्पना समझा जाता था.. जब जीवाश्म मिलने शुरु हुए तो उनकी लोक-स्मृति की जड़ें वास्तविकता में धँसी थी, सभी ने स्वीकार लिया। तो क्या हमारा भी ये डर अवचेतन में दबी हुई कोई प्रजातीय-स्मृति है?
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