घाट पर मुझे कुछ मुसलमान भी दिखाई दिए। अपने सफ़ेद कुर्ते, टखने के ऊपर पैजामे और नमाज़ी टोपी पहने हुए। दाढ़ी करीने से कटी हुई। मोटे तौर पर एक साफ़-सुथरा रूप। मुझे जिज्ञासा हुई कि मुसलमानी इलाक़ो का हाल कैसा होगा। मैं और मेजर दोनों मदनपुरा से होकर रेवडी बाज़ार की गलियों में घुस गए। गलियाँ वैसी ही संकरी और अंधेरी थी। ज़्यादातर मर्द दाढ़ी, और औरतें बुरक़े के पैरहन में क़ैद थे। गलियों में यहाँ भी थोड़े-थोड़े अन्तराल पर कूड़े के ढेर नमूदार हो रहे थे। दुकाने अलग क़िसम की थी। लेकिन शुचिता में कोई खास अन्तर नहीं मिला और न ही भाषा में। औरतें भी रहल-गयल कर रही थीं।
मुझे ऐसा लगा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों शुचिता को अपने-अपने निजी नियम तक सीमित कर के ही देख रहे हैं। सामाजिक शुचिता का किसी के पास कोई दृष्टिकोण नहीं है। कहीं-कहीं तो यह मन्दिर-मस्जिद तक महदूद है और कहीं-कहीं वहाँ भी नहीं मिलती। प्राचीनता के नाम पर जो ढोया जा रहा है, वहाँ नहीं है, लेकिन आधुनिक संरचनाओं में है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भीतर स्थित भव्य विश्वनाथ मन्दिर में है। और रेवड़ी बाज़ार के अंत पर स्थित अल्जामिया अलतु्स्सलफ़िया में भी है जिस की खूबसूरत इमारत देखकर भीतर जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। और जहाँ गेरुआ गमछा गले में डाल कर और अपना नाम पता उर्दू में लिखकर मैं ने चौकीदार को थोड़ा चौंकाया और अपनी इस नाटकीयता पर प्रसन्न रहा।

बनारस के घाटों का वर्तमान रूप बहुत पुराना नहीं हैं। कहते हैं कि मुगल काल और उसके बाद ही सारे घाटों को आधुनिक शक्ल मिली। साफ़ देखा भी जा सकता है। घाटों की सीढियों और मन्दिरों के लाल- भूरे पत्त्थर पर इसी मुगल-राजपूत शैली का प्रभाव है। लेकिन काशी और उसकी संस्कृति का अस्तित्व तो बहुत प्राचीन है। हज़ारों सालों की ग्रामीण सभ्यता का संस्कार रहा है – खुले मैदान में , नदियों के किनारे तक में निबटना, कहीं भी थूक देना और मूत्र विसर्जित करना। यहाँ तक कि इनका रोकना स्वास्थ्य के विरुद्ध माना जाता है।
ग्रामीण सभ्यता जिसमें कि आप कभी भी खेत, मैदान और जंगल से बहुत दूर नहीं होते, इस स्वास्थ्य सम्बन्धी संस्कार का पालन कोई कठिन नहीं और शालीनता के विरुद्ध भी नहीं। लेकिन शहरी समाज एक अलग संस्कार की माँग करता है। घाट का पत्थर मिट्टी की तरह मल, मूत्र, थूक को जज़्ब कर के फिर से एकरस नहीं बन जाता। ये बात हम ही नहीं वे भी समझते हैं जो घाट पर बैठ कर हगते हैं। लेकिन उसका विकल्प क्या है। कहाँ घाटो के आस-पास बसी सघन आबादी के लिए सार्वजनिक शौचालय?
इस वर्ष को सार्थक करने के लिए जन्माष्टमी तक भी वर्षा नहीं हुई है। पारम्परिक ज्ञान बताता है कि जिस काली अँधियारी मूसलाधार बारिश की रात में कृष्ण जी का अवतरण हुआ था, हर बरस उस रात बरखा ज़रूर होती है। आसाढ़ गया, सावन भी गया, भादों भी सूखा निकला ज़ा रहा था, भगवान ने ज्ञानियों की लाज रख ली, जन्माष्टमी के दिन से ही बारिश शुरु हो गई।
अगले दिन घाट पर गंगा का स्तर देखकर मुझे लगा कि कल की बर्षा के बाद कुछ बढ़ोत्तरी हुई है। मैंने एक पण्डे से यही कहा तो बोले कि पानी एक सीढ़ी उतर गया है। अभी आप खड़े रहिये तो जिस पत्थर पर लहर आती दिख रही है, एक ही घण्टे में एक इंच उतर जाएगी। मैं इस विरोधाभास पर हैरान हुआ मगर गंगा के जल को देखता हुआ आगे बढ़ गया।
एक मल्लाह ने पूछा कि नौका लेंगे। अपनी रजा बताने के बाद मैंने कहा कि पानी घट रहा है। जैसे मैंने उसकी दुखती रग़ पर हाथ रख दिया हो। “भगवान जाने क्या होगा। पानी घटता ही जा रहा है। गंगा जी रहेंगी या नहीं अब तो यही प्रश्न खड़ा हो गया है।”...वैसे ये बात सभी जानते हैं कि गंगा सदा से इस धरती पर नहीं है। भगीरथ के प्रयत्नों से सगर-पुत्रों के उद्धार के लिए स्वर्ग से गंगावतरण हुआ है, पर एक अन्य पौराणिक कथा से कम लोग परिचित है जिसके अनुसार कालान्तर में गंगा का लोप हो जाएगा... आजकल पूरा बनारस तो नहीं पर असी और वरुणा के बीच घाट के आस-पास रहने वाले काशी निवासी इसी एक चिंता के द्वारा पकड़े गए हैं। पानी घटता जा रहा है- गंगा जी बचेंगी या नहीं। घाट के पण्डों, मल्लाहों के अलावा घाट के आस-पास का पूरा कार्य-व्यापार गंगा जी पर ही निर्भर है। चिंता स्वाभाविक है।


कुछ सोचकर मैंने कहा कि गंगा जी का सफ़ाई अभियान चल रहा है। जैसे बीमार आदमी इलाज के दौरान कमज़ोर बना रहता है लेकिन बाद में स्वस्थ होकर बलवान हो जाता है, वैसे ही गंगा जी भी.. । “कहाँ सफ़ाई, कितनी गंदगी बढ़ गई है। घाट पर एकदम नरक हो गया है।“ जिस कचरे के ढेर पर कल तक लोग पेशाब कर रहे थे और जिसे देखकर मैं विचलित हो रहा था. उसने बताया कि कल करपात्री जी के आश्रम के विद्यार्थियों ने उस पूरे कचरे को सफ़ा किया और कचरा बड़ी नौका पर डालकर उस पार गाड़ आए।
मैं इस बात से बड़ा खुश हुआ कि शुचिता का भाव अभी पूरी तरह मरा नहीं है। पर मल्लाह दुखी था कि ब्राह्मण सफ़ाई कर रहे हैं, कचरा ढो रहे हैं। बाद में सोचते हुए मैं ने पाया कि शायद शुचिता की पुनर्स्थापना के लिए अब ब्राह्मणों को ही सफ़ाई की ज़िम्मेदारी ढोनी होगी.. अन्य शब्दों में अब वो काल है कि अब उन्हे कचरा ढोना होगा।

प्रकृति में दिव्यता और पवित्रता के आरोपण का एक खतरा यह भी बन जाता है कि हम उसे शुचिता और पवित्रता का ऐसा स्वयंभू स्रोत मान लेते हैं जो हमें निरन्तर पवित्र करता चलती है/ चलता है। और चूंकि वह हमें पवित्र करता है तो उसके दूषित होने और भ्रष्ट होने की किसी भी सम्भावना पर हम विचार करते ही नहीं। और इसलिए पवित्र नदियों व कुण्डादि की साफ़-सफ़ाई के प्रति एक आम उदासीनता हमें देखते हैं। उसमें माला, फूल, चन्दन, रोली के अलावा मूर्ति आदि भी फेंके जाते हैं। आजकल लोग साबुन लगा के कपड़ा धो आते हैं, प्लास्टिक बहाते हैं, घर की नाली भी उसी में खोल देते हैं। उद्योगपति तो मनुष्य से कुछ ऊपर के जीव हैं, वे मानवीय नैतिकता के द्वन्द्वों से अछूते रहते हैं और अपना औद्योगिक कचड़ा गंगा की पवित्रता के हवाले कर के निर्द्वन्द्व हो जाते हैं।
इन्ही सब चिन्ताओ को माथे पर ढोकर टहलते-टहलते तुलसी घाट पहुँचा। तुलसी बाबा ने असी घाट पर पर ही बैठ कर रामचरितमानस की रचना की थी, ऐसा बताया जाता है। उनकी झोपड़ी जहाँ रही होगी कभी, वहाँ एक बड़ी इमारत है। बडी इमारत में एक छोटा मन्दिर बाबा के नाम पर है। मैंने तस्वीर लेना चाही तो पुजारी ने आकर डाँटना शुरु कर दिया। फोटो पर इस तरह के ऐतराज़ पर मेरी हैरानी के जवाब में उन्होने कहा कि हर स्थान की एक मर्यादा होती है। पुजारी जी को उठने बैठने में तक़्लीफ़ है यह दिखाई दे रहा था, लेकिन भूमि पर ही आसन था उनका। उन्होने अपने बैठने के लिए किसी मोढ़े आदि का इन्तज़ाम भी नहीं किया था, । ऐसा करना भी सम्भवतः मर्यादा के विरुद्ध जाता होगा- मर्यादा के मापदण्ड अपने ऊपर भी लागू करते हैं यह पा कर मुझे पुजारी जी पर श्रद्धा हो आई।
कोने में एक जोड़ा खड़ाऊँ और एक कठवत नुमा लकड़ी का पुराना टुकड़ा पड़ा हुआ था। पूछने पर बताया कि दोनों आईटम तुलसी बाबा के ही हैं। लकड़ी का टुकड़ा दर असल उनकी नाव का अवशेष है जिसे लेकर वो उस पार के 'मगहर' में जाया करते थे; वह काशी में कोई काम नहीं करते थे। ‘कोई काम’ का अर्थ पुजारी जी ने बताया कि मल-मूत्र त्याग। काशी दिव्य नगरी है, पूरी सृष्टि नष्ट हो जाएगी पर काशी बनी रहेगी। ऐसी नगरी को अपने मल-मूत्र से दूषित करने की सोच, संस्कार विरुद्ध थी।
इस जानकारी के बाद यह तो तय हो गया कि शुचिता के अभाव की इस दूषित नैतिकता का स्रोत तुलसी दास की भक्ति परम्परा से नहीं आ रहा है। और शुद्ध अंग्रेज़ी संस्कार भी नाक छिड़क कर रूमाल जेब में रखने में विश्वास करता है। तब शायद ये भ्रष्ट आचार अलग संस्कृतियों के संयोग हो जाने से ही हुआ है। एक तत्व का गुण दूसरे से मिल जाने को ही भाषिक अर्थों में भ्रष्ट होना कहते हैं। इस्लाम के साथ एक स्वच्छ संयोजन संघर्ष और एकता की राह से बन—बिगड़ ही रहा था कि योरोपीय संस्कारों ने आकर सब माठा कर दिया। अब पीछे वाली स्थिति में जाने का कोई रास्ता नहीं है। संस्कृति की नदियों का संगम हो चुका है, अब पानी अलग-अलग करने का कोई उपाय नहीं है। नए संस्कार गढ़ना ही शायद अकेला विकल्प है।
(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)