शनिवार, 14 अप्रैल 2012

छलांग


जब से शादी हुई है, शांति छै अलग-अलग मकानों में रह चुकी है। किराएदार कहीं मकान पर क़ब्ज़ा न कर ले- इस डर से कोई मकानमालिक दो-तीन बरस से अधिक रहने ही नहीं देता। हर मकान के खिड़की, दरवाज़ों और दीवारों का अपना एक अलग चरित्र होता है जिसके साथ तालमेल बैठने में कुछ समय लगता है। और जब तक इन्सान उस चरित्र के साथ रहनेवाले आराम का कोई समीकरण बना पाए, तब तक किराएदारों के मकान से बाहर होने की बारी आ जाती है। 

शांति को इस मकान में आए लगभग डेढ़ साल होने को आया। यह मकान शांति के रहे हुए पहले के सभी मकानों से अपेक्षाकृत बड़ा और हवादार है। तीन दिशाओं में खुलने वाली बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ और एक कुशादा बालकनी भी है। मगर सभी खिड़कियों पर लोहे की जाली जड़ी हुई हैं यहाँ तक कि बालकनी के आगे भी लोहे का एक भारी जंगला लगा के उसे बंद कर दिया है। तो बालकनी और खिड़कियों से हवा और धूप तो आ सकती थी मगर किसी जानवर या आदमी का आ पाना नामुमकिन है। कबूतर- चूहे और गिलहरी जैसे छोटे जानवरों के लिए अलबत्ता कोई रुकावट नहीं है।  यह जंगले और जालियां सुरक्षा के नज़रिये से परे शांति के लिए बड़ी परेशानी का सबब रहीं। पहले के मकानों की खिड़कियों में भी जंगले थे मगर इस मकान के जंगले कुछ ज़्यादा ही सघन हैं। ऐसी कि खिड़की से बाहर झांकते हुए नज़र बाहर पसरने के बजाए जंगले से ही उलझ कर वहीं दम तोड़ देती। घर के काम-काज के बीच कुछ पल के अवकाश के कुछ पल चुराने के लिए घर के किसी भी कोने से बाहर के संसार पर नज़र फ़ेरते हुए कभी जो सुस्ताती तो एक मुक्ति के भाव को प्राप्त होने के बजाय और बन्धन में बँधा हुआ महसूस करती। कभी तो उसे ख़ुद के घर के भीतर क़ैद होने का एहसास होता तो कभी उसे आकाश समेत शेष संसार के जंगले के बाहर बंद होने जैसी भाव ग्रस लेता।  

दूसरे का मकान है, कितने दिन रहना है, किसी तरह दिन काट लो आदि भावों से ग्रस्त होकर शांति अपनी परेशानी को ज़ब्त करती रही। मगर तीन महीने पहले जब मकानमालिक से सामना हुआ तो शांति के मन की बात बाहर आ ही गई। 
'आप के मकान में सब अच्छा है.. बस ये जंगले निकलवा दीजिये! '
'क्यों? '
'बहुत घुटन होती है.. लगता है जेल में बंद हैं.. '
'क्या बात कर रही हैं आप.. इस से तो बड़ी हिफ़ाज़त रहती है.. '
'हिफ़ाज़त तो जेल में भी बड़ी रहती है.. '
मकानमालिक लाजवाब होकर भी हुज्जत करते ही रहे। लेकिन शांति के बार-बार आग्रह करने पर मकानमालिक ने अगले महीने निकाल देने की बात पर विदा ली। पर शांति को दिख रहा था कि वो वाएदा कम और टालना ज़्यादा था। इस बात को लगभग तीन हफ़्ते गु़ज़र गए थे जब कॉलोनी में एक हादसा हो गया। 

शांति इमारतों के जिस संकुल में रहती है उसी के नज़दीक में एक नई बीस मंज़िला इमारत रॉक्सी हाईट्स खड़ी हो गई थी। पिछले चार-पाँच महीनों से उसकी कुछ खिड़कियों में बत्तियां भी जगमगाने लगी थीं। पिछले हफ़्ते जब वो दफ़्तर से आ रही थी तो उसने देखा कि रॉक्सी हाईट्स के आगे कुछ लोगों की भीड़ जमा है जिसके चलते ट्रैफ़िक चींटी की चाल पर उतर आया है। उसके स्कूटर के पास रुके मोटरसाइकिल वालों की गुफ़्तगू पर कान देने से उसे पता चला कि किसी नौजवान से इमारत की बारहवीं मज़िल से क़ूद कर जान दे दी। इस हौलनाक ख़बर के साथ ही ट्रैफ़िक में थोड़ी हलचल हुई और शांति को अपने उमड़ रहे जज़्बात को किनारे कर के घर की दिशा में स्कूटर आगे बढ़ाना पड़ा। 

लौटकर आई तो सारे कॉलोनी में इसी हादसे की चर्चा हो रही थी। पार्किंग में स्कूटर खड़ा करके घर के अन्दर दाखि़ल होने तक शांति को मरने वाले की कहानी के कई संस्करण सुनने को मिले। और अगली सुबह अख़बार में उसी हादसे की सुर्ख़ी थी और तफ़्सील भी। ख़ुदकुशी करने वाले नौजवान की उमर कुल बत्तीस साल थी, एक बड़े बैंक का मैनेजर था, लाख रुपये के ऊपर तनख़्वाह थी, मगर प्रेमविवाह करने के बाद तलाक़ हो गया था। उसके बाद बैंक की ही किसी जूनियर अधिकारी से प्रेम करने लगा था मगर वो विवाहित थी और अपने पति को छोड़ने को तैयार न थी। जिस दिन यह हादसा हुआ वो महिला भी उसके साथ फ़्लैट में मौजूद थी। नौजवान दिन से लगातार शराब पी रहा था तो न जाने किस भावुक मौक़े की उत्तेजना में उसने बालकनी से नीचे छलांग मार दी।  

उस दिन दफ़्तर में इस मामले की तार्किक, नैतिक और भावुक चीरफाड़ हुई। किसी ने नए क़िस्म के शहरी जीवन और पश्चिमी मूल्यों को दोष दिया, किसी ने शराब को तो किसी ने नौजवानी को। एक साहब ने तो हद ही कर दी- उन्होने बिना जंगले की बालकनी को दोष दे डाला। उनके मुताबिक़ इन्सान के भीतर गाहे-बगाहे ऐसी भावना उमड़ती ही रहती है- ऊँची इमारतों में खुली बालकनी रखना तो मरने वालों को दावत देना है। और आगे उन्होने दिल्ली की क़ुतुब मीनार की मिसाल भी दे डाली जिसकी ऊपरी मंज़िलों में आज भी जाने की मनाही है क्योंकि जब रोक नहीं थी तब आए दिन कोई न कोई वहाँ से छलांग मार देता। बात यहीं ख़तम हो जाती तो कुछ न था। इस के अगले ही रोज़ जिस महिला के तथाकथित प्रेम में नौजवान ने अपनी जान दी थी, उस महिला ने भी अपनी चार मंज़िला इमारत की बालकनी से छ्लांग मार दी। 

इस मामले की मार्मिकता से अलग शांति के मन में एक अलग ही आशंका पलने लगी। अपने मकान की बालकनी के ख़िलाफ़ जो अभियान उसने मकानमालिक से साथ छेड़ा था, उस अभियान की सफलता पर काले बादल मंडलाते हुए उसे नज़र आने लगे। और हुआ भी वही जिसका उसे डर था। अगली दफ़े जब मकानमालिक साहब आए तो वो बालकनी के जंगले निकालने के अपने आधे वाएदे से सरासर मुकर गए। कहने लगे कि वो अपने किराएदारों के साथ किसी भी हादसे होने की सूरत पैदा करना नहीं चाहते थे। 

शांति की नज़र और ख़याल के विस्तार के अरमान तो धरे के धरे रह गए। उलटे उसने देखा कि वो मकान जिनकी खिड़कियों-बालकनी में पहले कोई जाली-जंगले नहीं थे, उनमें से तमाम पर चमचमाते काले नए लोहे जड़े दिखाई देने लगे। तय था कि लोग डरे हुए थे। उन सब के भीतर कोई था जो छलांग मारना चाहता था या उन्हे लगता था कि उनके परिवार के भीतर कोई है जो मार सकता है कभी भी छलांग।  

*** 

२२ जनवरी को दैनिक भास्कर में छपी.


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