tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post939407995754231419..comments2023-10-27T15:06:34.550+05:30Comments on निर्मल-आनन्द: संस्कृति की अश्लील परम्परा उर्फ़ बहुत हुआ सम्मानअभय तिवारीhttp://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-53367616813798011322010-03-06T14:41:14.068+05:302010-03-06T14:41:14.068+05:30माफ कीजियेगा टिप्पणी अधूरी पब्लिश हो गई थी .... फि...माफ कीजियेगा टिप्पणी अधूरी पब्लिश हो गई थी .... फिर भी आपने खोल कर लिखने की कोशिश तो की है, अब ज़रा इसा समानांतर जन संस्कृति पर लोग लिखने से थोड़ा सकुचाते हैं|VIMAL VERMAhttps://www.blogger.com/profile/13683741615028253101noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-66454801685974124942010-03-06T14:23:29.759+05:302010-03-06T14:23:29.759+05:30अभयजी,जो आप कहना चाह रहे हैं वो स्पष्ट तो हो रहा ...अभयजी,जो आप कहना चाह रहे हैं वो स्पष्ट तो हो रहा है, पर बनारस के होली वाले इस सम्मलेन के बारे सूना बहुत था..."बहुत हुआ सम्मान....अपने मित्र से सुना भी है ....पर यहाँ मुंबई में इसी तरह का समारोह होली के विशेष अवसर पर मलाड में होता है...पर उसमें राजस्थान के लोक गायक होते है और पूरे राजस्थानी पोशाक में और साज़ भी पारंपरिक होते हैं और होली की ऐसी ठिठोली रात भर चलती है ....मुंबई में ११ बजे के बाद आप कोई कार्यक्रम कर नहीं सकते पर ये लोग सुबह चार बजे तक पूरे मस्ती के साथ नाचते हुए गाते हैं ....आपने संदर्भ ही ऐसा उठाया है की आप बहुत खुल कर लिख भी नहीं पायेंगे ......पर फिर भी आपने खोल कर लिखने की कोशिश तो की है अब ज़रा इसा समानांतर जन सVIMAL VERMAhttps://www.blogger.com/profile/13683741615028253101noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-65773137403009740742010-03-06T00:46:01.898+05:302010-03-06T00:46:01.898+05:30पहले तो ये की कई दिनों के बाद कोई चटपटा आचार आया ह...पहले तो ये की कई दिनों के बाद कोई चटपटा आचार आया है (बादाम गिरी के बाद) | कई दिनों बाद आखिर होली पर अपने इश्टाइल में डंका मार ही दिया | अरविन्द जी के उलट मेरी इच्छा तो ये थी की थोडा और ज्यादा होता तो और मजा आता ताकि मैं कह सकूँ ये तो एक ही लेख हुआ अगली बार एक और ऐसा ही लिखना | भई चकाचक जी वाले किन्ही गीतों की सोफ्ट कोपी मुझे मेल पर मिल जाये तो मजा आ जाये |<br /><br />धारा अपनी दिशा तो बदल रही है चकाचक जी हो या कोई और लेकिन <b>आपकी शिकायत शायद बदलाव की स्पीड को लेकर है |</b> तुलसी से वामपंथ तक आने में 500 साल और साद को आने में और 150 साल और लग जायेंगे | नहीं | इस बार नहीं | मेरे ख्याल में बस दो पीढियां और बस, मतलब 40 से 50 साल में | इस दौर में अगर BC सुट्टा और दुसरे कुछ और ब्लाक बस्टर songs युवाओं के लिए भजन बन सकते हैं तो आने वाले समय में साद क्यों नहीं, बदलाव सूचना तकनीकी के कारण अपनी स्पीड लगातार बढाता चला जायेगा |<br /><br />पर एक बात जो पक्की है कि ये आदमी का जो मुखोटा है ये शायद कभी ख़तम नहीं होगा | धाराएँ संख्या में हमेशा दो बनी रहेंगी, लगता तो ऐसा ही है, एक official version और एक गुमनाम internal version. अब देखिये न जिस प्रथम सहवास वाले पश्चिमी समाज को आप और हम इतना खुला समझते हैं वहां भी Tiger Woods जैसों को भी विवाहेत्तर संबंधों के लिए धुल में मिल जाना पड़ता है | पत्नी का दूर होना तो ठीक पर बेचारे को पता नहीं कितने अनुबंधों से हाथ धोना पड़ा, रातों-रात इतनी भव्य अपकीर्ति को प्राप्त हुए | कंपनियों को ऐसा क्यों लगता है कि <b>इस</b> तरह के समाज के लोग <b>उस</b> तरह कि बात को इतनी तवज्जो देंगे कि उनके प्रोडक्ट की साख खराब हो जाएगी | क्या इतने महान खिलाडी का इतना महान खेल और प्रतिभा उन लोगों के लिए अब कोई मायने नहीं रखती ? इसका क्या मतलब हुआ | मतलब यही की मुख्य धारा कभी नहीं हारने वाली है , अश्लील धारा को उसकी हदबंदी में रहना ही पड़ेगा लगता है | अभयजी क्या आपको भविष्य में कोई उम्मीद या कारण नज़र आता है इस हदबंदी के टूटने का ? अविनाश जी ने यही बात चार पंक्तियों में कह दी है |<br /><br />हिंसा के अलावे अधिक ख़ुशी में भी गालियाँ निकलती हैं | बहुत से यार-दोस्तों में तो 24 घंटे की बातचीत में एक न एक गाली हर sentence का उपसर्ग बनकर आती है | अब मुझे ये नहीं पता ये कोनसा complex है ; शायद ओडिपस to ओडिपस ओब्सेसन <b>;-)</b>योगेन्द्र सिंह शेखावतhttps://www.blogger.com/profile/02322475767154532539noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-64258166904142418762010-03-06T00:33:16.256+05:302010-03-06T00:33:16.256+05:30बड़ा मसाला है ,,,, फिर औबइ भाय !!!!!!बड़ा मसाला है ,,,, फिर औबइ भाय !!!!!!Amrendra Nath Tripathihttps://www.blogger.com/profile/15162902441907572888noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-91561550128857735882010-03-05T23:52:54.571+05:302010-03-05T23:52:54.571+05:30आपके आलेख के पहले वाले भाग की बात करेंगे.............आपके आलेख के पहले वाले भाग की बात करेंगे...........नंगापन सभी दिखाते हैं पर नंगा कोई नहीं होता. क्या आदमी क्या औरत, इसे ऐसे देखिये कि ये भी जीवन के आनंदों में एक आनंद है, आपके ब्लॉग के नाम की तरह.............निर्मल आनंद.<br />काशी के इस कवि सम्मलेन के चकाचक जी की ये कविता छात्रों के लिए बड़ी ही आनंद कारी होती थी और आज भी है..............<br />हम लोग आज भी कुछ पंक्तियाँ आपस की चर्चा में गाते हैं.....................<br />"सुबह से हो गई शाम,<br />तुम्हारी................<br />बंद करो मतदान,<br />तुम्हारी...............<br />बढ़िया आलेख किन्तु बड़ा होने के कारण सही ढंग से समझ नहीं सके........<br /><b>जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड</b>राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगरhttps://www.blogger.com/profile/16515288486352839137noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-36704616007730476942010-03-05T22:25:14.361+05:302010-03-05T22:25:14.361+05:30अजीत जी की बात से सहमत हूं। गालियां वाकई एक सेफ्टी...अजीत जी की बात से सहमत हूं। गालियां वाकई एक सेफ्टी वाल्व की तरह काम कर रही हैं हमारे समाज में।संदीप कुमारhttps://www.blogger.com/profile/01263206934797267503noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-63101342570613975652010-03-05T18:58:26.417+05:302010-03-05T18:58:26.417+05:30गालियों में यौनांगों के प्रति हिंसा का नहीं प्रेम ...गालियों में यौनांगों के प्रति हिंसा का नहीं प्रेम का भाव ही है। हिंसा की अवधारणा अतिबौद्धिकतावाद है। दरअसल लक्षित व्यक्ति के निकट संबंधियों से मैथुनिक संबंध स्थापित कर उसके संस्कारों को झिंझोड़ने वाली परपीड़कता इसमें नज़र आती है। सहज हिंसा से ही काम चलता तब हिंसक होने पर रोक कहां थी?<br />गालियों ने तो समाज में हिंसा की संभावना को काफी कम किया है। गालियां दरअसल हिंसा की भूमिका नहीं, बल्कि हिंसा से बचाव का एक जरिया रही हैं। काम चल जाए तो ठीक नहीं तो हिंसा तो है ही। <br /><br />आपसे सहमत हूं।अजित वडनेरकरhttps://www.blogger.com/profile/11364804684091635102noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-2406374763505931662010-03-05T18:36:13.865+05:302010-03-05T18:36:13.865+05:30ओडिपस काम्प्लेक्स गलियों के रूप में सामने आता है, ...ओडिपस काम्प्लेक्स गलियों के रूप में सामने आता है, इलेक्ट्रा काम्प्लेक्स किस रूप में अभिव्यक्त होता है?ab inconvenientihttps://www.blogger.com/profile/16479285471274547360noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-66832907142940616902010-03-05T17:42:53.889+05:302010-03-05T17:42:53.889+05:30वो जो एक आनंद था
उसे जाहिर आपने किया
आनंद लेना स...वो जो एक आनंद था<br /><br />उसे जाहिर आपने किया<br /><br />आनंद लेना सब चाहते हैं<br /><br />पर स्वीकारना सब नहीं।अविनाश वाचस्पतिhttps://www.blogger.com/profile/05081322291051590431noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-87115792146654172632010-03-05T14:48:22.604+05:302010-03-05T14:48:22.604+05:30एक खर्रा मैंने भी पाया था कहीं अस्सी की होली से सं...एक खर्रा मैंने भी पाया था कहीं अस्सी की होली से संबंधित.....तब शायद मुलायम राज में गेस्ट हाउस कांड वगैरह हुआ था। लिखने वालों ने उसमें ऐसे छपकोर, ऐसे ऐसे बिनठौर पंक्तियां लिखीं थीं कि लगा कि बस.....इसके आगे का राजनीतिक निकटाभिगमन कुछ और नहीं हो सकता। <br /><br /> मैंने भी वह खर्रा केवल पढा भर था। घर में रखने की हिम्मत न तब थी... न अब है ।<br /><br /> जहां तक गालीयों की बात है, मेरा मानना है कि किसी इलाके के गालीयों को सुनने समझने से उस इलाके के लोगों की सामाजिक, मानसिक, आर्थिक स्थिति या कह लें कि उस पर्टिकूलर इलाके के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है, बस थोडा सा विवेक का इस्तेमाल करना होता है। <br /><br /> अच्छी पोस्ट।सतीश पंचमhttps://www.blogger.com/profile/03801837503329198421noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-27851592724969084812010-03-05T13:14:26.492+05:302010-03-05T13:14:26.492+05:30अरविन्द भाई,
संस्कारित नहीं कर रहा.. एक तरह से आ...अरविन्द भाई, <br /><br />संस्कारित नहीं कर रहा.. एक तरह से आप कह सकते हैं कि संस्कार पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देने के विरुद्ध विरोध दर्ज़ कर रहा हूँ.. <br />लेकिन ख़ुद संस्कार और वामपंथ दोनों की परम्परा होने के कारण.. शैली संस्कारबद्ध हो गई है.. माफ़ी चाहता हूँ..<br /><br />मनोज,<br /><br />इतने दिनों तक ब्लौग पर अनजान बने रहे हौस्टल के साथी.. आभासी दुनिया का क्या खेल है! अजनबी दोस्त हो जाते हैं और दोस्त अजनबी रह जाते हैं.. शुक्र है कि अब मेल हो गया है..अभय तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-76141568521474370362010-03-05T12:56:45.613+05:302010-03-05T12:56:45.613+05:30इसे दो अंको में नहीं दे सकते थे अभय जी ?
मैं तो प...इसे दो अंको में नहीं दे सकते थे अभय जी ?<br />मैं तो पूरा लेख पढ़ कर और भी कन्फ्यूज्ड हो गया हूँ की आपकी निष्पत्ति क्या है?रपट से अलग हट कर .....<br />मतलब आप कहना क्या चाहते हैं -अगर आपसे यह अनुरोध किया जाय कि आप इस पोस्ट की संक्षिप्ति देना चाहें तो क्या<br />कृपा कर दे सकेगें ?<br />जहां थक अपनी बुद्धि के मुताबिक़ पकड़ पाया हूँ -लोक मत और विद्वत मत -लोकाचारों और विद्वानों के विमर्श के द्वंद्व को आपने प्रकट करना<br />चाहा है -भदेसपना को संस्कारित करना चाहा है आपने ?<br />यह निश्चित ही बड़ी विशेषज्ञता की मांग करता है -कबीर तुलसी बनकर ही ऐसा संभव है .<br />अब तुलसी का ही देखिये -कहते हैं -कहब लोकमत वेदमत नृपनय निगम निचोर !<br />अरे मैं भी आपकी ही शैली अख्तियार करने लगा -दुहाई हो सत संगत की !Arvind Mishrahttps://www.blogger.com/profile/02231261732951391013noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3447425639729337005.post-54206276697986302742010-03-05T11:44:24.627+05:302010-03-05T11:44:24.627+05:30""ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ...""ये नंगापन था, लेकिन कोई नंगा नहीं था। ये पाशविक वृत्ति की उपज थी, पर भाषा और गायन की मानवीय उपलब्धियों में आबद्ध था। शारीरिक उद्वेगों की ये सामाजिक अभिव्यक्ति थी। जाति और धर्म की सीमाओं को तोड़ सभी को जोड़ देने वाली यह संस्कृति थी। जन संस्कृति थी। लेकिन किसी भी सभ्य हलक़ों में इस 'जन संस्कृति' को मान्यता नहीं थी। नहीं है.......""<br />इस पोस्ट नें बीती स्मृतियों को ताज़ी कर दिया ,मैं भी तो साथ ही हर घटना का चश्मदीद रहा हूँ न.<br />जब बनारस में वैसे अलमस्त लोग नहीं रहे तो भला अस्सी का सम्मलेन ......?सब कुछ चकाचक जी के साथ ही विलीन हो गया.<br />अस्सी के कविसम्मेलन में बेजोड़ लाइनों को नोट करनें की कितनी ललक छात्रावासों में रहती थी .<br />कई एक मुद्दों,वर्जनाओं पर बेबाकी के साथ राय प्रगट करती हुई बढ़िया पोस्ट.डॉ. मनोज मिश्रhttps://www.blogger.com/profile/07989374080125146202noreply@blogger.com