रविवार, 21 नवंबर 2010

गीत का सिमसिमी जादू


पिछले दिनों गीत चतुर्वेदी का दूसरा कहानी संग्रह ‘पिंक स्लिप डैडी’ प्रकाशित हुआ। संग्रह में तीन लम्बी कहानियां हैं और तीनों ही महानगरीय जीवन के संकटों के आख्यान हैं। पहली कहानी गोमूत्र एक निम्नमध्यमवर्गीय दृष्टिकोण से कर्ज़ आधारित अर्थव्यवस्था में वैयक्तिक व्यथाओं की कथा है। किताब की आख़िरी कहानी ‘पिंक स्लिप डैडी’ मंदी के दौर में एक कौरपोरेट संरचना के भीतर से उसकी जटिलताओं का अक्स मानवीय आईने में दिखलाती कहानी है। हालांकि २००९ में लिखी इस कहानी का मूलाधार २००९ में ही प्रदर्शित अमरीकी फ़िल्म ‘अप इन दि एअर’ से कुछ मिलता है मगर गीत की कहानी में अपनी क़िस्म की परते हैं।

संग्रह की दूसरी कहानी ‘सिमसिम’, ज़िन्दगी की शुरुआत करते एक नौजवान और ज़िन्दगी की अंत पर खड़े मगर अपनी ज़िन्दगी की शुरुआती स्मृतियों में उलझे और तेज़ी से बदलती हुई दुनिया में अप्रासंगिक हो चुके एक बूढ़े के आपसी सम्बन्ध की कहानी होने से अधिक उस छवि की कहानी है जो इन दोनों चरित्रों को एक साथ रखने से बनती है। इस कहानी में किसी फ़िल्म की पटकथा जैसी बुनावट और गति है। वैसा ही कहानी के वातावरण का स्पन्दन पाठक अपने रोमों, पोरों में महसूस कर सकता है, जैसा अनुभव फ़िल्म देखते हुए होता है। और आधुनिक सार्थक फ़िल्मों ने जिस तरह की पुरातन क़िस्सागोई से दुश्मनी ले रखी है, वो यहाँ भी मौजूद है।

मेरी समझ में शिल्प की दृष्टि से गीत की यह कहानी बड़ी अनोखी और बेजोड़ है। गीत की काव्य प्रतिभा भी इस कहानी में सबसे अधिक उभर कर आती है। ऐसा लगता है कि गीत भी मेरे प्रिय लेखक विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता और उपन्यास (या लम्बी कहानी) में कोई मौलिक फ़र्क़ नहीं मानते। विनोद जी ने एक जगह कहा है, “उपन्यास कविता की देर तक की चहलक़दमी है।”

गीत की कहानियों में विचारों की, अनुभवों की ख़ूब चहलक़दमियाँ हैं। उनके पास कहने को बहुत कुछ है। किसी सामान्य सी रोज़मर्रा की भी घटना में वे बहुत कुछ देख लेते हैं। गीत अपने चरित्रों को बख़ूबी जानते हैं, उनके अनुभवों को बारी़कियों से पहचानते हैं। उनके परिवेश और सामाजिक दबावों को समझते हैं और देश-दुनिया की राजनैतिक-आर्थिक सच्चाईयों से उनके तार कैसे जुड़ते हैं, इसकी समझदारी भी रखते हैं गीत। और अपनी बेहद समृद्ध भाषा के मार्फ़त उनके अनुभवों और उनके मनोजगत के मर्म को व्यक्त करने में वे माहिर हैं।

किताब का कहीं से भी खोलकर पढ़ना शुरु कर दीजिये, आप को ख़ुले हुए दो पन्नों के बीच ही ऐसा कोई टुकड़ा मिल जाएगा जो आपके द्वार जिये हुए यथार्थ को ही, पहचाने हुए अनुभव को एक नई नज़र से दिखाता हो। कोई चकित करने वाली बात ज़रूर मिल जाएगी उन दो पन्नों के बीच। यह गीत की ताक़त है। गीत की एक और ताक़त किसी भी सामान्य घटना को उसकी सम्भावना की भौतिक सीमाओं के पार खींच ले जाकर उसके अन्तरविरोध को उभारने में भी है, जिसे आम तौर पर जादुई यथार्थवाद के नाम से बताया जाता है।

गीत वैचारिक रूप से बहुत सचेत हैं। जिस दुनिया में वे रह रहे हैं, जिस की कहानियाँ वे रच रहे हैं उसकी तमाम जानकारियाँ उनके पास है। और उस दुनिया के प्रति उनके सरोकार भी बहुत विकसित हैं, साथ ही उनके कलात्मक सरोकार भी। अपने शिल्प के प्रति भी वे बेहद सचेत हैं, ऐसा मालूम देता है। उनकी कहानियों में कोई तत्व यूँ ही ऊँघता हुआ, किसी बेहोशी में चला आया है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उनकी कहानी में सब कुछ सायास है, सोचा-समझा है।

लेकिन उनमें अजीब तरह का कुछ अनगढ़पन भी है। एक पाठक की तरह उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि कुछ बातों का अनावश्यक विस्तार है और कुछ चीज़ें जिन पर मैं और व़क्त गुज़ारने को तैयार था वो सूत्र गीत ने जल्दबाज़ी में निपटा दिये। लेकिन यह तो लेखक स्वयं ही तय करेगा कि किस तत्व को विस्तार कितना विस्तार देगा, और उसके पास तर्क भी होंगे इस चुनाव के पीछे। फिर भी पाठक शिकायत करने का तो हक़ रखता है।

मैं जानता हूँ कि उनकी कहानी की आलोचना करते हुए मैं साहित्य व कला के तमाम नए-पुराने आन्दोलनों से अपरिचित हूँ, सम्भवतः उनसे भी जिनको ध्यान में रखते हुए उन्होने अपने शिल्पगत चुनाव किए हैं, फिर भी एक पाठक के तौर पर मैं अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह कहने का अवसर ले रहा हूँ कि उनकी कहानी में अगर कोई कमज़ोरी है तो वह ये कि उसमें क़िस्सागोई का अभाव है।

गीत की कहानी कोई संस्पेंस कथाएं नहीं है। और सच बात तो ये है कि संस्पेंस कथा कभी सस्पेंस कथा नहीं होती। उसकी कहानी का ढांचा पहले से तय होता है। सिर्फ़ एक तत्व, एक तथ्य पाठक से छिपा लिया जाता है। और पाठक इस ढांचे में बड़े सुकून से बेचैन रहता है। जबकि जिस तरह की कहानियाँ गीत लिख रहे हैं वो पाठकों को वाक़ई में बेचैन कर सकती हैं क्योंकि वे न तो अपनी कहानी की दिशा की कोई पूर्वसूचना पाठक को देते हैं या कहानी को रोचक बनाने की कोई अतिरिक्त कोशिश करते हैं जैसे कि पुराने क़िस्सागो करते रहे हैं। और शायद इसी कारण से या किसी और कारण से पढ़ने वालों को लग सकता है कि वे चरित्रों से भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पा रहे या रस की सृष्टि में कुछ कमी रह गई।

इन के बावजूद गीत एक बहुत प्रतिभासम्पन्न लेखक हैं। वे युवा हैं और अभी तो यह शुरुआत है, आगे वे क्या और कैसे गुल खिलायेंगे इसे देखने की प्रतीक्षा है मुझे। और सच बात तो यह है कि उनकी प्रतिभा और महत्व का असली आकलन तो उनके बाद वाली पीढ़ी ही करेगी, जैसा कि हमेशा होता आया है।

7 टिप्‍पणियां:

  1. स्तरीय समीक्षा.. किताब के प्रति उत्कंठा जगाती..

    जवाब देंहटाएं
  2. उपन्यास कविता की लम्बी चहलकदमी है .कथादेश में विनोद शुक्ल ने अपने इंटर व्यू में यही कहा था .गीत जी पढ़कर लगता है ....ठीक कहा था ...उनका एक अपना स्टाइल है ....शायद हरेक की अपनी मौलिकता होती है

    जवाब देंहटाएं
  3. समीक्षक को सलाम । किताब पढ़ना शायद न होगा ।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी समीक्षा ने तो पुस्तक पढने को अति उत्सुक कर दिया...

    जवाब देंहटाएं
  5. एक दम सटीक समीक्षा ...आभार
    चलते-चलते पर आपका स्वागत है

    जवाब देंहटाएं

प्रशंसा, आलोचना, निन्दा.. सभी उद्गारों का स्वागत है..
(सिवाय गालियों के..भेजने पर वापस नहीं की जाएंगी..)