सोमवार, 21 नवंबर 2011

ये रिक्षेवाले


हुआ ये था कि बीच राह में टंकी का गला सूख गया और स्कूटर की आवाज़ बंद हो गई। किसी तरह धकेलकर शांति ने स्कूटर एक परिचित की इमारत में खड़ा किया और घर लौटने के लिए स्कूटर खोजने लगी। जब दूर-दूर तक तीन पहियों वाली कोई पहचानी आकृति नहीं दिखी तब पता चला कि शहर में तो हड़ताल है रिक्षेवालों की। वो अपने किराए में बढ़ोत्तरी माँग रहे हैं। कहते हैं कि माँ भी बच्चे को रोने पर ही दूध पिलाती है। और रिक्षेवाले जानते हैं कि सरकार माईबाप होती है।

शांति की तरह बाक़ी शहरियों की रिक्षेवाली की समस्या में कोई रुचि नहीं थी वो सिर्फ़ घर लौटना चाहते थे मगर स्वार्थी, खुदगर्ज़ रिक्षेवाले अपनी ज़रूरतों का राग अलाप रहे थे। सारे रिक्षेवाले शहर की सतह से ग़ायब हो गए थे, ऐसा नहीं था। वो वहीं थे पर कहीं भी जाने से मुन्किर थे। कुछ गद्दार भी थे जो मोटे किराए के लालच में इस मौक़े का फ़ाएदा उठा रहे थे। घर जाने को बेचैन सभी नागरिक ऐसे गद्दारों की तलाश में थे और उन्हे मीटर से अलग मोटे भाड़े के लालच से लुभा रहे थे। फिर उनके राज़ी न होने पर उन्हे गलिया भी रहे थे। शांति ने इस तमाशे को थोड़ी देर देखा, सहा, ग़ुस्से से लाल-पीली होके दो-तीन रिक्षेवालों को बुरा-भला भी कहा। कुछ देर में अजय आ गया। अजय अपनी गाड़ी से कुछ पेट्रोल निकालकर शांति के स्कूटर में डाल सकता था मगर शांति जिस मूड में थी उसे देखकर वो सीधे शांति को अपनी गाड़ी में बिठाकर घर आ गया।

अगले दिन भी हड़ताल थी। दो दिन की हड़ताल से पूरे शहर के नागरिक आजिज़ आ गए और तन-मन-धन से रिक्षेवालों के विरोधी हो गए। अख़बारों में रिक्षेवालों की जनविरोधी व्यवहार के विरुद्ध बड़े-बड़े लेख लिए गए। शहर के एक लोकप्रिय रेडियो स्टेशन ने रिक्षेवालों के विरुद्ध मीटर डाउन आन्दोलन चलाया -जिसमें वो हर ऐसे रिक्षेवाले का नम्बर पुलिस में शिकायत करते जो उन्हे मनचाही जगह ले जाने से मना करता है। शहर में गुण्डागर्दी के बल पर अपनी साख बनाने वाली प्रगतिशील सेना ने शहर में कई रिक्षेवालों की पिटाई कर दी और तीन रिक्षों को आग लगा दी। शहर के पुलिस कमिश्नर ने जनता की सहायता के लिए पूरे शहर में सादे कपड़ों में सिपाहियों को तैनात कर देने का ऐलान किया जो बदतमीज़ और अक्खड़ रिक्षेवालों को क़ानून के दायरे में लाएंगे।

शांति ने तीसरे दिन सुबह जब यह बातें अख़बार में पढ़ी तो उसे थोड़ी अटपटी लगीं- ख़ासकर ये अक्खड़ शब्द।
'ये तो अजीब बात है.. ! '
'क्या.. ?' अजय ने चाय पीते-पीते पूछा।
'ये रिक्षेवालों को अक्खड़ क्यों कह रहे हैं..? '
'क्यों अक्खड़ नहीं वो लोग.. ? मैं तो कहता हूँ मक्कार भी है.. जब हमारी ज़रूरत होती है.. तो कितना भी पुकारो सुनते ही नहीं.. देखते ही नहीं.. और दोपहर के वक़्त जब कोई भाड़ा न मिल रहा हो तो धीरे-धीरे हार्न बजाते हुए पीछे-पीछे चलते हैं.. पालतू कुत्ते की तरह.. दुम हिलाते हुए.. '
'ठीक है.. मैं मानती हूँ.. वो करते हैं ऐसा.. पर हर रिक्षेवाला अक्खड़ होता है.. ये मैं नहीं मानती.. ये तो पूर्वाग्रह है.. ये तो वैसे ही है जैसे कोई कहे कि हर पोस्टमैन डरपोक होता है.. ? अक्खड़पन या डरपोकपन किसी एक व्यक्ति का गुण हो सकता है किसी समूह का नहीं.. '
'तो तुम्ही बताओ कि क्यों करते हैं वो ये सब.. ? '
'ये ठीक बात है कि मैं कल बहुत पक गई थी उनके व्यवहार से.. पर अगर वो कहीं नहीं जाना चाहते तो मैं कौन होती हूँ उनको मजबूर करने वाली..? आज़ाद देश है.. कोई ज़बरदस्ती तो नहीं.. '
'अरे ये क्या बात हुई? कल को स्कूल का मास्टर भी कह दे कि मैं इस बच्चे को पढ़ाऊँगा और इसे नहीं.. '
'मास्टर भले न कहते हों पर स्कूल तो कहते हैं.. और हम कुछ भी नहीं कर सकते? '
'अच्छा तो दुकान वाला कहे कि मैं इसे माल दूँगा और उसे नहीं.. दुकान खोली है तो सबको माल देना पडे़गा.. '
'ऐसा कोई नियम नहीं है.. दुकान वाला अगर चाहे तो आप को माल न बेचे.. आप उसे मजबूर नहीं कर सकते! '
'अच्छा छोड़ों उन्हे.. अगर बैंकवाला अपने मन से लोगों के साथ से व्यवहार करे.. एक को पैसे निकालने दे.. और दूसरे को मना कर दे.. तो? '
'बैंकवाला बैंक का नौकर है.. उसे निश्चित तारीख़ पर निश्चित वेतन मिलता है.. रिक्षेवाला हमारा नौकर नहीं है.. वो हर रोज़ कितना कमाएगा उसकी कोई गारन्टी नहीं है.. अगर उसे किसी जगह नहीं जाना है तो वो क्यों जाए? '
'मगर यही नियम है! .. सवारी जहाँ बोले.. रिक्षेवाले को जाना ही पड़ेगा.. '
'तो ये नियम ही ग़लत है.. सरकार ऐसे नियम बनाती ही क्यों है जिसका पालन नहीं किया जा सके.. अगर मैं नियम बना दूं कि मैं जो बनाऊं आप सब को खाना पड़ेगा.. मुझे करेला पसन्द है और टिण्डा भी.. खायेंगे आप लोग रोज़..?'
अजय को बहुत परेशानी हो रही थी कि उसकी अपनी बीवी कैसे और क्यों रिक्षेवालों का पक्ष ले रही है?
'तुम्हे हो क्या गया है? भूल गई अभी कल कितना झेला है तुमने..? '
'नहीं भूली नहीं.. बल्कि मैंने तो सोचा कि बात क्या है आख़िर..? मुझे तो ये लगता है कि अगर रूट तय हो, उनके काम करने की शिफ़्ट तय हो.. और उसके बाद रिक्षेवाले इन्कार करें तो उन्हे दण्डित करें तो समझ आता है.. लेकिन आज की तारीख़ में शहर के एक छोर से दूसरे छोर की दूरी तीस से पैंतीस किलोमीटर है। अगर रिक्षेवाले एक्दम उत्तरी कोने में अपने घर लौटना चाहता है और सवारी दक्षिणी कोने में अपने घर? ..तो आप रिक्षेवाले से उम्मीद करते हैं कि वो फिर भी आप के साथ जाए.. क्यों? क्योंकि नियम है!! और वहाँ जाने के बाद उसे जो भी सवारी मिलें वो सब आस-पास की तो वो क्या करे?? अपने घर लौटने की बात भूलकर हर सवारी को उसके घर छोड़ता रहे..? ये कैसा बेहूदा नियम है? किसने बनाया है ये? इसमें सिर्फ़ सवारी की सहूलियत है रिक्षेवाली की नहीं।'

'पर शांति.. ', अजय ने कुछ कहना चाहा। पर शांति की बात खत्म नहीं हुई थी।

'सरकार रेल और बस जैसे पब्लिक ट्रान्सपोर्ट को अच्छी तरह विकसित नहीं करती और जनता को हो रही तकलीफ़ की सारी ज़िम्मेवारी गंदी खोलियों में गुज़ारा कर रहे रिक्षेवालों के सर पर फोड़ी जा रही है कि वो जनता को लूट रहे हैं और अपना अक्खड़पन दिखाकर सता रहे हैं?! ये ठीक है कि वो मीटर में गड़बड़ियां करते हैं पर क्या उन्होने मीटर में छेड़छाड़कर के अपने महल बना लिए हैं? महल कौन बना रहा है, ज़रा सोचिये तो?!'

'लो! तेल के दाम फिर बढ़ गए!?', अचानक अजय अख़बार की सुर्खी देखकर चौंका।

'अब तुम ही बताओ अजय.. एक तरफ़ पेट्रोल कम्पनियां तो जब चाहे अपने नफ़े-नुक़्सान को ध्यान में रखकर दाम बढ़ा सकती हैं। लेकिन रिक्षेवालों और किसानों के रेट्स तय करने की ज़िम्मेवारी अभी भी सरकार ने अपने हाथ ले रखी है? मुक्त बाज़ार की आज़ादी की बयार रिक्षेवालों के नसीब में नहीं है? वो सिर्फ़ बड़ी पूँजी के लिए है? ज़रा सोचिये तो!'

अजय सोचने लगा था!


***

(छपी इस इतवार दैनिक भास्कर में)

बुधवार, 16 नवंबर 2011

कांटा


 सीढ़ी उतरते हुए पैर में पड़ी सैण्डल की उतरती बद्धी को चढ़ाने की मुश्किल कसरत को करते हुए शांति इमारत के नीचे से आती हुई उत्तेजित आवाज़े भी सुन रही थी। नवम्बर की हल्की ठण्डी हवा में भी निरन्तर गरम होती जाती आवाज़ों का ताप कानों को अच्छा नहीं लग रहा था। शांति ने बैग को कंधे के पीछे धकेलते हुए एक नज़र कलाई की घड़ी पर डाली- नौ सत्रह हो रहे थे। टाइम बड़ा कट टू कट था फिर भी दो मिनट रुककर गरमागरमी का जाएज़ा लेने का मोहसंवरण न कर सकी शांति।

जो मजमा लगा था उसके बीच में बी-नाइन वाले जैन महाशय और शांति के ऊपर की मंज़िल पर क़याम करने वाली मिसेज़ घोषाल, अपने त्वरित अंग संचालन के चलते सबसे अधिक चमक रहे थे। समूह के बीच में से मछली, ठेला, बदबू और नाक जैसे शब्द सबसे स्वरित होकर गूँज रहे थे। शांति की इमारत के काम्प्लेक्स की दीवार से लगकर जो बंगाली एक ठेले पर मछली तलता है - है तो वो असल में जैन महाशय की नाक से कम से कम तीन सौ फ़ीट दूर मगर सच्चाई यही है कि वो ठेला जैन महाशय की नाक की परिधि में आता है उनकी नाक पर किसी मक्खी की तरह भिनभिनाता है। क्योंकि जैन महाशय की नाक शाकाहारी है मछली की तली हुई गंध उस की शुचिता और नैतिकता का उल्लंघन करती है।

उनकी नैतिक नाक का अतिक्रमण करने के अपराध पर जैन महाशय ने अकेले ही बंगाली को अरदब में लेकर उसे किसी मक्खी की तरह चपेटना चाहा। पर बंगाली मच्छी वाला जैन महाशय के रहमोकरम पर नहीं जी रहा था। वो भी समाज का शरीफ़ सदस्य था जो उस सड़क से सम्बन्धित सरकार के हर विभाग को बराबर हफ़्ते का प्रसाद अर्पित करता था। कुछ विभाग ऐसे भी थे- जैसे कि पुलिस विभाग- जिन्हे रोज़ और कभी-कभी तो दिन में दो-बार भी हफ़्ता देना पड़ता था। इतने सारे आक़ाओं के संरक्षण में हो जाने पर वो किसी इमारत की लम्बी शाकाहारी नाक और तरेरती हुई आँख से दबने वाला नहीं था। एक मामूली ठेले वाली की ऐसी हिमाकत से भड़ककर ही जैन महाशय के गले ने नाक की पीड़ा का गान गा-गाकर अपनी सोसायटी में उस मजमे का आयोजन किया था।

उनकी इस मुहिम से पूरी सोसायटी दोफांक होकर दो विरोधी मगर ग़ैर-बराबर खेमों में विभाजित हो गई थी। सोसायटी में शाकाहारी बहुमत में थे और मांसाहारी अल्पमत में। शुरुआत में तो मांसाहारियों ने बराबर का मोर्चा खोला पर जैसे-जैसे मजमे में शाकाहारियों की संख्यावृद्धि होती गई , उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटते-घटते इस बेक़दरी तक पहुँची कि जब शांति ने मजमे में प्रवेश किया तो मिसेज़ महामाया घोषाल शाकाहारियों के दल में बल बनकर शामिल थीं- मत्स्यलोभी बंगाली होने पर भी। इस मौक़े पर मिसेज़ महामाया घोषाल के संक्षिप्त इतिहास को जान लेना भी अनुचित न होगा।

जीवन के पचास बसन्त देख चुकीं मिसेज़ महामाया घोषाल अकेले रहती थीं। दो बरस पहले मिस्टर घोषाल का देहान्त हो गया था। संसार रूपी इस माया और उनकी महामाया से विदा लेने के पूर्व वे अपनी दुनियावी दायित्व से मोक्ष पा चुके थे। दोनों बेटियों का विवाह शास्त्रीय पद्धति से सम्पन्न होता देखने के बाद ही उन्होने प्राण त्यागे। दो बरस पहले का वो मनहूस दिन था और ये मनहूस दिन था- किसी ने मिसेज़ घोषाल को किसी भी तरह की विलासी गतिविधि में संलिप्त नहीं देखा। शास्त्रीय रीति से उन्होने रंगीन कपड़े त्याग दिए थे। उत्सव-समारोह पर अपनी शोकपूर्ण छाया वो कभी नहीं पड़ने देतीं। अपनी पतली किनारी वाली सुफ़ैद साड़ी में वो कटी पतंग की आशा पारेख की तरह शोक और उदासी से आच्छादित रहतीं। उनका माछ-त्याग भी इसी शोक की अभिव्यक्ति थी। और जैन महाशय की मच्छीविरोधी मुहिम का अप्रत्याशित समर्थन भी शायद इसी शोक का विस्तार था।

मांसाहारी दल की पारम्परिक शक्ति में हुई इस भितरघात से उनकी आवाज़ दुर्बल होकर दब ही जाती अगर शांति परोक्ष रूप से अल्पमत के पक्ष में न खड़ी हो जाती। शांति की दलील थी कि ठेला सोसायटी की दीवार के बाहर है। और सोसायटी की दीवार के बाहर कौन क्या ठेला लगा सकता है या नहीं इसका फ़ैसला नगरपालिका को करने दिया जाय। यह बात शांति ने अपने चरित्रगत तेवर और बाबुलन्द आवाज़ कही मगर मजमा नक्क़ारखाना बन चुका था और शांति को तूती होना कभी क़ुबूल नहीं था। उसने घड़ी पर एक और नज़र फेंकी- नौ इक्कीस हो रहा था। शांति ने मजमे को उसके हाल पर छोड़ा और स्कूटर को लात मारी। स्कूटर गुर्रा कर चल पड़ा।

उस शाम को जब शांति सोसायटी में वापस आई तो उसी जगह पर फिर से मजमा लगा हुआ था। पर इस बार मजमे का चाल, चेहरा और चरित्र दूसरा था। उस में अतिक्रमण, आक्रोश, और अभियान के बदले रंज, रहस्य और रोमांच का भाव संचारित हो रक्खा था। मज्मे के केन्द्र में एक एम्बुलेंस थी। और उसके भी केन्द्र में मिसेज़ महामाया घोषाल जिन्हे शांति की ऊपरी मंज़िल से कंधे का सहारा देकर उतारा गया और एम्बुलेंस में बिठाकर किसी अज्ञात हस्पताल की ओर ले जाया गया। कानाफ़ूसी और बतकुच्चन के ज़रिये शांति ने जाना कि बात यह थी कि उसके पहुँचने के पहले ही मिसेज़ महामाया घोषाल के गले में एक कांटा फंस गया था। किसी एक मछली का कांटा। वो कांटा बंगाली के ठेले पर तली गई मछली का ही था, ये मामला ज़ेरे बहस था और इस पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। वो कांटा मिसेज़ घोषाल के अपने हाथों से खाई और रस लेकर चबाई हुई किसी मछली का था या किसी मत्स्यद्वेषी शत्रु ने उनके गले में जबरन उतार दिया था- यह बात भी ज़ेरे बहस थी और इस पर भी कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। जैन महाशय सकते में थे। उनकी पार्टी का एक मज़बूत पाया खिसक कर ढह गया था। लोग खुले तौर पर नहीं कह रहे थे पर मिसेज़ घोषाल की शोक की सुफ़ैदी में काफ़ी दाग़ लग गए थे। और ये दाग़ अच्छे नहीं थे।

शांति की समझ में मिसेज़ घोषाल को कोई ज़रूरत नहीं थी कि वे सुफ़ैद साड़ी पहने या मत्स्यभक्षण छोड़ने का पाखण्ड करें पर उनकी नैतिकता उनके पेट, उनकी ज़ुबान और उनकी नाक से नहीं, पड़ोसियों की ज़ुबान और नाक से तय हो रही थी। अब नाक का ऐसा है कि किसी की नाक छोटी और निरीह होती है। और कुछ की तो इतनी निकृष्ट कि शूकर की तरह सर्वभक्षी होकर भी जुगुप्सा के हर भाव से मुक्त बनी रहती है। और कोई जैन महाशय की तरह इतनी लम्बी नाक रखता है कि सामने वाला कितना भी बचकर निकले बचकर निकल ही नहीं पाता, लड़खड़ा गिर ही जाता है। फिर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरे की नाकों से इतना आतंकित रहते हैं कि अपनी नाक अपने हाथों से काट लेते हैं।

***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)



मंगलवार, 15 नवंबर 2011

दबे पाँव



शेरजंग की शानदार किताब 'मैं घुमक्कड़ वनों का' पढ़ने के बाद उनकी दूसरी किताबों को पढ़ने की भूख लिए-लिए जब मैं मित्र बोधि के घर पहुँचा तो मेरी नज़र उनके ख़ज़ाने के एक कोने में दबी और दूसरी किताबों के बोझ से कराह रही 'दबे पाँव' पर पड़ी। ये ऐतिहासिक लेखक वृन्दावनलाल वर्मा के शिकार संस्मरणों को मुअज्जमा है। बोधि ने उदारता से किताब कवर चढ़ाकर मेरे हवाले कर दी और मैंने तो किताब पाई गाँठ गठियाई। 

किताब में वर्मा जी ने बुन्देलखण्ड के झांसी, ग्वालियर, ओर्छा आदि इलाक़ों के जंगलों में उनके शिकार के शग़ल की टीपें लिखी हैं। इन टीपों में स्यार, खरहे-खरगोश, मोर, नीलकंठ, तीतर, भटतीतर, वनमुर्गी, हरियल, चण्डूल, लालमुनियाँ, सारस, पनडुब्बियाँ, पतोखियां, टिटहरी, मगर, और जलकुत्ता जैसे जीवों के बारे में तो बात होती ही चलती है। लेकिन मुख्य तौर पर इस किताब में जंगल के बड़े जानवर चिंकारा, हिरन, चीतल, तेंदुआ, काला तेंदुआ, चीता, लकड़भग्गा, खीसदार सुअर, रीछ, साँभर, नीलगाय, नाहर या बाघ या शेर, सिंह, जंगली कुत्ते(सुना कुत्ते) और भेड़िये के व्यक्तित्व, आपसी अन्तर और व्यवहार की तमाम अनमोल जानकारियां हैं- जैसे भालू निरा बहरा होता है और नज़र का कमज़ोर होता है उसका एकमात्र सहारा उसकी नाक होती है। जब कभी किसी आदमी रूपी ख़तरे को अचानक वो अपने पास पा जाता है तो घबराकर उस पर हमला कर बैठता है। स्वभाव से वो बन्दरों की ही तरह मूलतः शाकाहारी है। या फिर लकड़भग्गा मौक़ा मिलने पर अपने ही भाई-बन्धुओं का भक्षण कर डालते हैं। हिंस्र पशुओं में तेंदुआ सबसे अधिक ढीठ होता है जबकि संसार का सबसे रफ़्तार वाला प्राणी चीता, बिल्ली की तरह पालतू बनाया जा सकता है। हालांकि चीता अब हमारे देश से लुप्त हो चुका है। इस तरह की जानकारियों के अलावा किताब में वर्मा जी के शिकार के दिलचस्प अनुभव हैं।

इस किताब को पढ़ने से जो तस्वीर ज़ेहन में खिंचती है उससे समझ आता है कि आज की तारीख़ में वन्यजीवन की हानि की इस भायनक त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार दो बाते हैं

) मनुष्य की बढ़ती आबादी के कारण कृषि भूमि का होने वाला लगातार विस्तार। जिसके चलते जंगल के जानवर और मनुष्य सीधे संघर्ष में फंस गए। किताब में बार-बार यह बात आती है कि चीतल, चिंकारा, सुअर, हिरन जैसे जानवर किसानों खेत में घुसकर फ़सल का सम्पूर्ण विनाश कर देते हैं। जिसके चलते किसान या तो स्वयं मौक़ा मिलने पर इन जीवों की लाठी-डण्डों से पीट-पीटकर हत्या कर डालते हैं या फिर किसी बन्दूकधारी शिकारी के शिकार यज्ञ में भरपूर सहायता करके इन जानवरों के समूल नाश में अपनी योगदान करते हैं। और दूसरी वजह है.. 

) बन्दूक के रूप में एक ऐसा भयानक आविष्कार जिसने आदमी और शेष प्राणियों के बीच के समीकरण को पूरी तरह से एकतरफ़ा बना दिया है। तीर की मार और गति से जानवर फिर भी मुक़ाबला कर सकता था पर गोली की मार और गति के आगे जंगल का हर पशु निरीह और बेबस है। परिणाम आप देख ही रहे हैं- नंगे व सपाट मैदान जिसमें आदमी के सिवा दूसरा जानवर खोजना मुश्किल।

किताब का एक और दिलचस्प पहलू है: क्योंकि किताब ६४ साल पहले १९५७ में छपी और उसके भी काफ़ी पहले टुकड़ों-टुकड़ों में लिखी हुई है, इसलिए उसकी भाषा थोड़ी अलग है और उसमें कुछ ऐसे शब्द और प्रयोग मिलते हैं जो आजकल पूरी तरह से चलन से बाहर हो गए हैं। मसलन-
कलोल (किलोल)
परहा (पगहा?)
लगान (लगाम?)
टेहुनी (केहुनी)
परमा (प्रथमा तिथि)
ठिया
खीस (दांत)
ढी (ढीह)
/आगोट (आगे की ओट)
भरका (गड्ढा)
डाँग (पहाड़ का किनारा)
झोर( झौंर, झाड़ी)
बगर (पशु समूह)
ढुंकाई / ढूँका (छिपकर घात लगाना)
ठपदार (ठप की आवाज़ करने वाला)
मुरकना (लचक कर मुड़ जाना)
ढबुआ (खेतों के ऊपर मचान का छप्पर)
दह( नदी का सबसे गहरा बिन्दु)
टौरिया (छोटा टीला)
फुरेरू (शरीर को थरथराना, कंपकंपी लेना)

और कई शब्द ऐसे भी मिलते हैं जो शब्दकोषों में भी नहीं मिलते- इनके एक सूची मैं यहाँ दे रहा हूँ-:

तिफंसा/तिफंसी (घड़ा रखने की तिपाई)
झिद्दे (झटके, धक्के)
खुरखुन्द
छरेरी
गायरा (शेर आदि का किसी जानवर को मारकर बाद में खाने के लिए छोड़ कर चले जाना)
टोहटाप
छौंह (खरी छौहों वाला शेर)
रांझ (एक नाले में राँझ के नीचे)
झांस (झांस के नीचे छोटे नाले में)
टकारे (एड़ी से घुटने तक पहनने का जूता)
चुल (वहाँ तेंदुए की चुल थी)
बिरोरी (शिकार का एक प्रकार, जब बेर फलते हों)


***

[किताब में एक और बड़ा दिलचस्प वाक़्या है जब वर्मा जी अपने साथियों के साथ जंगल में दाल-चावल की खिचड़ी बनाते हैं और जला बैठते हैं। जो आदिवासी इन शहरी शिकारियों की सहायता के लिए उनके साथ मौजूद था वो अपनी खिचड़ी अलग बना कर मजे से खाता है क्योंकि वो आदिवासियों में पुरोहित (बेगा कहलाने वाला) का काम करने वाला है और किसी का छुआ नहीं खाता। :) ]


* एक तीसरी किताब 'नेगल' भी पढ़ रहा हूँ। बाबा आम्टे के पुत्र प्रकाश आम्टे द्वारा अनाथ हो गए जंगली जानवरों के पालने के अनुभव पर आधारित ये भी बड़ी प्यारी और न्यारी किताब है। उनके सहयोगी विलास मनोहर ने लिखी है और नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी है। 

रविवार, 6 नवंबर 2011

स्वैटर


जब दरवाज़े की घंटी बजी तो शांति दूध लेने के बाद वापस बिस्तर पर लेटकर चादर में गुड़ी-मुड़ी हो रही थी। उस बेवक़्त के मेहमान को लगभग कोसते हुए सी शांति ने दरवाज़ा खोला। सामने बुआ खड़ी थीं। बिन्नी बुआ। पर बुआ इतनी पतली? ये कैसे हो सकता है? शांति ने आँखें मल के देखा.. बुआ ही थीं जो उसकी हैरानी का मज़ा लेते हुए मंद-मंद मुसका रही थीं।
बुआ आप?.. इतनी पतली कैसे.. ?
बस हो गई..
मुझे तो यक़ीन ही नहीं हो रहा है कि ये आप ही हैं..
कर लो यक़ीन.. और फिर न कहना कि बिन्नी बुआ तो बस खाती हैं और मुटाती हैं..
इतना कहके बुआ ने शांति को बाहों में भर के कस के भींच लिया। उनके प्यार की गर्मी में शांति की सारी कुनमुनाहट जाती रही।

रसोई में खड़ी हो के चाय बनाते हुए शांति बार-बार अपनी प्यारी बुआ के चमकदार नए अवतार को निहारती रही। उस नज़र का पात्र होने में बुआ को भी मज़ा आ रहा था। अपनी विजय गाथा के हर महीन विवरण को वो पूरे हाव-भाव के साथ बयान करती जा रही थीं। बुआ के चेहरे के दिलचस्प उतार-चढ़ाव के बावजूद शांति की नज़रें बार-बार बुआ के चेहरे से उतरकर उनके स्वैटर पर फ़िसलती जा रही थीं। शांति को वो स्वैटर बड़ा जाना-पहचाना लग रहा था..
'बुआ ये स्वैटर..? '
'पहचाना इसे.. ? '
'ऐसा एक स्वैटर अम्मा के पास भी था.. '
'भौजी का ही तो है..!! '
'अम्मा ने दिया था आपको!?!?'
'भौजी अपना स्वैटर मुझे देंगी..?? तुम तो जानती हो भौजी में अपने सामान को लेकर कैसी माया थी.. पहले तो किसी को अपना सामान देती न थीं और जिस किसी को दे दिया इसका मतलब उस पर उनकी मेहर हो गई.. '
'वही तो.. आप जैसी लापरवाह को कुछ देने का तो सवाल ही नहीं उठता..'
'यही भौजी ने भी कहा था जब मैंने माँगा..'
'देखा.. !!'
'काफ़ी पुरानी बात है.. मैं स्कूल में थी.. जब भौजी यही स्वैटर पहने के भैया के साथ ससुराल आई थीं.. मुझे स्वैटर पसन्द आ गया था.. मैंने बिन्दास माँग लिया.. '
'और अम्मा ने मना कर दिया.. आपको तो बहुत बुरा लगा होगा.. '
'इतना कि उनके चलने के पहले मैंने ये स्वैटर छिपा दिया.. भौजी ने घर भर में ढूँढा पर नहीं मिला.. '
'ऐसी किस जगह छिपा दिया था कि अम्मा भी नहीं खोज सकीं.. '
'छत की भंडरिया में.. '
'बाप रे.. बड़ी शातिर थीं आप.. '
'अम्मा को शक नहीं हुआ आप पर? '
'हुआ.. बार-बार कहा कि वापस कर दो.. '
'पर मैंने माना ही नहीं कि मैंने छिपाया है.. '
'अम्मा का तो कलेजा कट गया होगा.. '
'कट ही गया था.. उनका अपनी चीज़ों से कितना प्यार था तुम जानती ही हो.. '
'हम्म.. कभी-कभी तो हमें लगता कि उन्हे हम से ज़्यादा चीज़ों से प्यार है.. '
'ऐसा भी नहीं था.. भौजी प्यार बहुत करती थीं तुम से.. और मुझसे भी.. बस हर चीज़ को सलीके से रखने की आदत थी उनकी.. और मैं ज़रा लापरवाह थी इसलिए.. '
'ज़रा?'
'अच्छा ठीक है..बहुत!'
यह कहकर दोनों हँस पड़ी।
'ये स्वैटर मैंने चिढ़कर दबा तो लिया पर भौजी और बाक़ी सबके डर के मारे कभी पहन नहीं सकी.. अभी दुबले होने के बाद जब मेरे तो सारे स्वैटर झोला हो गए.. एक भी पहनने लायक़ नहीं रहा.. तो एक बक्से की तली से ये निकला.. तब तो पहन नहीं सकी.. अब पहन रही हूँ..'

इतना कहकर बुआ ने अपने स्वैटर को हौले से सहलाया। शांति की अम्मा के प्रति बुआ के मन में जो भी भावना कभी रही हो.. उस स्पर्श में सिर्फ़ प्यार और आभार था जिसे शायद वो अपनी भौजी के रहते नहीं जतला सकीं।

अम्मा का प्यार उनकी लताड़ के नीचे दबा रहता। ख़ुद शांति लम्बे समय तक तो यही मानती रही कि अम्मा के लिए जो है, सब भैया ही है। भैया के लिए तो जैसे उनकी ज़बान में ना नाम का शब्द ही नहीं था। और जब शांति कुछ माँगे तो हज़ार किनिआतें। ये बात शांति को बाद में समझ आई कि भैया अम्मा की ही तरह कृपण वृत्ति का था जबकि शांति बिन्नी बुआ की ही तरह लापरवाह। और शांति को चाहिये होती थीं सब अम्मा की चीज़ें जबकि भैया को उनसे कोई मतलब ही न था।

बिन्नी बुआ जब तक रहीं, लौट-लौट के शांति की अम्मा की बातें होती रहीं। उनके चलते समय शांति के मन में एक बार आया कि अपनी अम्मा का स्वैटर माँग ले। फिर लगा कि ये तो अम्मा जैसी ही बात हो जाएगी- मेरी अम्मा का स्वैटर मुझे दे दो! शांति का बहुत मन था कि अम्मा का स्वैटर वो अपने पास रख ले पर मारे संकोच के शांति की ज़बान ही नहीं खुली। बिन्नी बुआ वही स्वैटर पहने चली गईं। ऐसा नहीं था कि अम्मा ने शांति को कभी कुछ दिया नहीं.. जब शांति पहली बार अम्मा से अलग होके हॉस्टल में रहने गई तो बहुत उम्मीद न होने पर भी शांति ने अम्मा का लाल कार्डिगन उनसे माँग लिया। बेटी से जुदाई के उस क्षण में अम्मा अचानक शांति पर मेहरबान हो गईं और वो कार्डिगन दे डाला। शायद यह सोचकर कि बेटी बड़ी हो गई है और इतनी ज़िम्मेदार भी कि उनके कार्डिगन को सहेज सके। पर वो अम्मा की बदगुमानी थी। शांति ने पहला मौक़ा मिलते ही अम्मा का कार्डिगन अपनी एक नई सहेली को दे डाला जो पहाड़ों पर स्टडी टूर के लिए जा रही थी। और संयोग ऐसा हुआ कि उस सहेली से जब भी मिलना हुआ तो ऐसी परिस्थिति में जब कि वो स्वैटर वापस माँगना बड़ी अभद्रता होता। सहेली गई, स्वैटर गया, और अम्मा भी चली गईं। अम्मा के जाने के बाद जब भैया के घर जाना हुआ तो वो सारा सामान जो अम्मा ने बरसों सहेज कर रखा, उसे कभी घर में न दिखा। बाद में पता चला कि सब शांति की सफ़ाई पसन्द भाभी ने उसे कूड़ा-कबाड़ मानकर बेच डाला। एक स्वैटर भी नहीं मिला उसे।

शांति के पास अम्मा की कोई ठोस स्मृति नहीं.. सिर्फ़ यादें हैं बस। जब बैठे-बैठे अम्मा की बहुत याद सताने लगी तो शांति उठकर सासूमाँ के पास जा कर बैठ गई। सासूमाँ हमेशा की तरह बिस्तर पर लेटे-लेटे टीवी देख रही थीं। अपने अवसाद में शांति ने सासूमाँ के होने को और पास से महसूस करने के लिए उनके पैर का स्पर्श किया। सासूमाँ ने एक बार शांति की ओर मुड़कर देखा। उनकी आँखों में एक लम्बे सफ़र की थकान थी, कोई गहरी उदासी थी और बड़ा बेगाना सा भाव था। शांति को वहाँ कुछ भी उसकी अम्मा जैसा मिलता उसके पहले ही सासूमाँ मुड़कर वापस टीवी देखने लगीं।

***

(छपी दैनिक भास्कर में आज ही)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

नाम


बूढ़ी नहीं हुई थी शांति पर उमर के एक ऐसे मक़ाम पर ज़रूर पहुँच गई थी जहाँ से शरीर के नश्वर होने का आभास मिलने लगता है। एक वक़्त जवानी की लापरवाहियों वाले उन दिनों का भी था जब उसे शरीर की स्वतंत्र उपस्थिति का कोई एहसास तक नहीं होता था। पर वो दिन अब नहीं रहे। अब एक नई चेतना जागी है उसके भीतर कि उससे अलग एक शरीर भी है। जिसके ठीक न रहने से उसके भीतर दर्द और रोग रहने लगता है। और उस रोग का एक इलाज योग है। इसलिए शांति ने तय किया कि वह भी योग सीखेगी। योग की कक्षाएं शांति की एक सहेली मीरा ने अपने घर पर ही आयोजित की थीं।

कुछ बरस पहले शांति मीरा के ही मुहल्ले में रहा करती थी। वहाँ जाते हुए शांति को उम्मीद थी कि दूसरे दोस्तों और पुराने पड़ोसियों से मुलाक़ात होगी। पर सबसे पहले शांति की मुलाक़ात एक बड़ी जानी-पहचानी आवाज़ से हुई। शांति ने जैसे ही स्कूटर खड़ा कर के हैलमेट उतारा, साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट उसके कानों में गूँज गई और उसी के साथ ही ज़ेहन में कुछ पुरानी यादें भी। शांति ने देखा कि एक नौजवान साइकिल पर कुछ बड़े-बड़े झोले लादे हुए उसी की तरफ़ चला आ रहा था। वो शांति को देखकर मुस्कराया और हलके से अभिवादन में सर भी हिलाया। शांति उसे तुरंत पहचान गई। जब वो इस मुहल्ले में रहती थी तो भी वो लड़का इसी तरह घंटी बजाते हुए, ब्रैड, बिस्कुट और अंडे बेचा करता था। बस उस समय इतना छोटा था कि दाढ़ी- मूँछ भी ठीक से नहीं उगी थी।

अरे तुम.. कैसे हो..
अच्छा हूँ जी..
काम कैसा चल रहा है..
अच्छा है..
वो मुस्कराने लगा। शांति ने ग़ौर किया कि वो बड़ा ज़रूर हो गया था पर उसकी मुस्कान में वही किशोरों वाला भोलापन था।
आप इधर नहीं रहते अभी.. कहीं और चले गए?
हाँ..
शांति उसे देख रही थी और उसका जवाब दे रही थी पर उसका मन उसके नाम में अटका हुआ था जिसे वो बहुत सोचने पर भी याद नहीं कर पा रही थी। और इस तरह स्मृति के अटक जाने से उसे बहुत उलझन होने लगी तो उसने पूछ ही लिया..
तुम्हारा नाम...
सोनू..
सोनू! शांति ने भी उसके पीछे उसका नाम बोला। पर स्मृति का जो कांटा कहीं भीतर अटका हुआ था वो इस ध्वनि से आज़ाद नहीं हुआ। शांति को उसका कुछ और ही नाम याद था जो सोनू नहीं था। पर उस भूले हुए नाम भर के लिए वो वहाँ खड़ी नहीं रह सकती थी। सोनू से विदा लेके मीरा के घर के भीतर चली आई।

योग कक्षा में कुछ लोग पहले के पहचाने हुए थे और कुछ नए लोग भी थे, वहीं आस-पड़ोस की इमारतों के। शांति की पुरानी दोस्त जूही भी वहीं मिल गई और उसके दफ़्तर का सहकर्मी विपिन भी। बाक़ी लोग ऐसे थे जिन्हे शांति नहीं जानती थी और जो शायद मीरा के नए पड़ोसी थे। बारह-पन्द्रह लोगों के छोटे से समूह में उसका एक नन्हा समूह बन गया जो एक साथ बैठकर आसन और प्राणायाम की कठिनाईयों पर सलाहों और सुझावों का लेन-देन कर के एक-दूसरे की मदद करता। हालांकि दूर बैठे गुरुजी यही चाहते कि सारी मुश्किलों के हल का रास्ता उन्ही से होकर गुजरे। मगर दोस्त अपनी दोस्ती निभाने से बाज न आते और योगासनों के पहले, बाद में, और कभी-कभी बीच में भी अपनी गुपचुप गपशप भी जारी रखते।

पहले दिन तो शांति समेत सभी लोगों को आसनों के करने में स्वयं उनका शरीर आड़े आता रहा। शांति तो फिर भी ठीक थी। अधिकतर लोगों की संख्या ऐसी थी जो चालीस पार कर गए थे और किसी न किसी बड़ी बीमारी के आरम्भिक अवस्था का सामना कर रहे थे। और उसी बीमारी के भयंकर वाले स्वरूप से बचने के लिए योग की शरण में आए थे। कुछ तो मोटापे और कसरत के अभाव में इस क़दर जंग खाए हुए थे कि हाथ-पैर हिलाने भर में बेदम हुए जा रहे थे। पर दो-तीन बाद थोड़ी-थोड़ी लोच सबके शरीर में पैदा होने लगी, पर समान रूप से नहीं। इंश्योरेंस का काम करने वाले पटेल साहब तीन दिन बाद भी अपने पैर नहीं छू पा रहे थे। बैंक के काउन्टर पर बैठने वाले आकाश वर्मा तो सुखासन में भी नहीं बैठ पा रहे थे। जूही और विपिन को कोई बड़ी दिक़्कत नहीं थी पर मेज़बान मीरा की गरदन अकड़ी पड़ी थी। हाँ एक बस मोईडू जी थे तो हर आसन कमाल के कौशल से कर ले जा रहे थे। पेट ज़रूर उनका थोड़ा निकला हुआ था मगर शरीर एकदम फ़िट था। योग गुरु जी बार-बार सभी से मोईडू जी से प्रेरणा लेने की बात करते। उनके बारे में अगर कोई अजीब बात थी तो वो थी उनका नाम- मोईडू। किसी ने कहा नहीं मगर यह माना जा रहा था कि वे दक्षिण भारतीय हैं, हालांकि उनके बोलने के लहज़े में ऐसा कोई संकेत नहीं था। सब लोग की तरह शांति भी उन्हे दक्षिण भारतीय मूल का ही मानती रहती, पर एक घटना से उसकी मान्यता बदल गई।

चौथे रोज़ शांति को योग कक्षा के लिए थोड़ी देर हो गई। जब वो पहुँची तो कक्षा शुरु हो गई थी। शांति हड़बड़ी में स्कूटर लगाकर अन्दर जाने के लिए लपक ही रही थी कि एक महिला ने उसे रोक लिया।
मीरा माथुर का घर यही है..?
हाँ यही है..
अन्दर से आप ज़रा मोहिउद्दीन साहब को बुला देंगी..
किसको?
मोहिउद्दीन! उनके बेटे के सर में चोट लग गई है.. और उसकी माँ उसे लेके अस्पताल गई हैं..
अरे.. पर मोहिउद्दीन तो यहाँ कोई नहीं है..!?
ऐसा कैसे हो सकता है..? नुसरत न तो मुझे..!!? ये मीरा माथुर का ही घर है ना..? योग क्लासेज़ होती हैं यहाँ पर.. ?
हाँ.. होती तो हैं.. आप ऐसा कीजिये, अन्दर आ के देख लीजिये.. !

और अन्दर आकर उस महिला ने जिस व्यक्ति को मोहिउद्दीन के रूप में पहचाना उसे चार दिन से सभी लोग मोईडू के नाम से पुकार रहे थे। मोहिउद्दीन उर्फ़ मोईडू अपने बच्चे की चोट की ख़बर सुनकर सरपट वहाँ से भागे। पर शांति बहुत उलझन में पड़ गई। मोहिउद्दीन ने लोगों से ये क्यों कहा कि उसका नाम मोईडू है? क्या उसने ख़ुद अपना नाम मोईडू बताया या फिर किसी ग़लतफ़हमी में ऐसा हो गया? और अगर भूलवश ऐसा हो भी गया तो वो क्या मजबूरी थी कि चार दिन तक उसने किसी को सुधारने की कोशिश नहीं की?

यही सब सोच रही थी शांति जब उसके कानों में साईकिल की घंटी की तीखी घनघनाहट गूँजने लगी। उसकी गूँज से स्मृति का एक ढकना खुला और एक नाम बाहर आ गया- मुख़्तार। ये बिस्कुट बेचने वाले उस लड़के का नाम था जिस नाम से वो उसे पहले जानती रही थी। 

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

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