शुक्रवार, 14 सितंबर 2007

अँधेरे में

चरन-कमल बंदौ हरि-राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधै को सब कुछ दरसाइ।


सूरदास के ऊपर ये हरि-राइ की कृपा थी या कुछ और कि आँख वालों से ज़्यादा देखने की शक्ति उन्हे मिली हुई थी। जो भी बात थी, अपने रंगीले श्याम के विविध रंगो को जिस दृष्टि से सूरबाबा देख गए और दिखा गए.. आज तक कौन देख पाया है भला।

नेत्रहीनों को अंधा कहें, सूरदास कहें या विज़ुअली चैलेन्जड या कुछ और.. मानते तो हम उन्हे विकलांग ही हैं। इस खयाल से कि उनके पास हम से कुछ कम है। मगर सभी लोग ऐसा नहीं सोचते.. ये चिंतन धीरे-धीरे बदल रहा है। मेरी एक मित्र रितिका साहनी की एक संस्था त्रिनयनी इस सामाजिक व्यवहार को बदलने के लिए लगातार काम कर रही है। इस विषय पर उन्होने स्थापित फ़िल्म निर्देशकों की मदद से कुछ लघु फ़िल्में तैयार की हैं। जिनमें से एक मेरे बेहद करीबी मित्र काबुल दा ने बनाई है।

काबुल दा कनाडा के मॉन्ट्रियल फ़िल्म स्कूल से प्रशिक्षित हैं और आजकल मुम्बई में डेरा डाले हुए हैं। उनके द्वारा कई टी.वी सीरियल तमाम पुरुस्कारों से नवाज़े जा चुके हैं। वे एक ऐसी प्रतिभा हैं जिनकी चमक से अभी काफ़ी दुनिया वंचित है। मैंने और काबुल दा ने मिल कर एक फ़िल्म स्किप्ट लिखी हुई है जिसे बनाने में प्रोड्यूसर्स घबराते हैं। काबुल दा का असल नाम इन्द्रनील गोस्वामी है; प्यार से लोग उन्हे काबुल दा पुकारते हैं।

त्रिनयनी द्वारा बनाई दूसरी फ़िल्में हाउ डज़ इट मैटर और डिसएबिलिटी अवेयरनेस, यू ट्यूब की साइट पर देखी जा सकती हैं। यहाँ देखिये काबुल दा द्वारा बनाई लघु फ़िल्म..डार्क..


8 टिप्‍पणियां:

  1. सचमुच हम में कुछ लोग अंधेरे में भी देख लेते हैं। शानदार फिल्म है।

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  2. शारीरिक सम्पूर्णता का दम्भ आधारहीन है। सम्पूर्णता कुछ नही । कुछों के बनाए मानक हैं बस ! त्रिनयनी का कार्य सराहनीय है ।

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  3. बहुत सुंदर और छू लेने वाली, छोटी सी फ़िल्म. ऐसी चीज़ों के बारे में अक्सर पता नहीं चलता, ख़ास तौर पर विदेश में बैठे लोगों को. समय समय पर हमारे अज्ञान का तिमिर मिटाते रहिए, इसी तरह. धन्यवाद

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  4. फिल्म बहुत अच्छी लगी। काकुल दा को मेरा सलाम कहें ।

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  5. बहुत बढ़िया. आभार इस हृदय स्पर्शी फिल्म को बांटने का.

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