मेरे सारे प्रगतिशील दोस्त मेरे इस बयान को लेकर अपने हाथों में पत्थर कस चुके होंगे। जैसी कि आम प्रगतिशीलों की फ़ित्रत होती हैं वे अपने कट्टर दुश्मन साम्प्रदायिकों की तरह ही, सारी दुनिया को अस एण्ड देम के दो बाड़ों में ही देख पाने के लिए अभिशप्त होते हैं। उन्होने मुझे या तो मुझे महमूद अहमेदीनिज़ाद की तर्ज़ पर होलोकास्ट को होक्स मानने वाली प्रस्थापना का समर्थक मान लिया होगा या किसी एक नई-नवेली 'हिन्दू ज़ायनिस्ट' डिज़ाइन का हिस्सा।
अगर उन के सामने आप कश्मीर के आन्दोलन में निहित मूल साम्प्रदायिकता की बात कर दीजिये तो वो आप को कम्यूनल भाजपाई मान लेंगे और इसके विपरीत अगर आप मोदी को चार गाली दे दीजिये तो अपनी राय पर थोड़ा शक़ होगा और हो सकता है कि आप को सेक्यूलर क्लब की सदस्यता की पर्ची काट दें। इसके बाद अगर आप श्राद्ध पक्ष के बाद सर घुटाए दिख गए तो हैरानी से उनका मुँह खुला रह जाएगा.. अरे आप तो.. और आप की सदस्यता पर पुनर्विचार चलने लगेगा। उनकी कमज़ोर जीवन दृष्टि पर जो मोटा चशमा चढ़ा है उससे कुछ भी महीन सूक्ष्म देख पाने की क्षमता वो खो चुके हैं। मैं कह सकता था कि ये उस चश्मे का दोष है, उनका दोष नहीं है, पर नहीं कहूँगा। मैं उन से भी बहुत चटा हुआ हूँ।
पर मेरे पाठक आप ही बताइये.. एक आदमी जो कि न तो नाज़ी है, न जर्मन है, न ब्रिटिश है, न फ़्रेंच, न यूरोपी और न अमरीकी.. और यहूदी तो बिलकुल ही नहीं..आखिर क्यूंकर उसे इस विषय के प्रति हर मौक़े-बेमौक़े पर अपनी आंसुओं की बाल्टी तैयार कर लेनी चाहिये? और माफ़ कीजिये मैं मुसलमान भी नहीं हूँ जिनके भीतर प्रायः यहूदियों के प्रति एक खास नफ़रत का समन्दर ठाठें मारता रहता है। (यहाँ पर मुझे लिखना चाहिये कि - हर मुसलमान नहीं - पर मैं नहीं लिखूंगा)
दुनिया में तमाम ऐसे दारुण विषय हैं जिन पर फ़िल्म बनने की दरकार हो सकती है लेकिन नहीं बनती। अब जैसे कल एक लेख में पढ़ रहा था कि एक चीनी लेखक द्वारा लिखी एक नई किताब के अनुसार चेयरमैन माओ की 'ग्रेट लीप फ़ारवर्ड' के तहत ३ करोड़ साठ लाख लोगों की हत्याएं हुई, जो कि होलोकास्ट में मारे गए लोगों से सम्भवतः अधिक है। मगर उस त्रासदी के बारे में कितने लोग जानते हैं? अपने १८५७ के बारे में ही एक अनुमान है कि ९० लाख लोग मारे गए - उस पर कितनी फ़िल्में बनी हैं? जो बनी थी - मंगल पाण्डेय - वो बरदाश्त के बाहर थी। लेकिन हमारी मानसिकता ऐसी बन गई है कि अत्याचार और त्रासदी के नाम पर हमारे पास सबसे दारुण मिसाल होलोकास्ट ही होती है।
मैं एक सीधा साधा फ़िल्म-प्रेमी हूँ। जो सिनेमा हॉल के गाढ़े अंधेरों में अपने मानस के जाने-अनजाने तत्वो को दूसरे मनुष्य के अनुभवों के जीवन्त चित्रण के हवाले कर उन्हे साझना चाहता है। टैरनटीनो बड़े निर्देशक हैं। किल बिल, रेज़ेरवायर डॉग्स और पल्प फ़िक्शन कल्ट फ़िल्म्स हैं और सही हैं। डेथ प्रूफ़ अच्छी नहीं थी मगर बुरी भी नहीं थी। उनकी इन्ही फ़िल्मों को प्रभाव था कि मैंने फ़िल्म रिलीज़ होने के पहले ही उसे देखने का मन बना लिया था। एक्सप्रेस में रिव्यू के आगे पाँच स्टार्ज देखे ज़रूर थे, और उस का असर भी मन पर लिया था, लेकिन पढ़ा नहीं था। अच्छा पढ़ा नहीं था फिर तो शायद और गु़स्सा होता। रिव्यू लिखने पर किसी स्टूडियो का दबाव रहा होगा ऐसा नहीं है लेकिन सबसे बड़ा दबाव प्रतिष्ठा का होता है। वो ऐसा दबाव होता है कि अगर आप को फ़िल्म न भी समझ आए, बुरी भी लग जाए तो आप कसूर फ़िल्म को देने के बजाय या अपनी राय साफ़ सामने रखने के बजाय बड़े-बड़े झूठे शब्द उछाल कर तारीफ़ों का ऐसा मुज़ाहरा करते हैं कि किसी को भनक भी न पड़ने पाए कि आप ऐसे मूर्ख हैं जिसे टैरनटीनो की फ़िल्म नहीं समझ आई?
मैं एक ऐसा मूर्ख हूँ जिसे फ़िल्म पसन्द नहीं आई। ऐसा नहीं कि फ़िल्म आप को पकड़ती नहीं, पकड़ती है और जकड़ती भी है.. इस हद तक कि आप का माथा पिराने लगे और आप आशंका और उत्तेजना से थथराने लगें। फ़िल्म की स्क्रिप्ट पर टैरनटीनो ने जो दस साल तक मेहनत की है वो दिखाई देती है, महसूस भी होती है। असर में कमी नहीं है.. फ़िल्म की जो मूल समझ है, एहसास की जिस दुनिया में फ़िल्म हमें ले जाती है, शिकायत और तक़लीफ़ उस से है।
फ़िल्म रंगीन ज़रूर है पर दिखाई देनी वाली दुनिया दुरंगी यानी काली सफ़ेद है। एक हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला है। जर्मन्स खोज-खोज कर यहूदियों की हत्याएं कर रहे हैं उसके जवाब में प्रतिशोध से भरे हुए जर्मन यहूदियों और अमरीकियों का एक गैंग है जो जरमनों की हत्याएं कर रहा है उनसे भी अधिक पाशविकता से।
फ़िल्म की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक है मगर कथानक काल्पनिक है। फ़िल्म के अंत में जिस तरह से द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो जाता है वो टैरनटीनो की ‘गूढ़’ कल्पना है। गूढ़ पर ज़ोर इसलिए कि उस कल्पना को जेब में डाले हर आतंकवादी घूम रहा है। अगर टैरनटीनो की इस दुनिया में एलाइड पक्ष की जगह अफ़्ग़ानी, पाकिस्तानी और अरब लड़ाके और नाज़ियों की जगह अमरीकी, फ़्रेंच और अंग्रेज़ हो तो आज की सही तस्वीर बन जाएगी। लेकिन शायद टैरनटीनो साहब के दिमाग़ में दो पैमाने होंगे एक अमरीकी हिंसा को तौलने का और दूसरा नाज़ियों और मुसलमानों की हिंसा को तौलने का? (मेरे प्रगतिशील मित्र नाज़ियों और मुसलमानों को समीकरण के एक ओर एक साथ रखने को अन्यथा ले सकते हैं, मेरा वैसा कोई आशय नहीं है लेकिन मैं इस वाक्य संरचना को नहीं बदल रहा हूँ)
फ़िल्म का आधार नफ़रत है। दोनों तरफ़ से हचक के नफ़रत। ऐसी करुणाहीन फ़िल्म, चाहे कितनी भी कारीगरी की शिखर पर चढ़ कर बैठी हो, मेरी नज़र में बुरी फ़िल्म है। कोई हत्यारा अगर किसी का गला काटने समय गणपति की अद्भुत आकृति उकेरने का उस्ताद हो तो क्या उसे कलाकार मान लेना चाहिये? एक ऐसा चिंतन है जो मानता है। मैं नहीं मानता।
ब्रैड पिट ने जबड़ों में अजब तनाव पैदा कर के न जाने कैसी अभिनय की कोशिश की है; मुझे तो ज़रा भी समझ नहीं आई। क्रिस्टोफ़ वाल्ट्ज़ ने बहुत बेहतर काम किया है जिसके लिए उन्हे कान फ़िल्मोत्सव में पुरस्कार भी मिला। एक बात और जो मुझे बहुत अखरी – पूरी कहानी फ़्रांस में घटित होती है लेकिन इनग्लोरियस बास्टर्ड्स में फ़्रांस की ज़रा भी आत्मा नहीं है। सच पूछिये तो आत्मा है ही नहीं।