गुरुवार, 14 मई 2009

एफ़ टी आई आई में सरपत

पिछले हफ़्ते मेरी लघु फ़िल्म सरपत का फ़िल्म एण्ड टेलेविज़न इन्स्टीट्यूट में प्रदर्शन हुआ। भाई कमल स्वरूप दूसरे वर्ष के छात्रों के लिए एक वर्कशॉप का संयोजन कर रहे थे, उसी के एक हिस्से के बतौर सरपत भी छात्रों को दिखाई गई।

अभी तक सरपत दोस्तों-यारों को ही दिखाई गई थी। फ़िल्म का पहला सार्वजनिक मंच एफ़ टी आई आई जैसा प्रतिष्ठित संस्थान बना, यह मेरे लिए गर्व की बात है। दर्शकों की संख्या कोई बहुत बड़ी नहीं थी मगर फिर भी अनुभव सुखद था।




















फ़िल्म के बाद छात्रों से कुछ परिचर्चा भी हुई जिसमें उनकी तरफ़ से कुछ सार्थक प्रश्न आए और मैंने उनका सन्तोषजनक समाधान किया। एक चीज़ मेरे लिए ज़रूर सीखने का सबब बनी – मेरा परिचय। हमेशा से ही मैं अपने प्रति कुछ हिचिकिचाया, शर्माया रहता आया हूँ। यह दिक़्क़त मुझे वहाँ भी पेश आई।

मुझे हमेशा लगता आया है कि मैंने जीवन में कुछ भी बतलाने योग्य तो नहीं किया अब तक। इस फ़िल्म को बनाने के बाद से वह एहसास कुछ जाता रहा है। और इसलिए अब सोचा है कि इस शर्मिन्दगी से छुटकारा पा कर इसे अलविदा कहा जाय। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में लोग आप के बारे में सहज रूप से उत्सुक होते हैं और उस का सरल समाधान करना आप की ज़िम्मेदारी है उसमें शर्मिन्दगी की बाधा नहीं होनी चाहिये।

आजकल तमाम फ़िल्म-उत्सवों में सरपत को भेजने की क़वायद भी चल रही है। वे भी एक डाइरेक्टर्ज़ बायग्राफ़ी की तलब करते हैं- लगभग १०० शब्दों में। यह एक अच्छी कसरत है अगर कोई करना चाहे- अपने जीवन को सौ शब्दों में समेटना। वैसे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कुछ मुश्किल नहीं था जिसे लगता रहा हो कि जीवन में कुछ नहीं किया – सिवाय इस फ़िल्म के।

वैसे तो किसी भी चीज़ के बनने में तमाम चीज़ों का योगदान होता है। कुछ ऐसी जिनके प्रति व्यक्ति सजग होता है और तमाम ऐसी जो अनजाने ही मनुष्य को प्रभावित करती चलती हैं। मेरी इस रचना यात्रा में भी अनेकानेक चीज़ों की भूमिका रही है, अनजानी चीज़ों की तो बात कैसे कहूँ, पर जानी हुई चीज़ों में इस ब्लॉग की भूमिका प्रमुख है।

इस ब्लॉग पर लिखते हुए मैंने अपने सरोकारों को पहचाना, समझा, विकसित किया और अपनी अभिव्यक्ति को निखारा है। अकेले बैठे हुए सोचने और ब्लॉग पर लिखने में बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है- पाठक का।

पाठक के अस्तित्व में आते ही फिर आप जो लिखते हैं – अपने मन की ही लिखते हैं – मगर पाठक को केन्द्र में रखकर लिखते हैं। वह आप के भीतर एक उद्देश्य की रचना करता है और एक ऊर्जा का संचार करता है। अपनी पुरातन परम्परा के अनुसार पाठक भी एक देवता हो सकता है- जो आप के भीतर एक सकारात्मक परिवर्तन कराने में सक्षम है।

अपने इस नन्हे से क़दम को उठा पाने में सफल होने के लिए मैं आप सब की भूमिका का सत्कार करता हूँ और आप का धन्यवाद करता हूँ।


* तस्वीर में संस्थान के प्राध्यापक व मेरे मित्र अजय रैना सूचना पट्ट पर लिखते हुए।

11 टिप्‍पणियां:

  1. सरपत तैयार हो जाने की बधाई एवं इसकी सफलता के लिए अनेक शुभकामनाऐं.

    अब बतायें, हम जैसे चहेते कैसे देख पायेंगे इसे?

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  2. बधाईया . ना देख पाने और आपसे आपके दिल्ली प्रवास के दौरान ना मिल पाने के खेद के साथ

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  3. सरपत की एफटीआआई में स्क्रीनिंग के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा अभय जी

    हम तो उन खुशकिस्मतों में से हैं जिन्होंने सरपत को देखा है.

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  4. बहुत अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़कर। अब इस पिक्चर को देखने का इंतजार है।

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  5. फिल्म के पूरे होने की खबर ने खुशी दी। बधाई! कब देखने को मिल रही है?

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  6. आपकी इस सफलता पर बहुत बहुत बधाई...दिल्ली मे तो न देख सके...इंतज़ार है कि जल्दी ही किसी उपाय से फिल्म देखने को जल्दी ही मिलेगी...

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  7. हे कलाकार, बढ़े चलो । सप्रेम बधाई ।

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  8. अभयजी, धैर्य की एक सीमा होती है, ‘सरपत’ झटपट दिखवानें का कोई उपाय है?

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  9. अच्छा लगा जानकर,पर टिप्पणी करने वालों में मैथली जी और मुझे छोड़ दें तो बाकी सभी तक आपकी फ़िल्म पहुंच नहीं पायी है,कुछ उपाय तो करना होगा, क्यौंकि सरपत को देखने की मांग बढ़ती जा रही है,फ़िल्म इंस्टिट्यूट में लोगों ने देखा,ये खुशी की की बात है। लेकिन डिस्ट्रीब्यूशन वाला मामला तो सुलझाना ही पड़ेगा मित्र।

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  10. आपको बहुत-बहुत बधाईयाँ हैं।
    सरपत... सरपट चले...:-)

    मानव.

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