बुधवार, 28 जनवरी 2009

अस्तित्व के भीतर एक गड्ढा है!

पिछले कुछ महीनों से ब्लॉग पर सक्रियता कम हो गई थी.. और हाल में तो एकदम ही सन्नाटा रहा। एक दो दोस्तों ने शिकायत भी की मगर दो साल के ब्लॉग के रियाज़ ने मेरे ब्लॉग लेखन का एक ढाँचा बना लिया था और हाल के दिनों में मन जिन बातों में रमा हुआ था वो उस ढाँचे के अनुकूल नहीं थी। इस लिए ब्लॉग नहीं लिखा गया।

वैसे तो ब्लॉग भी मेरा, ढाँचा भी मेरा रचा हुआ और मन भी मेरा.. फिर दिक़्क़त क्या..? यही तो टेढ़ा सवाल है जिसके आगे बड़े-बड़े शूरमा चित हो जाते हैं। और मानव मन, मानव जीवन और समाज एक अजब पेचीदा गुत्थियों का शिकार हो जाते हैं। जिसमें सब कुछ मानव रचा हुआ ही है मगर अभिव्यक्ति को किनारा नहीं मिलता।

फ़िलहाल यह सोचा गया है कि लम्बी-लम्बी ब्लॉग पोस्टों के ढाँचे को नज़रअन्दाज़ करते हुए छोटी-मोटी जो भी बातें मन में कुलबुलायेंगी.. दर्ज करता चलूँगा।

सत्यम के निदेशक रामलिंग राजू के बारे में एक छोटी सी बात मेरी पत्नी तनु ने बड़ी मारक कह डाली एक रोज़.. बक़ौल उसके राजू के शुद्ध आर्थिक अपराध के पीछे एक भयानक आध्यात्मिक पोल है। उसने इतनी बड़ी संस्था को खड़ा किया.. दुनिया भर में अपनी एक साख बना ली और तब पर भी अपनी उपलब्धियों से उसे संतुष्टि नहीं हुई.. और अस्तित्व में एक गड्ढा बना रहा जिसे उसने इस तरह के आर्थिक गोलमाल के तुच्छ हथकण्डों के ज़रिये भरना चाहा।

ग़ौर करने लायक़ बात ये है कि राजू अपने भीतर के जिस के गढ़े को धन-लोलुपता के भाव से भरने की कोशिश में असफल रहा है.. वह कहीं न कहीं हम सब के भीतर है और हम सब अपनी-अपनी समझ से अपनी चुनी हुई चीज़ उसमें उड़ेलते रहते हैं।

18 टिप्‍पणियां:

  1. इसी गढ्ढे भरने की सतत प्रक्रिया में ही जीवन कब गुजर जाता है, पता ही नहीं चलता.

    आपकी वापसी देख अच्छा लगा. छोटी छोटी बातें हों या बड़ी-लिखते रहें-आते रहें.

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  2. ठीक कहा आपने. पूरे मानव समाज की गति इस मामले में एक जैसी ही है.

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  3. आपने सही फैसला लिया है , छोटी पोस्ट होगी तो पाठकों को भी सहूलियत होगी !

    गड्ढा भर जाय तो यह दुनिया ही बदल जाएगी . हो सकता है अच्छी हो जाय या फिर बुरी भी हो सकती है . गड्ढा न होता तो आदमी जंगल से ही शायद न निकलता !

    @ समीर जी , आजकल कुछ बुढापे से डरे हुए लगते हैं . अभी तो जवान हैं फिर व्यर्थ चिंता क्यों ?

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  4. इन्सान की ज़िँदगी ऐसे ही चलती है कोई पर्बत शिखर पर पहुँचना चाहते हैँ तो कोई गड्ढोँ मेँ -
    मेरी प्रविष्टी भी अवश्य देखियेगा -
    &
    hope you find it of some interest.

    http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_26.html

    - लावण्या

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  5. आपका आना बहुत अच्छा लगा, और कुलबुलाहट भी

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  6. खड्डॆ के बारे मे सही पर लिखते तो रहे . आपके गायब होने पर ब्लोगजगत मे बने खड्डे का क्या करे हम :)

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  7. तनुजी भी लिखें । ऐसे मौलिक विचार ,खुद ।

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  8. अजीब हाल है, आध्यात्म को छोड़ सभी खड्डे के पीछे पर गए हैं.. :)

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  9. अध्यात्म या गड्ढा तो हम तलाश रहे हैं राजू के कर्मों में। राजू की निगाह अर्थ पर थी। स्वार्थ उसमें अधिक प्रभावी था। शून्य चाहिए था पर अध्यात्म वाला शून्य नहीं बल्कि वह जो अंक के पीछे लगता है। उसे भूमि चाहिए थी। राजू खुद को अक्लमंद समझता था। राजू औरों को मूर्ख समझता रहा। क़यामत के दिन भी बच निकलने का आशावाद अक्सर राजू जैसे मूर्खों को ही होता है।
    नजरिये की बात है। माया में भी अध्यात्म है। रावण ने खुद की मुक्ति के लिए सारा प्रपंच रचा, ऐसी व्याख्याएं हैं। जहां कहीं कल्पना और पुराण असंतुलित होते हैं तो दार्शनिक दृष्टि उसे संभाल लेती है। अध्यात्म के गोले-तकिये अगल-बगल में लगा दिये जाते हैं। ये हमारी उदार दृष्टि है। रचनात्मकता भी है।

    आपकी अनुपस्थिति गड्ढा नहीं बन पाई थी:)

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  10. सही है, मुझे ऐसा लगता है कि मेरे भीतर भी एक गड्ढा है जिसके आकार का ठीक ठीक पता नहीं, मैं समझता था कि मैं जीवन में संतुष्ट व्यक्ति हूँ, किसी महत्वाकांक्षा के लिए ग़लत काम करने से डरता हूँ लेकिन बीच-बीच में लगता है कि लोग छोटे गड्ढे वाले लोगों को 'कमतर' समझने लगते हैं, फिर अपने आपको साबित करने का जज्बा हिलोर मारने लगता है, हम गड्ढे को थोड़ा गहरा करते हैं फिर उसकी गहराई देखकर घबराने लगते हैं, मेरे साथ तो ऐसा ही होता है...बाक़ी लोगों का पता नहीं....

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  11. राजू का वर्तमान उस के भूत काल के कामों का अवश्यंभावी परिणाम है, राजू इस परिणाम को पहले जानता था लेकिन अनदेखा करता रहा, यह सोच कर कि शायद यह परिणाम उस के जीवन मे न आए।

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  12. तनु जी की बात सौलह आने सच्।

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  13. आपने हमारी टिप्पणी प्रकाशित क्यों नहीं की ?

    मैं यह तो नहीं मान सकता कि एक साधारण सी टिप्पणी को आपने रोक रखा होगा।
    ज़रूर कोई तकनीकी खामी रही होगी।

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  14. भाई सही कह रहे हैं.....सचमुच मन के भीतर एक गड्ढा है....

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  15. आपको फिर से अपने बीच देख खुशी हुई। यह सही है कि न चाहने पर भी एक ढाँचा बन ही जाता है और अन्य तो क्या हम स्वयं भी उस ही के अनुकूल व्यवहार करते जाते हैं या लिखते जाते हैं। शायद इसीलिए विविधता से लिखना होगा, एक ढाँचे में रहकर नहीं। जब जो मन में आए लिखते रहिए।
    तनु जी की बात सही है। आप दोनों की बात मिलाएँ तो हम सब ढाँचे में रहे दिखते हुए भी अपने अपने गड्ढे भी भरने में लगे रहते हैं। अन्तर केवल इतना होता है कि कुछ लोगों के गड्ढे बिल्कुल निजी होते हें जिनकी दलदल में अन्य नहीं गिर पाते और कुछ के गड्ढे अन्य को भी लील जाते हैं।
    घुघूती बासूती

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  16. बहुत अच्छा लिखा आपने , किंतु बहुत दिनों बाद .
    लिखते रहिये ...

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