शनिवार, 31 मई 2008

मंत्री जी का सपना

तहलका के ताज़े अंक में देश के वित्त मंत्री माननीय पी चिदम्बरम साहब का इंटरव्यू छ्पा है जिसमें शोमा चौधरी ने कुछ करारे सवाल किए हैं और मंत्री जी ने कुछ ऐसी साफ़गोई से जवाब दिए हैं कि मेरी इस सरकार के प्रति रही सही शंकाए भी जाती रहीं। जैसे जब उनसे प्रदूषण के मामले पर पूछा गया कि "क्या जरूरी है कि हम विकास का वही रास्ता अपनाएं और वही गलतियां करें? क्या हमारा रास्ता अलग नहीं हो सकता?"

तो उनका कहना था कि “हमें भी विकसित देशों की तरह तरक्की करने का अधिकार है. कभी उनका मौका था. अब हमारा है…” यानी पर्यावरण को लगातार नुक़सान पहुँचा रहे औद्यौगिक इकाईयों के प्रति वे ‘त्वरित विकास’ के नाम पर आँख फेर लेना चाहते हैं। विकसित देशों ने जब ग़लतियाँ की तब पर्यावरण के खतरे इतने आसन्न न थे मगर हम सब कुछ जान-बूझ कर उस रस्ते क्यों जाना चाहते हैं जिस पर नाग बैठा हो?

माननीय मंत्री जी की ये बात सही है कि औद्यौगिकीकरण को अब वापस उलटाया नहीं जा सकता मगर उसे पर्यावरण के अनुकूल और अधिक मानवीय तो बनाया जा सकता है? कैनाडा और उत्तरी योरोप के कई देशों में औद्यौगिक समाज होने के बावजूद एक अन्तर्निहित मानवता भी है और ये संयोग नहीं है कि इन्ही देशों में पर्यावरण को लेकर संचेतना विकसित हुई है। अफ़सोस सिर्फ़ इस बात का है हमारा ग्राम्य समाज जो पहले से ही एक संतुलित पर्यावरण के आदर्श मॉडल पर खड़ा हुआ था.. उसके प्रति माननीय मंत्री जी के विचार बेहद अफ़सोसनाक है।

“गरीबी प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है. गरीब सबसे गंदी दुनिया में रहते हैं. उनकी दुनिया में सफाई, पेयजल, आवास, हवा...जैसी चीजें नारकीय अवस्था में होती हैं. हर चीज प्रदूषणयुक्त होती है. इसलिए मैंने कहा कि सबसे ज्यादा प्रदूषण गरीबी फैलाती है. ये हमारा अधिकार और कर्तव्य है कि पहले गरीबी को हटाया जाए.”

मंत्री जी ने यहाँ पर जिन ग़रीबों की बात की है वो साफ़ नहीं है कि किसे ग़रीब कह रहे हैं क्या ग़रीब से उनका अर्थ शहर की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले वो लोग जो गाँव से भाग कर आए हैं? पर ये अर्थ होता तो ऐसा क्यों कहते कि “गरीबी मुक्त भारत को लेकर मेरा जो सपना है उसमें एक बड़ी आबादी, तकरीबन 85 फीसद लोग शहरों में रहेंगे..” ज़ाहिर है के खातमा चाहने वाले मंत्री जी के विचार से शहर में रहने से ग़रीबी दूर होती है। तो फिर उनका अर्थ गाँव में रहने वाले करोड़ों-करोड़ ग़रीबों से होगा?

पर मंत्री जी जिन नारकीय तत्वों की बात कर रहे हैं क्या वे गाँव से ज़्यादा शहर की पहचान नहीं हैं? क्या औद्योगिकीकरण के पहले की दुनिया में इन तत्वों का प्रदूषण था? पेयजल की समस्या अगर रेगिस्तानी इलाक़ों को छोड़ दिया जाय तो कहीं नहीं थी.. ज़मीन में तीर मारने से पानी निकलता था, कुँए थे, बावड़ियाँ थी, तालाब थे, नदियाँ थी। आवास के लिए मीलों तक फैली ज़मीन थी। गन्दगी के नाम जैविक कचरा था जो सड़कर उत्पादक खाद में बदल जाता था। स्वच्छ हवा के लिए घने जंगल थे, उनकी समृद्ध जैविक विभिन्नता थी।

पर आज के शहरों में क्या हाल है? ऐसा कचरा है जो सदियों तक नष्ट नहीं होगा.. ज़हरीली गैसे हैं.. बांद्रा जैसे इलाक़ों में भी नलके से आने वाला काला पानी है..१० बाई १० के खोलियों में क़ैद दरज़नों लोग हैं..! और नारकीय अवस्था कहाँ हैं ये मंत्री जी के कुशाग्र मस्तिष्क के लिए अग्राह्य है या वे देश की आँखों में शुद्ध धूल झोंक रहे हैं..? सम्पन्नता के लिए मंत्री जी के एकमात्र उपाय औद्यौगिकीकरण ने ही तो वे सारे रोग पैदा किए हैं जिनको हल करने के लिए वे औद्यगिकीकरण का हक़ीम लाने की पैरवी कर रहे हैं। ये कैसा विरोधाभास है?

“गरीबी मुक्त भारत को लेकर मेरा जो सपना है उसमें एक बड़ी आबादी, तकरीबन 85 फीसद लोग शहरों में रहेंगे. महानगरों में नहीं बल्कि शहरों में. किसी शहरी वातावरण में जल आपूर्ति, बिजली, शिक्षा, सड़क, मनोरंजन और सुरक्षा को प्रभावी तरीके से मुहैया करवाना 6 लाख गांवों के मुकाबले ज्यादा आसान है.”

तो क्या उनका विश्वास है कि जैसे धारावी में दसियों लाख लोग एक सम्पन्न जीवन गुज़ार रहे हैं जहाँ उनको शिक्षा, पानी, और चिकित्सा आसानी से उपलब्ध कराई जा रही है? उनका मानना है कि गाँव-गाँव में ये सुविधाएं पहुँचाना बहुत टेढ़ी खीर है.. मगर शहर में आसान है?

मेरी समझ में ऐसे गाँव भी होंगे जहाँ प्राथमिक पाठशाला और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र न हो.. पर जहाँ हैं वहाँ उनको ठीक से चलाने की इच्छा-शक्ति सरकार की क्यों नहीं है। बहुधा गाँवों में समस्या ये नहीं है कि गाँव में बिजली के तार नहीं है.. समस्या ये है कि उन तारों में बिजली की आपूर्ति नहीं है? और गाँव की बात छोड़ दीजिये आप दिल्ली, मुम्बई जैसे शहरों के अलावा अन्य शहरों में इन सुविधाओं की क्या स्थिति है? मुम्बई में भी कई धारावी हैं और देश के तमाम छोटे-छोटे शहरों में भी तमाम छोटे—छोटे धारावी! वहाँ पर कितना पानी और कितनी बिजली मुहैय्या करा रहे हैं आप?

मंत्री जी कहते हैं कि वे शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, स्वच्छता आदि मदों पर अब तक की सबसे बड़ी धनराशि खर्च कर रहे हैं मगर पहले के मुक़ाबले उस राशि का वास्तविक मूल्य और बजट का प्रतिशत गोल कर जाते हैं।

यहाँ पर ये बताना भी उल्लेखनीय होगा कि शिक्षा के बजट के नाम पर जो पैसा खर्च किया जाता है उसका एक बड़ा हिस्सा आई.आई.एम जैसे संस्थानों को ग्रांट के तौर पर दान दिया जाता है जो अपने विद्यार्थियों से मोटी फ़ीस लेते हैं। क्या मंत्री जी कभी सोचते हैं कि मुनाफ़े की व्यवस्था के मूल्यों की शिक्षा देने वाले ये संस्थान राज्य की कल्याणकारी अवधारणा की छाँव में खड़े होकर अपना व्यापार क्यों करते हैं? मैं फिर पूछता हूँ ये कैसा विरोधाभास है?

मंत्री जी कहते हैं कि "ये एक साजिश है कि गरीब लोग गरीब ही रहें. हम जीवन की किस गुणवत्ता की बात कर रहे हैं? उनके पास खाना नहीं है, नौकरियां नहीं हैं, शिक्षा नहीं है, पेयजल नहीं है.." ..मैं पूछना चाहता हूँ मंत्री जी से जो देश की ८५ प्रतिशत जनता को शहर में धकेल देने के स्वप्नदर्शी हैं कि इन बहुसंख्यक लोगों को शहरों में बसाने के लिए उनके पास क्या ब्लूप्रिंट है.. और फिर अगर सचमुच उनकी चिंता ग़रीब लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास है तो इन बुनियादी ज़रूरतों को बाज़ार की मुनाफ़ाखोरी के हवाले क्यों कर दिया गया है? जबकि इंगलैंड जैसे अनेक योरोपीय देशों में प्राथमिक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतों की ज़िम्मेदारी राज्य वहन करता है। जबकि हमारे यहाँ उसे नोट काटने का धंधा बना दिया गया है।

मैं मंत्री जी के भोले भाले चेहरे पर उनकी मुस्कान पर विश्वास करना चाहता हूँ मगर फिर जब सोचता हूँ कि पाँच हज़ार बरस से ग़रीबी में रह रहे लोगों के लिए धड़कने वाले दिल के मालिक मंत्री जी सरकार में रहते हैं तो एनरॉन और वेदान्ता जैसे कम्पनियों के लिए मुनाफ़ा कमाने के लिए नीतियाँ मुकर्रर करते हैं और जब सत्ता से बाहर होते हैं तो उनकी लिए वक़ालत करते हैं तो मेरा दिल टूट जाता है। इतने भोले चेहरे का व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है?

पर सच यही है कि आदिवासियों की ज़मीन हड़पने, पर्यावरण का बलात्कार करने, नियमों की धज्जियाँ उड़ाने वाली माइनिंग कम्पनी वेदान्ता जो विश्व भर में बदनाम और निन्दित है उसके टैक्स मामलों की पैरवी पी चिदमबरम साहब करते हैं और उनके बोर्ड के डाइरेक्टर का पद भी सम्हालते हैं और सत्ता में आने पर इस सर्वनिन्दित कम्पनी को अयोग्य घोषित करने के बजाय उसे धंधा करने की खुली छूट देते हैं और उस पर सवाल करने पर भड़क जाते हैं-

उसका इससे क्या सबंध है? क्या आप अप्रत्यक्ष रूप से ये कह रही हैं कि मैं उनसे मिला हुआ हूं? अगर कोई वकील हत्या के मामले के किसी आरोपी की तरफ से जिरह कर रहा है तो क्या इसका ये मतलब है कि उसकी भी हत्या में मिलीभगत है?”

मिलीभगत का आरोप कौन लगा सकता है मंत्री जी पर ये सवाल तो बनता है कि आप ग़रीबों के खैरख्वाह हो कर उन लोगों की किसी भी मामले की पैरवी करते ही क्यों हैं जिन पर ग़रीबों की हत्या का आरोप हो?

मैं फिर भी नहीं कहता कि लोगों को गाँवों में ही बंद कर के रखा जाय.. अगर बहुमत शहरी सभ्यता को ही स्वीकार करना चाहता है और यही इतिहास की गति है तो मैं कौन होता हूँ किसी को रोकने वाला? मगर उन्हे भिखारी बना कर गाँव से शहर की ओर खदेड़ना में क्या जनहित हैं मेरी समझ में नहीं आता?

अपने सपने में एक और उल्लेखनीय बात मंत्री जी जोड़ते है “मैं ये भी मानता हूं कि एक बड़ी आबादी गांवों में रहना और खेती करना चाहेगी. इसका स्वागत होना चाहिए..” निश्चित ही ज़हर खा कर मरने की मानसिकता वाला किसान तो किसी तरह से खेती-बाड़ी से निकलने की मानसिकता रखता है तो फिर उनका इशारा ये किस आबादी की तरफ़ हो सकता है इसका फ़ैसला आप खुद करें!

अगर किसी दिन आप को अखबार के किसी कोने में छोटी इबारत में यह पढ़ने को मिल जाय कि देश की संसद ने सर्वसम्मति से क़ानून पारित कर दिया है कि अब देश का कोई भी नागरिक कहीं भी कितनी भी ज़मीन खरीद कर खेती कर सकता है तो आप को हैरान नहीं होना चाहिये।

7 टिप्‍पणियां:

  1. इंटरव्यू का लिंक गलत है कृपया सही कर लें.

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  2. सही कर लिया काकेश.. शुक्रिया!

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  3. काफ़ी विचारोत्तेजक इंटरव्यू और आपका लेख.
    कई सच्चाइयों से अवगत कराता और कई एक की पोल भी खोलता हुआ.

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  4. इन्टरव्यू और आलेख-दोनों बढ़िया. आभार यहाँ लाने का.

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  5. अभय भाई,
    बिल्कुल सही बात लिखी है।
    आपको पढा तो मुझसे भी लिखे बिना नहीं रहा गया।
    धन्यवाद।

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