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शुक्रवार, 6 मार्च 2009

चश्मा अमर है.. नज़र दफ़न हो गई

महात्मा गाँधी का चश्मा नीलाम हो रहा था। तमाम लोग बड़ी-बड़ी बोलियाँ लगाने को तैयार थे। चुनाव के मुहाने पर खड़ी कांग्रेस पार्टी भी बापू के चश्मे को पा लेने की क़समें खा रही थी।

आज प्रसिद्ध उत्सवधर्मी और शराब व्यापारी विजय माल्या ने गाँधी जी का चश्मा सबसे ऊँची बोली लगा के खरीद लिया है। तक़रीबन १.८ मिलियन डॉलर्स। कांग्रेस पार्टी इस घटना पर गदगद है।

बापू की आत्मा आज धन्य हो गई होगी!

चश्मा अमर है, नज़र दफ़न हो गई।

गुरुवार, 23 अगस्त 2007

सभ्यता की निशानियाँ

आजकल गाँधीजी की पुस्तक 'हिन्द स्वराज' पढ़ रहा हूँ। सृजन शिल्पी ने अपने लेख में इस किताब के एक अंश का उद्धरण दिया था। उसे देखने के बाद किताब पढ़ने की इच्छा हुई, और दूसरे ही रोज़ मेरे वरिष्ठ मित्र कमल स्वरूप के यहाँ एक साथ दो-दो प्रतियाँ दृष्टिगोचर हुईं। स्वाभाविक रूप से एक साधिकार अधिग्रहीत कर ली गई। कुछ दिलचस्प बातें पढ़ने को मिल रही हैं। यूरोपीय सभ्यता के बारे में गाँधी जी लिखते हैं

इस सभ्यता की सही पहचान तो यह है कि लोग बाहरी दुनिया की खोजों में और शरीर के सुख में धन्यता---सार्थकता और पुरुषार्थ मानते हैं। इसकी कुछ मिसालें लें। सौ साल पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे उनसे ज़्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं; यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इसमें शरीर सुख की बात है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और भालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे लम्बे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह-तरह के कपड़े बनवाते हैं; और भाले के बदले एक के बाद एक पाँच गोलियाँ छोड़ सके ऐसी चक्करवाली बन्दूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है।

..पहले लोग जब लड़ना चाहते थे तो एक-दूसरे का शरीर-बल आजमाते थे। आज तो तोप के एक गोले से हजारों जानें ली जा सकती हैं। यह सभ्यता की निशानी है। पहले लोग खुली हवा में अपने को ठीक लगे उतना काम स्वतंत्रता से करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुजारे के लिए इकट्ठा हो कर बड़े कारखानों में काम करते हैं। उनकी हालत जानवर से भी बदतर हो गई है। उन्हे सीसे वगैरा के कारखाने में जान को जोखिम में डालकर काम करना पड़ता है। इसका लाभ पैसेदार लोगों को मिलता है। पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था; आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच दे कर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आजकल लोगों में पैदा हो गए हैं और उसके साथ डॉक्टर खोज करने लगे हैं कि इन्हे कैसे मिटाए जाएँ। ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है।..

..शरीर का सुख कैसे मिले यही आज की सभ्यता ढू़ढ़ती है; और वही देने की कोशिश करती है। परंतु वह सुख भी नहीं मिल पाता।..

..यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज धर के बैठे रहेंगे, तो सभ्यता की चपेट में आए हुए लोग खुद की जलाई हुई आग में जल मरेंगे। पैग़म्बर मोहम्मद साहब की सीख के मुताबिक यह शैतानी सभ्यता है। हिन्दू धर्म इसे निरा कलजुग कहता है।


ये विचार गाँधी जी ने चालीस वर्ष की वय में १९०९ में लिखे और कुछ लोगों की इस कल्पना के बावजूद कि शायद वे इसमें कुछ संशोधन करना चाहेंगे, वे अंत तक इन विचारों पर क़ायम रहे। इन्ही विचारों के आधार पर अपना पूरा जीवन जिया और उसकी शिक्षा भी देते रहे। एक-आध अपवाद को छोड़ दें तो इस देश में और बाहर के देशों में भी, गाँधी जी के विचार और उन पर आधारित उनका जीवन सभी को, गहरे तौर पर प्रभावित करता रहा है। पूरा देश उन्हे बापू यूँ ही तो नहीं कहने लगा था।

तो फिर हमारा देश, हमारा समाज गाँधी जी के इन विचारों को नज़र-अन्दाज़ करके ऐसा क्यों बन गया जैसा कि यह अब है? नेहरू जी लोकप्रियता में गाँधी जी के कहीं अगल-बगल भी नहीं ठहरते होंगे, तो फिर कैसे वे 'हमारे भारत' को 'अपने सपनों के भारत' में ढालते चले गए? गाँधी जी पर इतनी श्रद्धा के बावजूद आज उनके विचार का कोई पुछवैया कहीं क्यों नहीं दिखता? अगर गाँधी जी इतना अच्छा-अच्छा सोचने और उस सोच का जीवंत उदाहरण बनने के बावजूद इस दुनिया को नहीं बदल पाए, तो फिर कैसे बदलती है दुनिया?


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