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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

खिचड़ी पोस्ट

पिछले दिनों कई बातें ऐसी रहीं जिन्हे ब्लाग पर डालना चाहता था लेकिन मसरूफ़ियत के चलते टलती रहीं। आज काम पूरा हो गया और दिल्ली रवाना हो रहा हूँ तो सनद के तौर पर यहाँ चिपका रहा हूँ।

* सण्डे के टाइम्स (३१ जनवरी) में स्वप्न दास गुप्ता ने भाषा पर बात की है, लिखते हैं- “हिन्दी अपने आत्मसम्मान की कमी से उबर नहीं सकी है; हिन्दी एक ज़माने से उर्दू के सामने एक हीन भावना से पीड़ित है और एक विकसित भाषा के रूप में विकसित न हो पाने की ज़िल्लत से भी ग्रस्त है।”

वो आगे कहते हैं, “भारत में अंग्रेज़ी विचार, अमूर्त चिन्तन और व्यापार की भाषा है जबकि लोक व्यवहार की। और ये फ़ारसी-हिन्दुस्तानी के पुराने समीकरण का दोहराव है, और इसीलिए नेहरू जी को जब राष्ट्र को सम्बोधित करना था (ट्रिस्ट विद डेस्टिनी...) तो अंग्रेज़ी में बात की और जब वोट माँगने की बारी आई तो हिन्दी अपना ली।”

बात निराधार नहीं और विचारणीय है।

* उसी अख़बार में पाकिस्तान से नदीम पराचा लिखते हैं कि अविभाजित हिन्दुस्तान में मुसलमानों को तब अचानक अस्तित्व का संकट लगने लगा जब अंग्रेज़ों के साथ लोकतंत्र की व्यवस्था लागू करने की बात होने लगी, उन्हे लगा कि वे अल्पमत में हो जाएंगे। और कभी ख़लीफ़ा को कुछ न समझने वाले भारतीय मुसलमानों का एक हिस्सा अपनी पहचान को, हिन्दुओं से तोड़कर अरब और तुर्की से जोड़कर देखने लगा। और ये बात इस हद तक गई कि वे लड़ाके जिनका हिन्दुस्तान से कोई लेना-देना भी न था, वे मुसलमानों के हीरो बन गए, जैसे गोरी और गज़नी (पाकिस्तान की मिसाइलों के नाम इसी नाम पर हैं)। हिन्दुओं का एक अतिवादी हिस्सा ऐसे नए नायक गढ़ने लगा। और इस विचार को वैचारिक दाना-पानी इक़बाल से मिला जिनकी नज़र में संयुक्त हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष व्यापक मुस्लिम एकता के ख़िलाफ़ था। हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिकता के कारण नदीम अचानक उपजे हिन्दू फ़ासिज़्म और मुसलमानों के बीच अल्पसंख्यक होने की मानसिकता के एक हवाई बौद्धिकीकरण में देखते हैं। नदीम पाकिस्तानी समाज की तकलीफ़ों की जड़ भी यहीं देखते हैं कि लोग एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन, इराक़, अफ़्ग़ानिस्तान और कश्मीर के मुसलमानों के दुख पर आँसू बहाते हैं और दूसरी ओर देश के भीतर मुसलमानों पर आए अज़ाब पर से नज़र फेर लेते हैं। जबकि पूरा देश मुसलमानों का है फिर भी एक तरह की अल्पसंख्यक मानसिकता बनी हुई है।

नदीम की बात में दम है। मैं ख़ुद पिछले दिनों इक़बाल के शिकवा और जवाबे शिकवा पर नज़र डाल कर सोचता रहा हूँ कि किसे तरह की मानसिकता है ये, क्या रोना रोया जा रहा है अल्लाह से कि मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी हुई जब कि उन्होने तुम्हारे लिए जेहाद किया था? अगर ब्राह्मण ऐसा रोना रोयें तो, क्षत्रिय रोयें तो? इक़बाल में एक सूफ़ी तत्व ज़रूर है लेकिन वे बड़े तौर पर प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी चिंतक और शाएर हैं।

*१२ जनवरी को एक्सप्रेस में खबर थी कि तिरुअनन्तपुरम में मलयालम लेखक पॉल ज़कारिया पर सी पी एम के कार्यकर्ताओं ने हमला किया। ज़कारिया ने पार्टी के भीतर औरत-मर्द के रिश्तों को लेकर मौजूद पिछड़े चिंतन की आलोचना की थी। हुआ ये था कि एक कांग्रेस नेता के किसी स्त्री से ‘अनैतिक सम्बन्ध’ का पर्दाफ़ाशा करने के लिए उन्होने उस नेता को रंगे हाथ पकड़ने के लिए एक मकान का घेरा डाला और पुलिस के हवाले कर दिया। ज़कारिया का मानना था कि सी पी एम चर्च की तरह सेक्स के प्रति संकीर्ण नज़रिये को बढ़ावा दे रही है, जबकि पिछली पीढ़ी के पार्टी के भूमिगत नेताओं का सेक्स के लेकर काफ़ी उदार नज़रिया था। उन्होने कहा कि हालत ये आ गई है अपनी पत्नी के साथ घूमना भी ख़तरनाक होता जा रहा है। लेकिन वापस सी पी एम ने ज़कारिया की मज़म्मत की।

पॉल ज़कारिया एक अनोखे और अद्भुत कथाकार हैं, जो चर्च से लोहा लेते रहे हैं। लेकिन अब सी पी एम भी उन्हे विचार की आज़ादी नहीं दे रही। पूछा जाना चाहिये कि सी पी एम शिव सेना और बजरंग दल से कैसे अलग है? लोगों को बेडरूम में तो आज़ादी दो! लेकिन यहाँ झण्डे के रंग से नैतिकता पर फ़र्क नहीं पड़ता। हर पार्टी का अगर बस चले तो तस्लीमा नसरीन को जूते से मारे, नहीं मारते क्योंकि उसे मारने के लिए हैदराबाद के मुसलमान हैं ना।

देखिये लोगों ने नारायण दत्त तिवारी के बिस्तर के पाये काट डाले। अस्सी के पार का एक जवान अब कुछ भी दम-ख़म रखता है इस पर ख़ुश होने और उस से प्रेरणा लेने के बजाय लोग गरियाने लगे? दो लोगों के बीच आपसी सहमति से जो कुछ होता है वह आप के लिए नैतिक भले न हो, पर उन्हे उस अनैतिकता की आज़ादी होनी चाहिये। नारायण दत्त से इस्तीफ़ा लेने के बजाय उन पर संगठित वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने का मुक़द्दमा चलता तो बात जाएज़ लगती क्योंकि वेश्यावृत्ति अपराध नहीं है, वेश्यावृत्ति करवाना अपराध है।

*इश्कि़या देख ली। मनोरंजक है। छोटे शहरों की दुनिया में धँसती नहीं उनकी नुकीली, पथरीली सच्चाई का अच्छा इस्तेमाल कर लेती है कुछ मस्ती रचने में। ऐसा लगता है कि पूरी फ़िल्म यह सोचकर लिखी गई है कि ताली पिटवानी है और पिटवा लेती है। अगर यह दबाव न लेती तो इश्किया और बेहतर फ़िल्म हो सकती थी। हॉलीवुडी की वेस्टन फ़िल्मों की संरचना पर आधारित है और अपने को किसी भी राजनैतिक झुकाव से मुक्त रखती है। ये बात फ़िल्म को भारी नहीं होने देती और शायद मेरी उस से यही शिकायत भी है। संवाद चुटीले हैं लेकिन भाषा, उर्दू, हिन्दी, भोपाली और न जाने क्या-क्या होती रहती है। अरशद लुभाते हैं लेकिन नसीर को देखकर लगता है कि कुछ नया देखने का अब बचा नहीं।
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