सोमवार, 26 नवंबर 2007

रसातल भी पलट कर घूरता है

मुझे बताया गया है कि हम जितने भोले दिखते हैं, उतनी ही परतें हैं हमारे भोलेपन में। पहले हमें लगा कि हमें गरियाया गया है.. फिर थोड़ा विचार करने के बाद पाया कि कहने वाले ने ग़लत नहीं कहा। परते ज़रूर हैं हमारे चरित्र में.. मगर क्या व्यक्ति को सतह भर गहरा ही होना चाहिये? और यदि गहराई हो भी तो नितान्त एकाश्मी? परतें यानी लेयर्स हो हीं ना?

मेरे ख्याल में परते अच्छी हैं.. वे प्रकृति और समाज की विविधिता का आप के भीतर प्रतिबिम्बन का प्रमाण हैं । इसलिए बताने वाले का आकलन सही है। और उन्होने हमारी परतों को भोलेपन का नाम दिया है इसके लिए उन्हे धन्यवाद के सिवा और क्या प्रेषित किया जा सकता है। वैसे हम कोशिश करेंगे चतुर बनने की..

आगे हमें बताया गया कि हम अक्‍सर उन लोगों के साथ खड़े नज़र आते हैं, जो या तो सांप्रदायिक हैं, या आंदोलनकारियों को गाली देते हैं। ये बात भी हम मान लेते हैं.. हम ऐसा करते हैं। क्योंकि मेरा मानना है कि न तो ओसामा का प्रशंसक होने से कोई आतंकवादी सिद्ध होता है और न ही मोदी की तरफ़दारी करने से कोई दंगाई। जार्ज बुश का एक ‘लोकप्रिय’ विचार है कि या तो आप सौ प्रतिशत उनके साथ हैं या सौ प्रतिशत उनके खिलाफ़.. ऐसी सोच का मैं विरोध करता हूँ चाहे वह बुश की ओर से आए.. मुशर्रफ़ ओर से या अपने ही किसी मित्र की ओर से।

मोदी की प्रशंसा करने भर से कोई ऐसे राक्षस में नहीं बदल जाता जिसके भीतर की सारी मनुष्यता मृत हो गई है। अपने विरोधियों से व्यवहार के बारे में नीत्शे की एक बात याद रखने योग्य है: ‘राक्षसों से लड़ने वालों को सावधान रहना चाहिये कि वे स्वयं एक राक्षस में न बदल जायं क्योंकि जब आप रसातल में देर तक घूरते हैं तो रसातल भी पलट कर आप को घूरता है..'

11 टिप्‍पणियां:

  1. वेल सेड, बडी.. बट इट्स टाइम नाऊ टू मूव अहेड.. ज़िंदगी में और भी ग़म हैं रसातल में सिर नवाकर झांकने-झंकवाने के सिवा!

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  2. बहुत बढ़िया विचार....

    परतों का रहना ज़रूरी भी है....आपके अन्दर कितने सारे लोग झांकते हैं....अलग-अलग लोगों की पंहुच अलग-अलग परत तक रहती है. अब ऐसी स्थिति में अगर परतें नहीं रहें, तो हर कोई एक ही परत पर अटका मिलेगा....ये तो सामने वाले पर निर्भर करता है कि वह किस परत तक पहुँच सकता है.

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  3. ओसामा/मोदी/बुश/मुशर्रफ/ज्ञानदत्त(!) को क्या देखते हो टेलीस्कोप लगा कर। फोकस इण्टर्नलाइज करो - जवाब वहीं मिलेंगे। समस्यायें बाहर नहीं हैं और हैं भी तो अभय तिवारी उनका न तो आर्बीट्रेटर है न नियंता!

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  4. ये तो बढ़िया है...टिप्पणियों से कम से कम अपना चरित्र तो सामने आ रहा है।
    आप चिन्ता ना करें, लोगों का काम है कहना!

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  5. बहुत अच्छा कहा आपने. पसंद आया. मुझे मेरी एक कविता याद आ गई. कुछ पंक्तिया दे रहा हूँ.
    परत दर परत लिपटा आदमी
    परत दर परत उलझा आदमी
    परतों के अन्दर-बाहर झांकता आदमी.
    आदमी कि परते है या परतों मे आदमी?

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  6. जो उपाधि मिले उसे प्रसन्न मन से ग्रहण करें।

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  7. बहुत बढिया

    हमें मतभेदों और विविधताओं साथ ही रहना चाहिए। तभी हम आदमी बन पाएंगे

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  8. इस टाइप का पब्लिक बोडी गार्ड ही नही १० -१५ विचार गार्ड का आदि हो जाता है . केवल एक बार वाह ! कह देने से छूटी नही हो जाती . परत इनकी टूटती ही है खुलती कभी नही ! टूटन नियति है क्योंकि फेविकोल के
    जोड़ मे आस्था है इन्हें ! अंत मे आलोचना का आमंत्रण पढ़ के लिखने मे हर्ज नही कर रहा :-
    "करे कुसंग चाहे कुशल "

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  9. मित्र बडी दार्शनिक उक्ति है-'क्योंकि जब आप रसातल में देर तक घूरते हैं तो रसातल भी पलट कर आप को घूरता है..' क्या ऐसा भी होता है कि जब रसातल आपको देर तक घूरता रहता है तो आप भी उसे पलट कर देखते हैं?

    समाधान प्रभु?

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  10. मित्र..मुद्दा यहाँ पर यह नहीं कि कौन पहले घूरता है..मुद्दा, इस प्रक्रिया में व्यक्ति के भीतर आने वाला बदलाव है...

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  11. बहुत बढ़िया ....अच्छा लगा पढ़कर...

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