tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post2449430949314779324..comments2023-10-27T15:06:34.550+05:30Comments on निर्मल-आनन्द: पूँजीवाद-माओवाद: कुछ नोट्स-४अभय तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comBlogger17125tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-33293428343101061242010-04-22T14:53:48.149+05:302010-04-22T14:53:48.149+05:30गर्मी और exam की निकटता बावजूद आपके लेख पढने का लो...गर्मी और exam की निकटता बावजूद आपके लेख पढने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ |योगेन्द्र सिंह शेखावतhttps://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-22182535390134292392010-04-21T08:10:24.514+05:302010-04-21T08:10:24.514+05:30इस ज्वलंत विषय पर चुनिन्दा आलेखों में से एक. दो बा...इस ज्वलंत विषय पर चुनिन्दा आलेखों में से एक. दो बार पढ़ा मगर पर इस बार तुमने असहमति की कोई गुंजाइश ही नहीं छोडी. ;)Smart Indianhttps://www.blogger.com/profile/11400222466406727149noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-44125709135029992612010-04-20T21:09:32.936+05:302010-04-20T21:09:32.936+05:30@ अभिषेक ओझा
आप ने मेरे इस कथन को कि "यह एक न...@ अभिषेक ओझा<br />आप ने मेरे इस कथन को कि "यह एक नए भ्रम की सृष्टि है" बहुत संकीर्ण अर्थ में ले लिया है। <br />यहाँ समस्या है रोजगार का अभाव। आरक्षण ने पहला भ्रम तो आरक्षित जातियों के लिए रचा है कि उन सब को रोजगार मिल जाएगा। जब कि हो यह रहा है कि आरक्षण का 80 प्रतिशत लाभ इन जातियों का संपन्न तबका छीने ले रहा है जो यथार्थ में इन जातियों की मुख्य धारा से बहुत दूर आ चुका है। दूसरा भ्रम यह पैदा हो रहा है कि हम आरक्षित होते तो हमें रोजगार मिल जाता। वास्तविकता यह है कि रोजगार जब तक बढ़ाया नहीं जाएगा मिलेगा नहीं। रोजगार बढ़ाने के लिए क्या हो रहा है? एक ओर लोग 12 से 20 घंटों तक काम कर रहे हैं दूसरी ओर बेरोजगारी विद्यमान है। क्या वर्तमान व्यवस्था आठ या छह घंटे से अधिक कामं करने को पूरी तरह प्रतिबंधित नहीं कर सकती? <br />वास्तविकता यह है कि यह व्यवस्था जनता के विभिन्न हिस्सों को एक दूसरे के सामने खड़ा करती है।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-56529437854740976862010-04-20T16:59:05.091+05:302010-04-20T16:59:05.091+05:30हूँ!हूँ!प्रीतीश बारहठhttps://www.blogger.com/profile/02962507623195455994noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-29691055906976892422010-04-20T08:27:05.869+05:302010-04-20T08:27:05.869+05:30लगातार पढ़ रहा हूँ और आपसे सहमत भी हूँ। अगली कड़ी ...लगातार पढ़ रहा हूँ और आपसे सहमत भी हूँ। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।बोधिसत्वhttps://www.blogger.com/profile/09557000418276190534noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-41050267303423891732010-04-20T06:47:57.684+05:302010-04-20T06:47:57.684+05:30“असल में ये उनकी समझ का दोष है जो राज्य के चरित्र ...“असल में ये उनकी समझ का दोष है जो राज्य के चरित्र और समाज के चरित्र में भेद नहीं कर पा रहीं।”<br /><br />दरअसल ये हर उस छद्म साम्यावादी-समाजवादी की समझ का दोष है जो कभी हिन्दुओं को बख्शने के मूड़ में नहीं रहे। और तो और व्यापक हिन्दू समाज में भी अल्पसंख्य ब्राह्मण ही इनके निशाने पर रहे। इन्हें नहीं दिखता कि अपनी मातृभूमि पर आज सिर्फ तीस से पैंतीस हजार रह गए पारसी (प्रकारांतर से जोरास्ट्रीयन) भारत में फल फूल रहे हैं और एक लाख की तादाद में हैं। इनकी आबादी धीमी गति से बढ़ रही है तो सिर्फ इसलिए कि अपनी नस्ल को लेकर इनका दृष्टिकोण सनक की हद तक शुद्धतावादी है। हमलावर इस्लामी ताकतों का चरित्र सबको पता है। वे खैरात बांटते हुए यहां नहीं आए थे। इसके बावजूद यहां वे लगातार बढ़े, फले-फूले। धर्म के भरोसे बहिश्त के सुखों की चाहवालों की तुलना में वे कहीं ज्यादा बढ़े जिन्हें इस मुल्क के कानून और अमन में ज्यादा भरोसा था। गौरतलब यह भी है कि आजादी के बाद इस देश में इस्लाम खूब फलाफूला तो इसमें गलती हिन्दुओं या ब्राह्मणों की कैसे है? अगर इस्लामपरस्तों का बड़ा तबका अपने मजहब की ऐसी बढ़ती में खुद को गारत कर भी खुश है तो कोई क्या करे? अपने बाशिंदों के खुशहाल होने से कोई मजहब ज्यादा व्यापक होता है या उस तरह से जैसा इस उपमहाद्वीप में नजर आ रहा है। <br /><br />जो आदिवासी माओवादी तौरतरीकों पर यकीन नहीं करते क्या वे आदिवासी नहीं? अरुंधती अंततः सरकारी अंधेरगर्दी का विरोध करते हुए माओवादी अंधेरगर्दी के पक्ष में खड़ी हैं।अजित वडनेरकरhttp://shabdavali.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-84906380848711644592010-04-20T06:29:35.488+05:302010-04-20T06:29:35.488+05:30"ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें मनुस्मृ..."ये कैसा सवर्ण हिन्दू राज्य है जिसमें मनुस्मृति और चाणक्य के अर्थशास्त्र के विशेषाधिकारों के विपरीत, ब्राह्मण की अवमानना पर कोई विशेष अपराध नहीं बनता जबकि दलित के सम्मान की रक्षा के लिए हर सम्भव जगह बनाई जा रही है? "<br /><br /><br />जम कर चिंतन किया है पंडित जी। ऐसी अनेक पंक्तियां कोट करता चला जाऊंगा, अगर अपनी पसंद बताने की शर्त रख दी जाए।अजित वडनेरकरhttp://shabdavali.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-57797588040048067172010-04-19T22:07:11.856+05:302010-04-19T22:07:11.856+05:30अभी व्यस्त हूँ, इसे पढ़ कर फिर टिप्पणी करूंगा.अभी व्यस्त हूँ, इसे पढ़ कर फिर टिप्पणी करूंगा.डॉ. मनोज मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07989374080125146202noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-60890631002225511242010-04-19T17:30:35.364+05:302010-04-19T17:30:35.364+05:30अगली किश्त की प्रतीक्षा है।
घुघूती बासूतीअगली किश्त की प्रतीक्षा है।<br />घुघूती बासूतीghughutibasutihttps://www.blogger.com/profile/06098260346298529829noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-71174275857041605892010-04-19T15:16:23.119+05:302010-04-19T15:16:23.119+05:30@दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi… यह एक नए भ्र...@दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi… यह एक नए भ्रम की सृष्टि है।<br />नहीं ये भ्रम नहीं है ! अगर मेरे ही क्लास में मुझसे १५-२०% कम अंक पा रहे... क्लास में सबसे पीछे रहने वाले विद्यार्थी. जो शहर से सबसे बड़े अधिकारी के बेटे/बेटी हैं (आर्थिक रूप से मुझसे कई गुना अधिक संपन्न और आईक्यू में उतने ही गुना पीछे) और वो नौकरी पाते हैं मैं घर बैठा रह जाता हूँ... तो मैं कैसे मान लूं भ्रम इसे?<br />सिरिल गुप्ता जी की बातें भी खासी पसंद आई... जैसे ये "पूंजीवाद के साये तले बहुत से नव-वि़चार पनपे हैं और पूंजीवादी देशों में ही सबसे ज्यादा नये विचारों के लिये जगह मिलती है. यह कोई मामूली बात नहीं कि मार्क्स और एन्जेल भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ही पैदाइश थे क्योंकि किसी जिस व्यवस्था में (जैसे कम्युनिस्ट, या एक-धार्मिक) नई सोच के लिये जगह ही न हो वहां कोई व्यक्ति नई सोच लेकर जाये भी तो कहां?"Abhishek Ojhahttps://www.blogger.com/profile/12513762898738044716noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-23298531472237111362010-04-19T12:10:22.318+05:302010-04-19T12:10:22.318+05:30बहुत बढ़िया ,सुझाव माने तो इस सीरिज के सारे ल...बहुत बढ़िया ,सुझाव माने तो इस सीरिज के सारे लेख <br />प्रिंट मिडिया के माध्यम परोसा जाय .संजय शर्माhttps://www.blogger.com/profile/06139162130626806160noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-6310303916841307892010-04-19T11:14:46.256+05:302010-04-19T11:14:46.256+05:30आंशिक सहमति के साथ ......साधुवाद
आप हिंदु को सवर्ण...आंशिक सहमति के साथ ......साधुवाद<br />आप हिंदु को सवर्ण और दलित मैं बांटते है....अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों की बात करते हैं....पर अधिसंख्य हिंदुओं को भूल जाते हैं....जिनके सामने अपने ही तथाकथित बुद्धीजीवी दीवार बनकर खङे हैं एक थानेदार की भूमिका मैं....आजादी आई अल्पसंख्यकों के लिए...दलितों के लिए.....पर इस देश का बहुसंख्यक समाज आजादी के बाद अपने उन पुरखों का हिसाब चुकता कर रहा हैं जिनको उसने देखा नही......जातिगत असमानता तब भी थी...और अब भी है....डायरैक्शन चैज हुआ है बस...drdhabhaihttps://www.blogger.com/profile/07424070182163913220noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-29250293521827024162010-04-19T11:11:16.121+05:302010-04-19T11:11:16.121+05:30इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.Shivhttps://www.blogger.com/profile/05417015864879214280noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-87435533807559275072010-04-19T10:59:46.464+05:302010-04-19T10:59:46.464+05:30जारी लिखना भूल गया.. अगली किस्त में समाप्त होगा।जारी लिखना भूल गया.. अगली किस्त में समाप्त होगा।अभय तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-73355229079748413002010-04-19T10:19:54.912+05:302010-04-19T10:19:54.912+05:30बहुत ही सुंदर लेख. आपके पूंजीवाद पर नजरिये से मैं ...बहुत ही सुंदर लेख. आपके पूंजीवाद पर नजरिये से मैं पूर्ण सहमत हूं. पूंजीवाद की चाहे जितनी बुराई लोग कर लें लेकिन उसने सीमायें तोड़ने का काम हमेशा किया है. चाहे वो सीमायें क्षेत्र की, या राज्य की, जाती कि, या धर्म की. यह सही है कि पूंजीवाद में जाती-धर्म-भाषा का लोप हो जाता है. पदासीन वही होता है जो इस व्यवस्था को सही प्रकार समझ कर उसमें खुद को ढाल सके चाहे व किसी जाती या धर्म का क्यों न हो.<br /><br />इसलिये मैं भी यह मानता हूं कि पूंजीवाद व्यक्तिवाद (individualism) को भी बढ़ावा देता है. पूंजीवाद के साये तले बहुत से नव-वि़चार पनपे हैं और पूंजीवादी देशों में ही सबसे ज्यादा नये विचारों के लिये जगह मिलती है. यह कोई मामूली बात नहीं कि मार्क्स और एन्जेल भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की ही पैदाइश थे क्योंकि किसी जिस व्यवस्था में (जैसे कम्युनिस्ट, या एक-धार्मिक) नई सोच के लिये जगह ही न हो वहां कोई व्यक्ति नई सोच लेकर जाये भी तो कहां?<br /><br />इसलिये चाहे मार्क्स हो या ओशो हर किसी को सबसे पहले स्वीकार्यता पूंजीवादी व्यवस्था में ही मिलती है.<br /><br />प्रगतिवाद पूंजीवाद के साथ ही रहता है, क्योंकि बाजार का नियम है - adapt or die. जो खुद को बदल नहीं पाता वह नष्ट हो जाता है चाहे वह Bell Inc हो, IBM या Microsoft.<br /><br />और मुझे यह भी नही लगता कि भ्रष्टाचार, exploitation और पूंजीवाद में कोई डाइरेक्ट लिंक है, क्योंकि यह सब चीजें किसी भी कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट देशों में कम मात्रा में नहीं मिली (या शायद ज्यादा मिली हों).<br /><br />जहां तक जनतांत्रिक व्यवस्था का सवाल है वह भी Laissez faire के प्रिंसिपल का एक्सटेंशन हो सकती है. यह भूलने की बात नहीं कि युरोपीय देशों में भी पहले industrialization आया और बाद में जनतंत्र. क्या पूंजीवाद ने असंगठित गांव वालों को शहर या कस्बों में इतनी मात्रा में संगठित होने का मौका दिया कि वो अपनी शक्ति पहचान कर उसका उपयोग कर सके?<br /><br />क्या अगर कहा जाये तो फ्रीडम है तो फ्री इकानमी होगी तो यह् गलत होगा?<br /><br />जहां तक माओवादी या नक्सली हिंसा का सवाल है, इसमें मुझे भी जो दर्शाया गया है उनसे अलग कारणों की बू आती है. आपकी यह सीरीज़ बार-बार पढ़ने और समझने के लिये है. क्या अगला अंक आयेगा?CGhttps://www.blogger.com/profile/01338787191916748749noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-63649617908895906812010-04-19T09:48:37.191+05:302010-04-19T09:48:37.191+05:30.धर्म समाज में नैतिक अनुशासन लाने के लिए एक जरूरी....धर्म समाज में नैतिक अनुशासन लाने के लिए एक जरूरी व्यवस्था है या कहे तो आत्मा को रिचार्ज करवाने के लिए इस्तेमाल करने वाला कूपन ...मनुष्य द्वारा अपने हित के लिए इसके कुछ टुकडो का अपने मुताबिक किया गया तजुर्मा जिसके पीछे ..शक्ति ओर शासन का लोभ था ....जिसके कारण वर्ग विभाजित समाज की स्थापना हुई ओर स्त्रियों को कंडिशनिंग करने के लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था का इजाद हुआ ..यानि मनुष्य ने हर शासन काल में इसका इस्तेमाल किया...परन्तु वक़्त के साथ साथ कुछ व्यवस्थाये चरमराई ओर अब २०१० में चीजे बदली है ओर बदल रही है ...अब धर्म प्रायरटी पर नहीं है हिन्दू समाज में ..रोजी रोटी की चिंता उससे पहले है ...<br /><br />.अरुंधति जैसे लोगो के लिए परोपकार एक थ्रिल है दुखो के सामूहिक झुंडो को तलाश कर किया जाने वाला थ्रिल...हाँ कोई भी कह सकता है मुझे ऐसा सवाल उठाने का हक नहीं जैसे कभी जावेद अख्तर ने मदर टेरेसा के लिए लिखा था .मुझको तेरी नीयत से इनकार नहीं पर .....<br />फिर भी मै राजेंदर सिंह जैसे लोगो का ज्यादा सम्मान करता हूँ जो देश भर में पानी बचने के लिए दर दर बहत्कते है बिना कोई शोर मचाये प्रतिबधता से काम करते है .मै बाबा आमटे जैसे लोगो के आगे बौना महसूस करता हूँ जो अपने आप को समर्पित कर देते है दूसरो के लिए ....मै डॉ विनायक सेन का वाद नहीं देखता .....मै उनकी संवेदनशीलता देखता हूँ ओर एक आराम तलब जीवन से मुंह मोड़ने का साहस देखता हूँ ....मेरे लिए ऐसे लोग ज्यादा सम्मानीय है .....मुझे नहीं मालूम कौन सी विचारधारा क्या है मै एक वर्ग विहीन मुक्त समाज की कल्पना करता हूँ जिसमे धर्म उसी रूप में पुन स्थापित होगा जो मनुष्य को मनुष्य के रूप में पहचानेगा<br />.एक बात ओर आरकक्षण व्यवस्था का यदि न्यायोचित उपयोग हुआ होता तो अभी तक जाति व्यवस्था कभी की ख़त्म हो चुकी होती परन्तु ...दुःख की बात है ये है के इसका लाभ पाने वाले लोग जब आर्थिक रूप से संबल स्थान पर आ जाते है तो वे भी उसी वर्ग की भांति व्योवाहार करने लगते है ...ओर निरंतर इस व्यवस्था का दोहन इस तरह से करते है के वास्तव में जिनको चाहिए वहां तक ये सुविधा पहुँच नहीं पाती .यानी वर्ग में वर्ग विभाजनडॉ .अनुरागhttps://www.blogger.com/profile/02191025429540788272noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-18044540465808925702010-04-19T09:29:12.509+05:302010-04-19T09:29:12.509+05:30"उनके अनुसार अगर उनको अनुसूचित जाति या जनजाति..."उनके अनुसार अगर उनको अनुसूचित जाति या जनजाति का प्रमाणपत्र मिल जाता तो उनकी समस्या हल हो जाती।"<br />यह एक नए भ्रम की सृष्टि है। <br />यह सोच भी सही है कि पूंजीवाद ही जाति, धर्म और राष्ट्रीयता जैसे बनावटी विभाजकों को गलाता है। वास्तव में "जनवादी जनतंत्र" की अवधारणा भी पूंजीवाद के विकास की ही अवधारणा है। वास्तव में मूल समस्या है 'जनतंत्र के विकास' की जो वर्तमान परिस्थितियों में कहीं गौण हो गया है। पूंजीवाद संकट के दौरों में तानाशाही का सृजन करता है। आज पूंजीवाद ने जनतंत्र के विकास को जमींदोज कर दिया है। वही आसन्न खतरा है। जनतंत्र के विकास का संघर्ष ही नई राहें पैदा कर सकता है। <br /><br />माफ करना, श्रंखला के बीच में टिप्पणी की है।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.com