
इस तरह से रुलाने वाली फ़िल्म को कौन बुरा कह सकता है। कानपुर से मुम्बई के सफ़र में मैंने कुछ नौजवानों को इस फ़िल्म की चर्चा करते सुना- पूछ मत कैसी है बस देख तू! शायद नौजवान सरे आम अपने रोने की बात खोलने से क़तरा रहा था पर उस रुलाई के आनन्द को बाँटने के लिए हुड़क भी रहा था।
किसी भी फ़िल्म की यह सबसे बड़ी ताक़त होती है। ज्याँ लुक गोदार की फ़िल्म 'पियरे ला फ़ू' में जब सैमुअल फ़ुलर से पूछा गया कि सिनेमा क्या होता है तो उन्होने कहा कि फ़िल्म इज़ लाइक ए बैटलग्राउण्ड… लव, हेट, एक्शन, वायलेन्स, डेथ.. इन वन वर्ड इमोशन ! और इमोशन तारे ज़मीन में भरपूर है। आमिर खान ने अपनी पहली फ़िल्म में ही दिखा दिया कि जिन निर्देशकों की फ़िल्मों में वे काम करते रहे हैं उनके प्रति उनकी तथाकथित हिकारत यदि थी.. तो बेबुनियाद नहीं थी!
फिर भी फ़िल्म के एक दो बिन्दु ऐसे रहे जो मेरी छिद्रान्वषेक दृष्टि से बच नहीं सके। जैसे इन्टरवल के बाद आमिर के निजी जीवन में फ़िल्म की दखलन्दाज़ी उबाऊ लगने लगती है। जैसे बच्चे की त्वरित प्रगति थोड़ी नाटकीय हो जाती है।

आम तौर पर हिन्दी फ़िल्मों की स्क्रिप्ट पर चर्चा करने लायक कुछ नहीं रहता वो अधिकतर गानों, चुटकुलों और भावुक मसालों की एक लड़ी होती है। दोष किसी व्यकित का नहीं धंधे का है- एक (फ़िल्मी) कवि ने सही कहा है.. गंदा है पर धंधा है ये! मगर 'तारे ज़मीन पर' अलग है। इन छोटी-छोटी कमियों के बावजूद 'तारे ज़मीन पर' एक पैसावसूल अनुभव रहा जो आप को बच्चों की विशेषताओं के प्रति हमेशा के लिए संवेदनशील बना जाता है।