शुक्रवार, 23 मार्च 2007

शब्दों में अर्थ नहीं है..

.. या जो अर्थ है उसके लिये है ही नहीं शब्द..?
.. क्या कह देने से चीज़ें सुलझ जाती हैं.. या कहना भ्रमों की शुरुआत है..?
.. लेकिन अभी भी शब्दों पर विश्वास है...
क्या शब्द ज़्यादः महत्वपूर्ण है, या शब्द जिसका सार है...?
...प्यार करना ज़्यादः सच है या ये कहना कि प्यार है..?
... क्या हिंसा वैसे ही दिखाई देती है जैसे पिस्तौल की नली.. या उसका कुछ अलग आकार है...?



लिखा १९९१-९२ में, काल के किसी क्षुब्ध खण्ड में... आज याद आई..

1 टिप्पणी:

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