शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

शब्दों के रहस्यों का पर्दाफ़ाश



लगभग चार सालों से ब्लाग जगत के बाशिन्दे अजित वडनेरकर की रहबरी में शब्दों का सफ़र कर रहे हैं। हर्ष की बात है राजकमल प्रकाशन ने इस सफ़र को एक ग्रंथ के रूप में स्थायी मक़ाम की शकल दे दी है जिसे 'शब्दों का सफ़र' का 'पहला पड़ाव' कहा गया है। हालाकि मेरी जानकारी में इस का श्रेय पाने के लिए दूसरे प्रकाशन भी लालायित थे। वैसे तो ये सफ़र हम ब्लागरों के लिए आभासी जगत में सर्वदा उपलब्ध है। कभी भी अजित भाई के ब्लाग पर जाकर किसी भी शब्द की कुण्डली बांची जा सकती है, लेकिन लगभग साढ़े चार सौ पन्नो के रूप के पहले पड़ाव को अपने हाथों में लेने पर अजित भाई के काम के गुरुत्व का जो एहसास होता है वह ब्लाग पर घूमते-टहलते नहीं हो पाता। अजित भाई का यह ठोस काम काल के झोंको में उड़ जाने वाला नहीं, रह जाने वाला है।

एक शब्द को दूसरे शब्द से जोड़ने की जो अजित भाई की चिर-परिचित सरल-तरल शैली है, वहीं शैली यहाँ भी मौजूद है। अजित वडनेरकर का अन्दाज़ इतना सरस है कि पाठक एक शब्द से दूसरे शब्द में विस्मय व आनन्द से रससिक्त होकर फ़िसलता चलता है। और शब्दों की विवेचना के अलावा उन शब्दों से जुड़े हुए दूसरे सामाजिक-ऐतिहासिक तथ्यों से रूबरू होता चलता है। इस लिहाज़ से इस किताब में एक बैस्टसैलर जैसा वो गुण है जो किताब को बेहद पठनीय बनाये रखता है और पाठक से पन्ने पलटवाता रहता है।

असल में ब्लाग के लिए लिखी गई तमाम कड़ियों को ही अजित भाई ने एक संयोजन दे दिया है। पूरी किताब को पद-उपाधि, आश्रय-स्थान, खानपान-रहनसहन, धर्म-दर्शन, जैसे दस अध्यायों में बाँटा गया है। ये अध्याय लगभग तीन -साढ़े तीन सौ उपशीर्षकों में विभाजित हैं जिन में मेरे आकलन के अनुसार संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, और तुर्की से हिन्दी में आए दो हज़ार से भी अधिक शब्दों की विवेचना की गई है। दो हज़ार एक बड़ी संख्या है, बहुत बड़ी.. जबकि तमाम लोगों की कुल शब्द-संख्या ही चार-पाँच हज़ार होती है। और अभी तो इसके और कड़ियाँ आनी हैं.. शायद तीन और.. तो अगर गणित की जाय तो इस खण्ड और आगामी तीन खण्ड को मिलाकर चारों खण्डों की शब्द संख्या आठ से दस हज़ार की बीच बैठेगी। वाह!

मुझे शिकायत है तो सिर्फ़ उस बात से जिस के लिए अजित भाई किताब के आमुख में ही क्षमा माँग लेते हैं – ‘मेरे इस समूचे प्रयास को भाषाविज्ञान और व्युत्पत्तिशास्त्र के नियमों में बाँधकर न देखा जाय।.यह मूलतः शब्दविलास है। विभिन्न भाषाओं से हिन्दी में आए शब्दों के अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल और उनकी विवेचना करना ही मेरा लक्ष्य था न कि शब्दों की भाषावैज्ञानिक पड़ताल। न तो वह मेरा उद्देश्य था और न हीं मुझमें इसकी योग्यता है ।"

मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ। अगर अजित वडनेरकर में योग्यता नहीं है तो किसी में नहीं है। और अगर किसी कारण से भी वे अपने को अयोग्य मानते भी हों तो भी उनको सामाजिक दायित्व समझकर इस काम को अपने हाथ में लेना चाहिये। दो-चार भूलें हो भी गईं तो क्या? आने वाली पीढ़ियाँ उसे सुधारेंगी। अभी महत्वपूर्ण बात ये है कि इस काम का एक आधार तैयार हो जाय। किस काम का? एक वैज्ञानिक अकादमिक हिन्दी व्युत्पत्ति कोष बनाने का। जो स्वप्न आचार्य किशोरीदास वाजपेयी ने देखा था और जिसे वे कभी पूरा न कर सके। अजित वडनेरकर उस मक़ाम के किनारे पर खड़े होकर ये घोषणा कर रहे हैं कि वे उस शिखर को नहीं छू सकते.. मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

हो सकता है उन्हे अपने पूरे काम को पुनर्संयोजित करना पड़े.. बनी-बनाई संरचना को छिन्न-भिन्न करके नए सिरे एक-एक शब्द को क्रमवार जमाना पड़े। मगर उन्हे इतना ही करना है। जो बड़ा काम था - शब्दों की व्युत्पत्ति करना- वो वे पहले ही कर चुके हैं। अब उन्हे सिर्फ़ शब्दकोष की शकल में क्रमवार सजाना है.. वे क्यों नहीं कर सकते हैं? ज़रूर कर सकते हैं! 

ये तो थी मेरी अपनी शिकवा-शिकायत। फ़िलहाल ‘शब्दों का सफ़र’ बेहद पठनीय और संग्रहणीय किताब है, इस को ख़रीदकर आप कभी पछतायेंगे नहीं। कोई भी पन्ना खोलकर पढ़िये एक रहस्य आप के सामने उद्‌घाटित होने की प्रतीक्षा कर रहा है।


नाम: शब्दों का सफ़र (पहला पड़ाव)
लेखक: अजित वडनेरकर
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
वर्ष: २०११
पृष्ठ: ४६०
मूल्य: ६००रू





13 टिप्‍पणियां:

  1. इस कृति के लिए वाडनेकर जी को बहुत बधाई, बधाई आपको भी बेहतरीन समीक्षा के लिए

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  2. अजित वाडेकर जी को हार्दिक बधाई इस कृति के लिए. बेहतरीन समीक्षा के लिए अभय जी को भी साधुवाद ! आभार !

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  3. अजित भाई ब्लॉग जगत के लिए फख्र की बात हैं, खैर मेरा ये कहना सिर्फ जबरदस्ती मेरी उपस्थिति दिखाना है , अजित जी के बारे में कुछ कहना न कहना हमारी क्षमताओं से बाहर है |

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  4. अजित वडनेरकर के महती कार्य की तारीफ करने के लिए शब्द कम पड रहे हैं और कम क्यों न पड़ें शब्दो पर ही तो उनने कार्य किया है ।
    आपने भी बडी अच्छी समीक्षा की है ।

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  5. धक्-धक् शक्‍क-शक्‍क हुक्‍क-हुक्‍क छुक्-छुक्, जय हो मन-मलय हो, भासा प्रलय हो..

    (गुप्‍तेन केन प्रकारेन: बाबू अ ब, हमरी कापी कहां? दिल्‍ली से चलकर आय रही, रुक्‍क-रुक्‍क?)

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  6. सफ़र की समीक्षा के लिए बहुत आभार अभय भाई। आपका सुझाव सिरमाथे है। निश्चित ही पुस्तक के सभी खण्ड निकल जाने के बाद नई तरतीब के साथ यह समूचा काम अलग जिल्द में लाया जाए, तभी यह व्युत्पत्ति-विवेचना कोश सम्पूर्णता प्राप्त करेगा। जैसे इस पुस्तकाकार रूप के पीछे आपकी इच्छा और प्रेरणा रही है वैसे ही अब यह काम भी होगा। इसमें वक्त लग सकता है, मगर अब उतना कठिन नहीं रहा है।


    @प्रमोदसिंह
    रुक्क रुक्क वाला मामला ही सही है, धक्क धक्क काहे?

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  7. बहुत बहुत बधाई '

    बहुत ही उत्कृष्ट समीक्षा

    शुभ कामनाएं

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  8. शब्‍द यात्री है। इस यात्री के पांव बांधकर उसे निश्वित 'अर्थ' की कारा में डाल देना उसके साथ अन्‍याय है। होना यह चाहिए कि हम शब्‍दयात्री के सहयात्री बनकर यात्रानन्‍द लें। शब्‍दानन्‍द साथ होगा तो फिर ब्रह्मानन्‍द भी पीछे पीछे भागता हमारे साथ हो लेगा। अजीत ब्रह्मानन्‍द की निकटता का सुख दे रहा हैा उसे मेरे आशीष।। अभय जी ने अच्‍छी समीक्षा लिखी है। उन्‍हें भी साधुवाद ।...डॉ0कमलकांत बुधकर

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  9. शब्‍द यात्री है। इस यात्री के पांव बांधकर उसे निश्वित 'अर्थ' की कारा में डाल देना उसके साथ अन्‍याय है। होना यह चाहिए कि हम शब्‍दयात्री के सहयात्री बनकर यात्रानन्‍द लें। शब्‍दानन्‍द साथ होगा तो फिर ब्रह्मानन्‍द भी पीछे पीछे भागता हमारे साथ हो लेगा। अजीत ब्रह्मानन्‍द की निकटता का सुख दे रहा हैा उसे मेरे आशीष।। अभय जी ने अच्‍छी समीक्षा लिखी है। उन्‍हें भी साधुवाद ।...डॉ0कमलकांत बुधकर

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