शनिवार, 15 जनवरी 2011

कुछ नहीं खलता मुझे मैं कौन हूँ

कुछ नहीं खलता मुझे मैं कौन हूँ
सूरते हैरत हूँ या शक्ले जुनूँ

इश्क़ है सरमायाए दीवानगी
सिह्‌र कब पाता है उसको और फ़ुसूँ

आहो नाला ने मुझे रुस्वा किया
वरना पिन्हा था मेरा राज़े दरुँ

गर ना बहते लख़्ते दिल आँखों की राह
रंगे अश्क ऐसा न होता रश्के खूँ

हुस्ने जानां जलवागर हर शै में है
दीद में अपने नहीं कोई ज़बूँ

कौन पा सकता है मुझ गुमगश्तः को
दीन ढूंढे है आ के या दुनियाए दूँ

जिस ने पहचाना है अपने आप को
है नियाज़ अपने क़दम पर सर निगूँ


१. जादू
२. इन्द्रजाल
३. छिपा हुआ
४. दिल का राज़
५. दिल के टुकड़े
६. दूषित
७. खोया हुआ
८. अधम, नीच
९. सर झुकाए हुए



6 टिप्‍पणियां:

  1. मुझे भी स्वयं का होना कभी नहीं खला।

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  2. गजब की शायरी। आभार। यदि शब्दार्थ यहाँ उपलब्ध न होते थोड़ी मुश्किल हो सकती थी।

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  3. वाह वाह वाह....

    यह नया रंग देखा...

    कृपया इस तरह की नायाब कृतियाँ बीच बीच में पढवाते रहिएगा ....

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत
    बहुत खूबसूरत कलाम
    वाह !!

    जवाब देंहटाएं

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