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गुरुवार, 24 जनवरी 2008

हमारा नैतिक बोध

आज कल आदमी और दुनिया की बहुत सी परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को ज़िम्मेदार माना जाता है.. अंधाधुंध भौतिकता, और राजनैतिक-सामाजिक-निजी जीवन में पतित नैतिक मूल्यों के लिए तो विशेषकर ही.. ऐसे इल्ज़ाम मैंने भी लगाए हैं मगर इमैन्युअल कान्ट का यह टुकड़ा देखिये क्या कहता है..

हमारे कुल अनुभव की सबसे चकित कर देने वाली सच्चाई हमारा नैतिक बोध ही है, लालच के आगे हमेशा मौजूद रहने वाला वह भाव, जो बताता है कि यह या वह ग़लत है। हमारे घुटने टेक देने के बावजूद वह भाव बना रहता है.. क्या है वह जो पछतावे की कचोट और एक नए इरादे को पैदा करता है ? वह हमारे भीतर का निरपेक्ष आदेश (categorical Imperative) है, हमारी चेतना का उन्मुक्त आदेश। ऐसे व्यवहार करना जैसे कि हमारे संकल्प के ज़रिये हमारा व्यवहार प्रकृति का सार्वभौमिक नियम बन जाने वाला हैं। तर्क से नहीं, बल्कि तात्कालिक और सुस्पष्ट बोध के द्वारा हम जानते हैं कि हमें ऐसे किसी भी व्यवहार से बचना चाहिये जो अगर सब लोग करने लगें तो सामाजिक जीवन असम्भव हो जाएगा। मेरे भीतर यह बोध रहता है कि मुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए, भले ही वो मेरे फ़ायदे में ही क्यों न हो। दुनियादारी अन्दाज़ों पर आधारित है- उसका सूत्र ईमानदारी है तभी तक जब कि वह सब से अच्छी नीति हो; लेकिन हमारे हृदय का नैतिक नियम निरपेक्ष है और निर्द्वन्द्व है।

कोई व्यवहार इसलिए अच्छा नहीं है क्योंकि उसका फल अच्छा है या फिर इसलिए कि वह समझदारी भरा है, बल्कि इसलिए कि वह हमारे अन्दर की कर्तव्य-भावना के अनुसार में है। यह नैतिक नियम निजी अनुभव से नहीं उपजता वरन वह स्वयंभू है और हमारे सभी भूत, वर्तमान और भविष्य के व्यवहार के लिए पहले से ही निर्धारित (a priori) होता है। इस दुनिया में निर्द्वन्द्व रूप से अच्छी चीज़ सिर्फ़ अच्छा इरादा, शुभ सकंल्प ही है- नैतिक नियम के पालन का संकल्प, अपने नफ़े-नुक़सान से परे। अपने आनन्द का मत सोचो; अपना कर्तव्य निभाओ। नैतिकता स्वयं को आनन्द देने का नहीं बल्कि स्वयं को आनन्द के योग्य बनाने का सिद्धान्त है। हमें अपने आनन्द को दूसरों में खोजना चाहिये, और अपने लिए सम्पूर्णता- चाहे वह आनन्द लाए या पीड़ा। तो मनुष्य के साथ, अपने साथ व दूसरों के साथ, ऐसे व्यवहार करो जैसे वे किसी साध्य का साधन नहीं अपने आप में साध्य हों। और हम महसूस कर सकते हैं कि यह भी निरपेक्ष आदेश का ही एक हिस्सा है।

ऐसे सिद्धान्त के अनुसार आचरण कर के हम बौद्धिक जनों का एक आदर्श समाज बना सकेंगे, और ऐसे समाज को बनाने के लिए बस हमें ऐसे व्यवहार करना है जैसे हम पहले ही से उसके हिस्से हों; सम्पूर्ण नियम को हमें अपूर्ण अवस्था में ही लागू करना होगा। आप कह सकते हैं कि यह कठोर नीति है– सौन्दर्य से पहले कर्तव्य, आनन्द से पहले नैतिकता; लेकिन सिर्फ़ इसी तरह से हम पाशविकता के पाश से निकल कर देवत्व प्राप्ति की ओर बढ़ सकते हैं।

ध्यान दें कि कर्तव्य के प्रति यह निर्द्वन्द्व आदेश अन्ततः हमारे संकल्प की, मनोरथ की आज़ादी को सिद्ध कर देता है। अगर हम स्वयं को स्वतंत्र नहीं समझते तो तो हम किसी कर्तव्य की बात को सोच भी कैसे सकते थे? इस स्वतंत्रता को हम सैद्धान्तिक बुद्धि से सिद्ध नहीं कर सकते; हम इसे नैतिक चुनाव की दुविधा में ही सीधे सिद्ध करते हैं। और हम इस स्वतंत्रता को अपने शुद्ध अहम के, अपनी अन्तरात्मा के मूल तत्व की तरह महसूस करते हैं।

(विल ड्यूरां की किताब दि स्टोरी ऑफ़ फिलॉसफ़ी के एक अंश पर आधारित)

.. कान्ट को पश्चिमी दर्शन परम्परा में एक बड़ा मुक़ाम मानते हैं.. और उसके ऐसे विचारों को पढ़ने के बाद मैं आदमी और दुनिया की तमाम परेशानियों के लिए पश्चिमी सभ्यता को गरियाने के पहले सोचूँगा.. क्योंकि, निश्चित ही, सभ्यता बड़ा शब्द है..
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