रविवार, 26 जून 2011

चौथा बच्चा



छै दिन पहले सरला गाँव चली गई। और उसके लौटने में अभी और छै दिन हैं। इन छै दिनों में ही शांति का तनाव दो-तीन स्तर ऊपर चला गया है। ऐसा नहीं कि कोई काम करने वाला नहीं। सरला अपनी बहन कमला को लगा गई है। मगर हर गृहिणी की अपने घर के रखरखाव के कुछ ख़ास तौर-तरीक़े होते हैं। और अगर उनका घर उन तौर-तरीक़ो पर चलता नज़र न आए तो गृहिणी समेत सबकी ज़िन्दगी हराम होने का ख़तरा उपस्थित हो जाता है।

सरला के गाँव जाने और उसके बदले कमला के घर सम्हालने से ये सूरत बननी शुरू हो गई। क्योंकि कमला के काम के छै दिन का हर दिन एक नई बुनावट से बुना हुआ था। पहले दिन वो देरी से आई। और जब आई तो शांति के पास इतना समय नहीं बचा था कि वह उसे सारे काम की बारीकियाँ समझा सके। लेकिन पहले ही दिन शांति को जिस बात ने प्रभावित किया वो कमला की गरिमा थी। बरतन धोते हुए और फर्श बुहारते हुए उसकी गरिमा न तो बहती थी न बिखरती थी। अगर वह ख़ुद न बताये कि वह घर का काम करने वाली महरी है तो अपने से जानना मुश्किल था। उसके कपड़े ज़रूर तुच्छ थे मगर अपने कपड़े और अपने काम की तुच्छता को उसने अपनी आत्मा पर नहीं लगने दिया था।

शांति के दिल पर अपनी गरिमा का इतना प्रभाव छोड़ने के बाद वो दूसरे दिन आई ही नहीं। और तीसरे दिन उसके आने से पहले उसका पति आया। जब घंटी बजी तो देर से कमला का इंतज़ार कर रही शांति ने सोचा कि कमला ही होगी। लेकिन रसोई में कमला के बदले पाखी आई यह बताने कि दरवाज़े पर एक लम्बा साँवला आदमी खड़ा है जो आपने को कमला का पति बताता है। और जब शांति बाहर आई तो वो लम्बा साँवला आदमी दरवाज़े पर खड़ा नहीं था, सोफे पर बैठा था और अपनी पत्नी के लिए कितनी भी देर इंतज़ार करने को तैयार दिख रहा था। उसने अपना नाम बाबू बताया। बाबू के ऐसे अधिकार को देखकर शांति अचकचा सी गई लेकिन बोली कुछ भी नहीं।

बाबू की लाल आँखों में विचित्र सहमापन था मगर एक ऐंठ भी। शांति को शक तो तभी हो गया था लेकिन पक्की तौर पर वो अगली बार ही जान सकी कि उन दोनों भावों की जड़ में सुबह पी गई कच्ची शराब की उत्तेजना थी। आमतौर पर अपनी पूरी गरिमा को अपने चेहरे पर समेटकर रखने वाली कमला बाबू को वहाँ देखकर घबरा गई और एक लगभग अजनबी लज्जा से भर उठी जैसे वह किसी की अपराधी हो। जबकि बाबू की रक्ताभ आँखों की लालिमा में कोई कमी न थी। उनके बीच कुछ बातें ज़रूर हुई और उनका सुर भी बाबू की आवाज़ से भारी था। लेकिन दफ्तर की तैयारियों और फ़ोनकाल्स के बीच शांति का ध्यान उनसे हटा रहा और जब शांति ने घर छोड़ा तो बाबू जा चुका था और कमला चुपचाप घर के काम में लगी थी।

चौथे रोज़ कमला के जल्दी आ जाने से शांति को उसे बहुत सारी चीज़ें समझाने का मौक़ा मिल गया। और जब शांति शाम को घर लौटी तो लगभग सारे काम उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ निबटा दिए थे कमला ने। और जो एक-दो भूलें हुई थीं वो इस क़दर मामूली थीं कि शांति को विश्वास था कि अगली दफ़े आसानी से सुधार ली जाएंगी। इसीलिए जब पाँचवी सुबह कमला फिर से समय से ही आ गई तो शांति इतनी प्रसन्न थी कि उसने भूलों की चर्चा भी न की। लेकिन वो ख़ुशी ज़्यादा देर नहीँ टिक सकी क्योंकि बाबू फिर से आ गया।  संयोग से इस बार दरवाज़ा खोलने पाखी नहीं स्वयं शांति गई और दरवाज़ा खोलते ही उसे कच्ची शराब का तेज भभका आया। वो भभका क्या था बाबू की मुँह से निकल कर आ रही साँस में तैर रहे शराब के छोटे-छोटे टुकड़े थे जो सामने खड़ी शांति की त्वचा, नाक, मुँह और फेफड़ों की कोशिकाओं में घुस रहे थे। उसकी प्रतिक्रिया में शांति की इस तरह प्रभावित हर कोशिका के भीतर से एक प्रबल जुगुप्सा का भाव पैदा हुआ जिसने बाबू के विचित्र आधिकारिक भाव को अपने घर की देहरी के इस तरफ पैर भी न रखने दिया। कमला ही उससे बतियाने बाहर गई और इस तरह गई कि लौटकर छठी सुबह ही आई।

शांति तो मानो फट पड़ने के लिए लगभग तैयार थी मगर कमला की गरिमा ने उस विस्फोट को रोके रखा और कमला की कहानी सुनने पर तो वो आप ही पिघल गया। कमला के तीन बच्चे हैं और तीनों स्कूल जाते हैं। कमला काम पर आने से पहले उन सबका सुबह का नाश्ता और दोपहर का टिफिन तैयार करके आती है। सबके स्कूल का समय अलग-अलग है। एक को तो कमला ख़ुद भेजकर आती है और दूसरा भी बाद में अपने आप स्कूल चले जाता है। सिर्फ बेटी को स्कूल छोड़ने की ज़िम्मेदारी बाबू की है जिसे भी वो निभाने से अक्सर चूक जाता है।

किसी ज़माने में बाबू प्लम्बर का काम किया करता था पर आजकल कोई काम नहीं करता। न बाहर और न घर पर। उलटे सुबह-सुबह शराब पीकर कमला और बच्चों के लिए मुसीबत खड़ी करता रहता है। कहानी की इतनी कल्पना तो शांति ने भी कर ली थी। जो चीज़ नहीं समझ सकी थी वो थी बाबू का इस तरह उसके काम पर चले आना। और कमला से उसे जो जवाब मिला उसी से शांति बाबू के अनाधिकार चेष्टाओं को समझ सकी। शराब पी लेने के बाद बाबू अपनी निजी ज़रूरतों के प्रति बेहद संवेदनशील हो जाता है। पाँचवे रोज़ जब बाबू शांति के दरवाज़े पर आया तो उसकी शिकायत ये थी कि कमला उसको खाना परसे बग़ैर ही चली आई थी।

बाबू के इस बचपने पर हँसा नहीं जा सकता था और न ही शांति हँसी ही। अपनी कहानी सुनाकर कमला शरमिन्दा थी। उसके चेहरे से गरिमा की चमक थोड़ी फीकी पड़ गई थी क्योंकि उसकी नज़र में शांति के पास एक ऐसा पति था जो बाबू की तरह कमला का चौथा बच्चा नहीं था।

सातवीं सुबह कमला फिर नदारद थी। बाबू का बचपना ही वजह होगा- शांति ने समझ लिया था। पर समझ लेना ही काफी नहीं था। बरतन माँजे जाने थे, कपड़े धोये जाने थे, खाना बनाया जाना था। इतना कुछ सोचकर ही शांति के हाथों-पैरों की नसें थोड़ी और तन गईं। अजय से बोला तो उसने बाईयों की अविश्वसनीयता पर कुछ कड़ी बातें मुँह से निकाली। कहने लगा कि बरतन और कपड़े रहने दो, एक दिन नहीं धुलेंगे तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ने वाला है.. और टिफिन के झंझट में भी मत पड़ो, बच्चों को कुछ बरगर-समोसा ख़रीद कर दे देंगे स्कूल के लिए.. और हमारे लंच के लिए एक दिन टिफिन नहीं रहने से क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है? एक दिन बाहर खा लेंगे!

इतना कहकर अजय ने गुटके का एक पैकेट मुँह में खाली किया और बाथरूम में खाली होने चला गया। एक बारगी शांति को भी अजय का विचार जँचा लेकिन बरसात का मौसम और फैलती बीमारियों का ख़याल आते ही उसने कमर कस के रसोई का रुख़ किया। बच्चों को अगर बीमारी से बचाना है तो किसी को तो खाना बनाना ही होगा, बाई आए चाहे न आए। और जब खाना बन रहा है तो अकेले बच्चों के टिफ़िन में तो रखा नहीं जाएगा, शांति और अजय के टिफ़िन के आकार में भी बँध जाएगा- शांति ने सोचा। और शायद गुटका चबाते-चबाते अजय भी यही सोचते हुए निश्चिन्त था कि शांति कुछ सोच रही होगी।


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

सोमवार, 20 जून 2011

शहर के चौकीदार



 सुबह से नल में पानी नहीं आ रहा था। दो बार बालकनी से चिल्लाकर ऐलान कर चुकी है और तीन बार पड़ोसियों से पूछ चुकी है कि उनके यहाँ हाल कुछ जुदा तो नहीं। मगर पानी का कुछ अता-पता नहीं। इसके पहले कि पानी के चलते दिन उठकर दौड़ने के पहले ही ढेर हो जाय, शांति ने नीचे जाकर ख़ुद ही तफ़्तीश करने का फ़ैसला किया। रात में आए पानी को ऊपर की टंकी में मोटर द्वारा चढ़ाने की ज़िम्मेदारी चौकीदार की है। मगर वो अपनी कुर्सी पर नहीं था। शांति को लगा कि शायद वो ऊपर छत पर होगा या नीचे की भूमिगत टंकी के पास। पहले नीचे ही उसे देख लेने के ख़्याल से शांति घूमकर भूमिगत टंकी के पास जाने लगी तो उसके पहले ही दो अजनबी नौजवान खड़े दिख गए। एक ने तो चौकीदार वाली वर्दी भी डांट रखी थी। शांति ने उन्ही से पूछ लिया चौकीदार की बाबत। तो वर्दी वाले ने ग़ैर वर्दी वाले की तरफ़ इशारा किया और बताया कि वही नया चौकीदार है।

नया चौकीदार इतना नया था कि वो अपनी नई पहचान के सुबूत अपनी वर्दी भी हासिल नहीं कर पाया था। और अपने इसी दुख के चर्चा बगल की इमारत के चौकीदार से कर रहा था। पानी शब्द सुनकर उसकी चेतना में कुछ गुड़गुड़ाहट तो हुई लेकिन उतनी नहीं जितनी की अपेक्षा पानीपीड़ित शांति को थी। उसके अफ़सोस में जवानी की एक अलसाहट भरी नींद का भारीपन झलका जिसके नीचे बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियां कुचल के पिच्चा हो रहती हैं। इमारत की शिराओं में फिर से पानी के प्रवाह होने लगे उतने अन्तराल के बीच क्रोध और चिड़चिड़ाहट के वेग को धीरज से सम्हालते हुए शांति ने उसे पानी चढ़ाने की विधि की शिक्षा भी दी और अपना काम मुस्तैदी से करने की नसीहत भी। 

इस तरह जाने-पहचाने चौकीदार का रातोरात ग़ायब हो जाना कोई नई परिघटना नहीं है। कुछ समय से ऐसा नियमित तौर पर हो रहा है। उतरते-चढ़ते एक चेहरा जो आप को देखकर कभी अदब से खिंच जाता है तो कभी अपनी ऊब में ही बिखरा पड़ा रहता है, वो एक दिन सीढ़ियों के पास तैनात दिखना बन्द हो जाता है। उसकी अनुपस्थिति के एक गुज़रते हुए ख़्याल के साथ उस चेहरे का अस्तित्व फिर आपके ही भीतर कहीं दफ़न हो जाता है। अक्सर होता यह है कि चौकीदार कहलाने वाले उस व्यक्ति को हम नाम और चेहरे से अधिक उसकी जगह और वर्दी से पहचानते हैं। परसों दफ़्तर में भी यही हुआ।

दफ़्तर में नियुक्त माली की अनियमितता को देखकर शांति को गमले वाले पौधों की चिंता हुई। इस झुलसती गर्मी में पानी न मिलने से सीधे ज़मीन में लगे पौधे एक बारगी फिर भी कुछ उपाय कर सकते हैं मगर गमलाबद्ध पौधों के पास तो जड़ फैलानी की भी जगह नहीं। यही सोचकर शांति ने चौकीदार से गुज़ारिश की कि वही दिन में एक बार उन्हे पानी दे दिया करे। चौकीदार ने माना तो पर पानी देने के लिए टिका नहीं। और नए चौकीदार की होने की जानकारी शांति को तभी हुई जब उसने पौधे सूखे हुए देखे। नए चौकीदार को पुराने की कोई जानकारी नहीं- वो क्यों और कहाँ चला गया। अपने आस-पास इस तरह के बेक़ाबू बदलाव से शांति को बेचैनी होने लगती। लेकिन जीवन की रफ़्तार ऐसी हो चली है शहर में कि कहाँ क्या है, की पहचान विकट होती जा रही है। चीज़ें क्यों और किसके अनुसार बदल रही है उसकी ख़बर आम आदमी तक नहीं पहुँचती।   

उस दिन जब शांति दफ़्तर से लौटी तो फिर से कुर्सी ख़ाली थी और चौकीदार नदारद। नज़र घुमाकर आस-पास देखा तो कुर्सी से ज़रा दूर पर नए चौकीदार के साथ दो नौजवान लड़के बड़ी ही लापरवाही से अधलेटे पड़े हुए थे। शांति को देखकर उसकी उपस्थिति को दर्ज़ करने भर की तत्परता भी उन्होने नहीं दिखाई। उनकी शांति में भले कोई दिलचस्पी न हो लेकिन शांति को तो उसकी जिज्ञासा धकेल रही थी। शांति को उन्ही की तरफ़ आता देख लड़के पैर समेट कर बैठ गए। क्या नाम है तुम्हारा से बात शुरु कर के खेत-खलिहान तक पहुँच गई। तीन में से एक लड़के के घर में तो पचास बीघा खेत निकले। एक तरह से वो करोड़ों की सम्पत्ति का हिस्सेदार था। लेकिन शहर में आकर एक मामूली रिहाइशी इलाक़े की पार्किंग में उठंगे पड़े रहने में उसे कोई शर्म नहीं थी। शहर उसके लिए एक रोमांच का विराट मंच था। गाँव की मन्थर एकरसता की विपरीत यहाँ सब कुछ चपलता और विविधता से भरा हुआ था। गाँव में जो था वो वही होने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता था। जबकि गाँव की इन लड़कों की नज़र से शहर सम्भावनाओं से लबालब भरा नज़र आता था। और उन सम्भावनाओं का लालच ऐसा था जिसके लिए पचास बीघे का ज़मीन्दार भी चौकीदारी करने में ज़िल्लत महसूस नहीं कर रहा था। शांति ने ग़ौर से देखा तो हलकी उगती दाढ़ी-मूँछो से उन किशोरों की कोमलता अभी भी पूरी तरह छुपी नहीं थी।

दूसरा लड़का इतनी सम्पन्न बुनियाद पर नहीं खड़ा था। चार बीघे होते थे उसके घर में। अब दो बचे हैं। दो को बेचकर भाई ने एक ट्रक ख़रीदा और अपनी अनुभवहीनता के चलते नया धंधा न सम्हाल सका। धंधे में घाटा खाया, फिर ट्रक बेचकर जो पैसे हाथ आए, उन से कर्ज़ा चुकाया। यह दूसरा लड़का शहर को सम्भावना की तरह नहीं सिर्फ़ आसरे की तरह पाता होगा, शांति ने सोचा। तीसरा अन्तर्मुखी प्रकृति का था। कुछ नहीं बोला, बस अपने साथियों को देख-देख मन्द-मन्द मुस्काता रहा। उसके हाथ में फ़टाफ़ट अंग्रेज़ी सीखने की एक गाइड भी चमक रही थी। निश्चित ही बाक़ी दोनों से अलग उसके भीतर आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा ललक रही थी और शायद वही उसको अपने मौजूदा अस्तित्व के प्रति कहीं शर्मसार भी बना रही थी। इन दोनों की मिली-जुली अभिव्यक्ति उसके मौन में थी। इतना जान लेने के बाद शांति की जिज्ञासा थोड़ी आश्वस्त तो हुई लेकिन ये फिर भी नहीं पता चला कि पहले के चौकीदार शहर में ही किसी दूसरी जगह फ़िट हो गया है या गाँव वापस चला गया?    
  
अगली सुबह जब शांति उठी तो इस चिंता के साथ कि पता नहीं पानी आ रहा होगा या नहीं। मुँह धोने के लिए नल खोलकर देखा तो पानी की धार बेसिन पर छिट्टों में टूटने लगी। एक चिंता से बच गई पर हर दिन चिंताओ की कभी सघन तो कभी विरल धारा है। चौकीदारों का वह संसार जिसके प्रति वो कल बहुत चिंतित थी आज उसके मानसपटल पर कहीं नहीं था। लेकिन गाँवों से रोज़ हज़ारों नौजवान शहर में आते जा रहे हैं। जिस शहर में इमारतों की सुरक्षा के लिए वो तैनात किए जाते हैं, न तो उस इमारत की आन्तरिक बुनावट का वो हिस्सा हैं और न शहर की। फिर भी उनके इस आवाजाही से धीरे-धीरे शहर बदलता जा रहा है। और ये बदलाव चुपचाप भी नहीं है। बहुत रगड़-घिसकर और चोटों और घावों के साथ बदल रहा है सब कुछ। पर भीतर और बाहर की तमाम दूसरी आवाज़ों की गूँज में यह बुनियादी आवाज़ें हम तक आकर भी अनसुनी हो  जा रही हैं।  


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(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)  

शनिवार, 18 जून 2011

जंगले के पार

ये खिड़की जिस दिशा में खुलती है, उसी दिशा में आगे कहीं समुद्र उफनता है। उसकी कूदती-फांदती लहरों के पहले एक रेत का मैदान है। रेत पर बनाए बिलों से केकड़े बाहर आते हैं और अपनी भुजाओ को चमकाते टेढ़े-टेढ़े भागे जाते हैं। एक आदमी की आँख में दृश्य का जितना आयतन समा सकता है उतने भर में हज़ारों केकड़े या फिर लाखों । 

मैदान से पहले एक दलदल के खारे पानी में अपनी जड़ों को डुबाए पेड़ों का एक गरान है। उन पेड़ों की शाखाओं में घोसला बनाने पक्षी हज़ारों मील दूर से आते हैं।  गरान से पहले एक बस्ती है। बस्ती में सड़के हैं। मुख्य सड़क पर शोर और धुएं की एक नदी है। अधिकत लोग उससे नफ़रत करते थे पर कुछ मनचले प्यार। 

मुख्य सड़क और इस खिड़की के बीच तीन पेड़ एक कतार से लगे हैं। नागचम्पा, आम और पकुरिया। नागचम्पा की फुनगी पर हर चिड़िया हर रोज़ कुछ पल सुस्ताती है। पकुरिया के आगे नगरपालिका का लैम्पपोस्ट है। उसका बल्ब बहुत पहले फूट चुका है। 

लैम्प के अन्दर मैना ने अण्डे दिये थे। अण्डों से निकली मैना भी वहीं अण्डे देती है और तार पर बैठकर बार-बार ऊँचे शब्द से लैम्प पर अपने अधिकार की घोषणा करती है। 

मैं अक्सर सुनता हूँ, पर उसके और मेरे बीच एक जंगला है। जंगले के पार संसार, जंगले में क़ैद है। 


रविवार, 12 जून 2011

गुलमोहर का सत्याग्रह



आजकल गर्मियों में सारे पेड़ों पर फूल ही फूल छाए हुए हैं। पेड़ों पर तो फूल आँखों को ठण्डक देते ही हैं और ज़मीन पर गिरकर वो सड़क को भी ख़ूबसूरत बना देते हैं। वैसे तो तमाम फूल हैं मगर गुलमोहर और अमलतास की तादाद ज़्यादा है। दफ़्तर जाने के पहले अचरज को वैद्यशाला ले जाने की हड़बड़ाहट के बीच भी शांति ने ऊपर और नीचे दोनों तरफ़ लाल-पीले फूलों के बीच से गुज़रने का सुख ले ही लिया।

दो दिन से अचरज के बदन पर लाल-लाल चकत्ते उभरे हुए हैं। बेटे के बदन पर उभरे उन लाल फूलों को देखकर उसके मन में किसी ठण्डक की पैठ नहीं होती।  डाक्टर मण्डल ने कुछ टैबलेट्स और औइन्टमेण्ट दिया था मगर अभी तक उस से कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ा। ऊपर से अचरज ने खुजा-खुजा के उसमें घाव और कर लिए थे। शांति ने सोचा कि किसी दूसरे डाक्टर से सलाह करें लेकिन सासू माँ ने ज़िद पकड़ ली कि अचरज का आयुर्वैदिक इलाज कराओ। शांति ने सोचा कि चलो ये भी करके देख लेते हैं।

तिलकनगर के मोड़ पर ही बाबा की एक वैद्यशाला है। जो बाबा के टीवी के प्रवचनों के बाद पूरे देश में फैल गई तमाम शाखाओं में से एक है। वहीं पर बैठे वैद्यजी ने अचरज की कलाई पकड़कर नाड़ी परीक्षण किया और बताया कि पित्त का प्रकोप है। कुछ लेप व गोलियां दी और परहेज़ की एक फ़ैहरिस्त भी थमा दी। ये परहेज़ बड़ा मुश्किल है। बच्चों को दवाई तो किसी तरह खिला भी दें मगर परहेज़ में तो बड़े-बूढ़े भी हार जाते हैं। ऐलोपैथिक पद्धति में यही अच्छा है जो मनचाहे खाओ! लेकिन आयुर्वैदिक दवा ली है तो परहेज़ भी कराना ही पड़ेगा।

अचरज को घर छोड़ने के लिए जब शांति लौट रही थी तो देखा कि घर से थोड़ा पहले एक गुलमोहर का पेड़ अजब सा कटा हुआ खड़ा है। ये वही पेड़ है जिसके नीचे मोहल्ले का प्रेसवाला का टीनटपरा है। जाते और लौटते के बीच में एक पेड़ के इस बदले हाल पर शांति को बड़ी मायूसी हुई। प्रेसवाले से पूछा तो उसने बताया कि पिछले हफ़्ते जो बारिश आई तो पता चला कि वही डाल जो अपने गिरे हुए फूलों से सड़क की कालिख़ को छिपाए रहती, सड़क पर गिरकर शहीद हो गई। डाल और सड़क के इस प्रेम के बीच आकर किनारे पर खड़ी एक गाड़ी की छत धचक गई और दूसरी का तो बोनट ही टूट गया। क्रोधित होकर गाड़ियों के मालिकों ने पेड़ की दो-चार डालें और कटवा दीं। न रहेगी डाल और न टूटेगा बोनट।

गुलमोहर की मुश्किल बस यह है कि इसकी लकड़ी बड़ी कच्ची होती है। थोड़ी सी भी आँधी-बरसात में जनाब गुलमोहर कभी हाथ-पैर तुड़वा लेते हैं तो कभी जड़ समेत उलट जाते हैं। आँधी-तूफ़ान के अत्याचार के आगे पेड़ का कुछ बस नहीं होता और ना ही डाल काट देने वाले इन्सानों के आगे। अपनी कटी हुई डालों के बाद वो गुलमोहर ऐसा लग रहा था जैसे किसी अपराधी के हाथ काट कर छोड़ दिया गया हो। ये वैसे ही है जैसे कि किसी दुर्घटना कोई कार के सामने आकर हाथ गँवा बैठे तो लोग उसकी टाँगे भी काट दें। पेड़ की तरफ़ से बदला लेने वाला कोई नहीं और जीजान से उसके हित की रक्षा करने वाला शायद उसका कोई मालिक भी नहीं। पेड़ को अच्छा तो नहीं ही लगा होगा मगर ज़ुबान न होने के चलते उसकी आह किसी को पता न चली। चुपचाप उसी जगह पर खड़ा रहा। शिखर पर बचे रहे कुछ टहनियों में से किसी फूल को न तो कसकर जकड़ा और न किसी हवा के दुलराने पर अड़ा। हमेशा की तरह अपने व्यवहार में वैसे ही जड़ों में जड़ और फुनगियों में चंचल बना रहा। ये ज़रूर है कि कई चिडि़यों का आशियाना उजड़ गया।

अचरज को लेके जैसे ही दरवाज़े के भीतर आई तो सरला और सासू माँ दोनों की खीजी हुई आवाज़े सुनाई दीं। पास जाकर देखा तो उसे भी खीज हो आई -कबूतर ने गमले के पीछे अण्डे दे दिये थे। उनको उठाने में सरला हिचक रही थी किसी के बच्चे हैं रहने दीजिये। और सासू माँ को कबूतर पसन्द नहीं लेकिन वो ख़ुद हाथ लगाने में घिना रही थीं। शांति को कबूतर अच्छे तो लगते हैं मगर दूर से। उनकी समस्या ये है कि वे एक तो गंदगी बहुत करते हैं, दूसरे पौधों को नोचकर खतम कर देते हैं, तीसरे आपस में झगड़ा करते हैं। और घर में जगह दे दी तो फिर निकलने का नाम ही नहीं लेते। एक बार उनको घर बनाने देकर भुगत चुकी है। वही सब सोचकर शांति ने दिल कड़ा किया और ख़ुद ही किसी तरह चम्मच से अण्डे अख़बार में धकेल दिए। इस पूरी कसरत के बीच दोनों माँ-बाप अपने बनाए घोंसले के आस-पास फड़फड़ाते रहे। शांति को उनके लिए बुरा तो लग रहा था पर अपनी परेशानी उसे अधिक अहम लगी। अण्डे हटाकर शांति ने सरला को घोंसला फेंक देने के लिए बोला और दफ़्तर के लिए निकल गई। गूलर के पेड़ पर बैठे दोनों कबूतर अपने घर और अपनी अगली पीढ़ी के विनाश के गवाह बने रहे। इस गूलर की सारी डालियां सलामत हैं और जिस पर तमाम क़िस्म और रंग की चिड़ियां पनाह पाती हैं और भोजन भी।

शाम को जब शांति लौटी तो घर में एक नया हंगामा घटित हो रहा था। अचरज जो सुबह से ही पित्त के प्रकोप की दवाई खा रहे थे, अचानक आमों पर टूट पड़े। जब उनकी दादी ने ये अनर्थ होते हुए देखा तो मना किया लेकिन अचरज ने उनकी एक न सुनी। और बहुत डाँटने और हड़काने के बाद भी दादी को चकमा देके फ़्रिज से आम ले उड़े और अपने कमरे में बैठ कर खाने लगे। शांति जब धड़धड़ाकर उनके कमरे में घुसी तो आधा आम उन्होने उदरस्थ कर लिया था और उस वक़त गुठलियों पर आमादा थे। शांति ने जो कड़ककर डाँट लगाई तो फिर आम को छूने की हिम्मत न पड़ी। लेकिन चाल बदलकर गिड़गिड़ाने लगे कि एक आम से क्या होने वाला है.. प्लीज़ खाने दीजिये। लेकिन शांति ने एक सुनी तो प्लेट हाथ से छीन ली। अपनी माँ की इस क्रूरता के आगे अपनी दाल न गलते देख अचरज रोने लगे और फिर भी जब माँ न मानी तो धमकी दी कि आम न मिला तो खाना नहीं खायेंगे। अनशन करेंगे, सत्याग्रह करेंगे। शांति को एक तरफ़ हँसी भी आई कि देखो अपने टीवी में देखी-सुनी बातों को कैसे अपने स्वार्थ में इस्तेमाल कर रहा है, और दूसरी ओर ग़ुस्सा भी।  

बहुत समझाने पर भी अचरज न माना और अनशन जारी रखते हुए भूखा ही सो गया। अगली सुबह अचरज के और शांति के भी उठने के पहले सूरज की जब पहली किरन गुलमोहर के कटे हुए ठूंठ तक पहुँची तो उसका स्वागत करने के लिए तने की कड़ी भूरी छाल को चीरकर एक नन्हा हरा कल्ला ऐसे सर ताने खड़ा था जैसे गुलमोहर के सत्याग्रह की घोषणा हो। बालकनी में कबूतरों का जोड़ा फिर से उसी जगह पर तिनके ला कर इकट्ठा भी कर रहा था और गूँगूं की आवाज़ के साथ नाचते हुए उस छोटे से टुकड़े पर अधिकार का दावा भी कर रहा था। वो कबूतर भी एक तरह के ज़िद्दी सत्याग्रह में संलग्न थे। कबूतर और गुलमोहर दोनों का सत्याग्रह सीधे उनके सत्य- उनके अस्तित्व से जुड़ा था। मगर अचरज का सत्याग्रह ठीक-ठीक सत्य का ही आग्रह था, नहीं कहा जा सकता।  
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(इसी इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)

शुक्रवार, 10 जून 2011

एक गड्डी धनिया


पहले गोभी सिर्फ़ जाड़े में मिला करती थी। बाज़ार में गोभी के आने के बहुत पहले से घरों में गोभी का इन्तज़ार शुरु हो जाता। गर्मी और बरसात में लौकी और निनवा खा-खाके बड़े भी आजिज़ आ जाते। बच्चे भी रोज़-रोज़ भिण्डी खाके थक जाते। सब्ज़ीवाले गाहकों की फ़र्माईशों को धीरज से सुनते और गोभी के साथ आने वाली मटर की मिठास पर भी दो मिनट बतियाते। अब वो दिन नहीं रहे। गोभी बारहों मास मिलती और लौकी भी। उनका स्वाद कभी नहीं मिलता। सब्ज़ी वालों से उस तरह बात करने का सुख भी नहीं मिलता। उस दिन जब शांति ने दफ़्तर से घर जाने के लिए स्कूटर को किक मार के स्टार्ट किया तो उसे बिलकुल पता न था कि जीवन की लगभग मध्यायु में पहुँच जाने के बाद वो बचपन में पढ़े एक पाठ का वास्तविक अर्थ जीवन की पाठशाला में समझने जा रही है; एक सब्ज़ी वाले से।

दफ़्तर से घर लौटते हुए शांति हर तीसरे-चौथे दिन तिलकनगर के बाज़ार से सब्ज़ी खरीदती हुई लौटती है। दुकानें भले ही दो हैं और दरें भी थोड़ी ज़्यादा पर सहूलियत के लिए वो इतना समझौता करती है। पहले वो दो में किसी भी सब्ज़ीवाले से सौदा ले लेती। प्रकाश भाई की दुकान एकदम बाहर की तरफ़ है और उसने अपनी झल्लियों को दुकान से बाहर सड़क तक फैला रखा है। प्रकाश के तीन और भाई हैं; कपिल, जीवन और हनुमान। हनुमान के पास एक अलग गाला है फलों के लिए। मगर फलों के भाव किसी भी भाई से पूछ लीजिये और किसी भी कांटे पर नाप-तौल कर लीजिये, सब एक है। चारों भाईयों की माँ भी सुबह के वक़्त अक्सर पालक और मूली धोती दिख जाती है। उनकी दुकान की सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि ज़कूनी और बेलपेपर जैसी विदेशी सब्ज़ियों से लेकर कंटोला और लसोढ़ा जैसी देसी सब्ज़ियाँ सब मिल जाती हैं। अपने इस गुण के लिए प्रकाश की दुकान पर सब्ज़ी खरीदने लोग दूर-दूर से चले आते हैं।

मगर शांति उनके यहाँ से सब्ज़ी नहीं खरीदती। उसी बाज़ार में थोड़े अन्दर की तरफ़ बद्रीप्रसाद की एक और दुकान है, शांति पिछले डेढ़-दो बरस से वहीं से सब्ज़ी खरीदती रही है। दुबला-पतला बद्री ज़कूनी और लसोढ़ा तो नहीं रखता पर काम भर की सारी सब्ज़ी उसके पास मिल जाती है। तेरह-चौदह बरस का शरमीला सा आकाश, स्कूल की वर्दी में अपने बाप का हाथ बँटाता है। ज़ाहिरन वो स्कूल से सीधे घर न जाकर दुकान चले आता है। जहाँ प्रकाश की दुकान पर गाहको के कंधे और हाथों की टोकरियां एक दूसरे से टकराती रहती हैं वहीं बद्री के दुकान के सामने का गलियारे में हवा बिना किसी गाहक से टकराए आती-जाती है। इस तरह से एक दुकानदार की उपेक्षा शांति को अच्छी न लगी। होना तो ये चाहिये कि दोनों दुकानदारों को बराबर का मौक़ा मिले। बद्री की दुकान ज़रा अन्दर होने का उसे इतना नुक्सान हो यह शांति को ज़रा नहीं जंचा। और उसने तय किया कि बाक़ी दुनिया करे बद्री के साथ पक्षपात वो नहीं करेगी। वो बद्री से ही सब्ज़ी लेगी। और अपने इसी आग्रह के चलते वो एक बचपन में पढ़े पाठ का वास्तविक अर्थ सीख सकी।

उस दिन भी घर लौटते हुए जब शांति ने स्कूटर तिलकनगर बाज़ार पर रोका तो प्रकाश की दुकान के आगे दर्ज़न भर लोग टोकरियां लेके इधर-उधर टहल रहे थे। और बद्री की दुकान पर कुल जमा ढाई लोग थे। दो औरतें और एक बच्चा। हरे रंग के अनेक आभाओं के बीच टमाटर और बैंगन अलग चमक रहे थे। शांति ने आदतन सबसे पहले वही टोकरी में छांटकर डाल दिये। पानी से धोकर और कपड़े से चमका कर रखी पूरे साल दिखाई देने वाली शेष सब्ज़ियां उसके भीतर कोई उत्साह पैदा करने में असफल रहीं। फिर भी अनमने भाव से उसने आधा किलो करेला, और आधा किलो लोबिया ले ही लिया। और एक-एक गड्डी धनिया, पुदीना, थोड़ी मिर्चा और अदरक भी। शांति ने देखा धनिया एकदम मुरझाया हुआ है।
ये कैसा धनिया है बद्री?
आजकल ऐसा ही आ रहा है, भाभी।
पालक ले लीजिये, एकदम ताज़ा है, बद्री ने आग्रह किया।

शांति ने देखा कि बद्री का बेटा आकाश बाहर से गीले बोरे में बंधी हुई पालक और दूसरे हरे साग ला रहा है। पालक सचमुच ताज़ा था। और पालक के ही साथ धनिया और पोदीना भी अपने ताज़गी में लहलहा रहे थे।
अरे ये धनिया तो अच्छा है बद्री.. वो धनिया निकाल दो, ये वाला दो!
जी भाभी!, बद्री ने सधे स्वर में कहा।
आकाश को बोरा खोलकर पालक औ धनिया निकालने में समय लग रहा था। तो उसने सोचा कि तब तक बगल की दुकान से फल ही ले ले। और जब शांति जिस पल फल की दुकान से खरबूजे की मिठास महक रही थी, उसी पल में वो घटना घटी जो आगे चलकर उसे जीवन का वो अहम पाठ पढ़ाने में सहायक बनी। शांति ने जब घर लौटकर अपना झोला खोलकर धनिया निकाला तो पाया कि बद्री ने उसके इसरार के बावजूद धनिया नहीं बदला था। अपने पुराने सूखे और मुरझाए धनिया से भी बद्री ने पाँच रुपये निचोड़ लिए थे। शांति को एहसास हुआ कि वह ठग ली गई है!
और तब पाखी ने आकर पूछा कि, 'ममी इसका मतलब क्या है.. प्राकृतिक चयन वो प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी प्रजाति की आबादी में जैविक गुण उनके वाहकों के अस्तित्व पुनरुत्पादन पर निरन्तर प्रभाव के कारण से प्रचुर या विरल हो जाते हैं।

ये डार्विन की विकासवास की परिभाषा है.., शांति ने थैला रखते हुए कहा।
विकासवाद नहीं ममी.. ये प्राकृतिक चयन की परिभाषा है..
हाँ, एक ही बात है..
पर ममी इसका मतलब क्या हुआ..

शांति जानती है ईवोल्यूशन क्या है और नैचुरल सिलेक्शन क्या है। वो जीवन भर विज्ञान की विद्यार्थी रही है। मगर उस खीज भरे पल में ठीक-ठीक सोच पाना और अपनी सोच को सही शब्दों में अपनी बच्ची को समझा पाना, उस से नहीं हो पा रहा था।

थोड़ा सांस लेने दे..बताती हूँ.. शांति ने कह तो दिया मगर ठगे जाने की हार जैसे भाव में उसके विचार वापस बद्री की ओर लौट गए। उस रात शांति पाखी को कुछ नहीं बता सकी। बात आई-गई हो गई। पाखी दूसरी बातों और दूसरे पाठों में लग गई। फिर तीसरे रोज़ दफ़्तर से बाहर निकलते हुए शांति ने स्कूटर को किक मारी तो उसने आप को सब्ज़ी लेने का काम याद दिलाया। और उसे बद्री याद आया। उसने सोचा कि वो बद्री की कस के ख़बर लेगी, जम के डाँटेगी उसे।

स्कूटर स्टैण्ड पर चढ़ा कर और डिकी से झोला निकाल कर जब वो बद्री की दुकान की तरफ़ बढ़ने लगी तो अचानक उसे लगा कि बद्री से बात करने का कोई मतलब नहीं.. अच्छा यही होगा कि वो उसके यहाँ से सब्ज़ी लेना ही बंद कर दे। मामूली नफ़े के लिए गाहक को धोखा देने की बद्री की इस आदत को हतोत्साहित करने का इससे अच्छा और तरीक़ा नहीं है। और फिर ये सोचते हुए वो प्रकाश की दुकान पर जा खड़ी हुई कि प्रकाश की लोकप्रियता का कारण अकेले बाहर की तरफ़ दुकान होना नहीं है। और जब उसने एक टोकरी अपने हाथ में ले ली तभी उसे समझ आ गया कि उसने जो किया वो नैचुरल सिलेक्शन है। प्रकृति के अनुकूल गुण को स्वयं प्रकृति, अस्तित्व में बने रहने का ईनाम देती है और आगे बढ़ाती है। और तुरन्त उसे पाखी का ख़्याल आया। अब उसे घर पहुँचने की जल्दी होने लगी। डार्विन के प्राकृतिक चुनाव की परिभाषा का सरल अर्थ पाखी को जो बताना था।
***

(पांच जून दो हज़ार ग्यारह, इतवार को दैनिक भास्कर में छपी)

कला कभी अनुशासित नहीं होती


हुसैन नहीं रहे। उनके साथ ही एक युग का अंत जैसा हो गया। उनके जाने से बहुत धक्का लगा या अपार दुख हुआ या मैं सन्न हूँ जैसा कुछ भी नहीं है मेरे पास। जब ९६ साल का आदमी मरता है तो उसके मरने की कल्पनाएं बहुत पहले से शुरु हो जाती हैं। हुसैन ने तो एक भरा-पूरा, लम्बा जीवन जिया। एक स्वस्थ जीवन। मरने से दो महीने पहले तक के इन्टरव्यूज़ में वे अपने विचार, उमंग और चेष्टाओं में पूरी तरह से चैतन्य और सजग दिखाई देते हैं। जीवन के प्रति लालसा और चाहना से भरे हुए। बहुत कुछ कर लेने के उत्साह से लबालब। उसी किसी साक्षात्कार में मैंने उन्हे यह कहते भी सुना कि वे आधे पेट ही खाते हैं। लम्बी उमर की कामना वाले नोट कर लें। मैं ने तो गाँठ बाँध ली है- लेकिन आत्मा के उस पहलू का क्या जो ज़ुबान पर बसती है?

हुसैन कितने पुरातन थे यह छियानबे कहने से पता नहीं चलता। वो आदमी देश के बँटवारे के समय तक ही बत्तीस का होकर एक उमर जी चुका था और मंटो और फ़ैज़ की तरह उसने पाकिस्तान नहीं चुना था। जब गुरुदत्त ने ख़ुदकुशी की तो हुसैन उन्चास साल के थे जबकि ख़ुद गुरुदत्त उन्तालिस में ही अपनी ज़िन्दगी से आजिज़ आ गए थे। और जब सत्तर के दशक में उन्होने अपनी कुख्यात देवी सीरीज़ के चित्र बनाने शुरु किए तो वो पचपन पार कर चुके थे और उनके स्टाईल में कई बुनियादी बदलाव आके गुज़र गए थे। अक्सर लोग उन चित्रों को आईसोलेशन में देखते हैं जिससे वो किसी अपशब्द की तरह लिखे दिखाई देते हैं। मगर अगर किसी किताब के किसी अध्याय के किसी वाक्य के किसी शब्द को अकेले ही पढ़ा जाय तो एक नहीं बहुत सारे शब्द अपशब्द बन जाएंगे। हर शब्द अपने सन्दर्भ में ही अर्थवान होता है।

अक्सर लोग हुसैन के नाम के साथ महान चित्रकार की माला जपते हुए क्रांतिकारी सलाम-वलाम ठोंकने लगते हैं। ये सब नासमझी और शोशेबाज़ी है। हुसैन चित्रकला में वैसे ही थे जैसे अभिनयकला में शाहरुख़ ख़ान हैं। मीडिया को लुभाना और अरझाना दोनों उन्हे आता था। उनकी सबसे बड़ी पहचान ये थी कि वे हिन्दोस्तान के सबसे महँगे बिकने वाले चित्रकार थे। अदा ये थी कि नंगे पैर चलते थे। चित्रकला में उनका क्या विशिष्ट योगदान है, यह पूछने पर कोई स्पष्ट जवाब आप पा सकेंगे, शक़ है। सबसे रौशनी में खड़ा आदमी ही सबसे ज़हीन और अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण चिह्नों से लैस नहीं होता। बहुत सारे दूसरे लोग नीम-अंधेरों और घुप अंधेरों में बहुत से अहम काम कर जाते हैं। लेकिन सचिन तेंदुलकर और सलमान ख़ान को बल भर गरियाने वाले लोगों को भी हुसैन के नाम के आगे पिघल कर पानी हो जाते मैंने देखा है। इससे उनके व्यक्तित्व की कशिश का अन्दाज़ा होता है या शायद लोगों की कलात्मक समझ का भी।

बुड्ढे में कितना दम था इसे ऐसे भी समझा जाय कि जब बॉलीवुड से उनका अफ़ैयर शुरु हुआ तो वो सतहत्तर पार कर चुके थे। और अपने जीवन के आठवें दशक में उन्होने माधुरी और तब्बु से अपने इश्क़ को जगज़ाहिर किया और गजगामिनी और मीनाक्षी बनाई। जीवन के अपने आख़िरी दौर में हुसैन ने देश छोड़ दिया था। तमाम लोग इसे तमाम तरह से देखते हैं लेकिन हुसैन का कहना था कि वो ९० की उमर में किसी से लड़ना नहीं चाहते थे। बीच में कभी फ़ेसबुक पर उदय प्रकाश ने राजेन्द्र यादव के लिए लिखा था कि सतहत्तर के बाद कोई भी सामान्य इन्सान देवता हो जाता है, हुसैन तो उस पर भी उन्नीस मुक़ाम पार कर गए थे।

रही बात भावनाओं को चोट पहुँचाने की तो कला ने भावनाओं को झकझोरा ही नहीं तो काहे की कला? किसी भी सभ्य समाज को अपने कलाकार के झकझोर के लिए इतनी जगह ख़ाली रखनी चाहिये। नहीं तो पिकासो ने ये भी कहा है कला कभी अनुशासित नहीं होती। और इसीलिए उसे नादान अज्ञानियों के लिए हराम रखना चाहिये, जो कच्चे-अधपके हैं उन्हे पास भी नहीं फटकने देना चाहिये। हाँ, कला ख़तरनाक है। और जहाँ वो अनुशासित है, कला नहीं है

मंगलवार, 7 जून 2011

यू पी की लड़ाई में बाबा चँप गए


दिल्ली के रामलीला मैदान में जो हुआ वह कोई रणनैतिक भूल नहीं थी जैसे कि अभी कांग्रेस पार्टी, पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ जाने पर, बता रही है। असल में यह एक लाइन से पलटी मार कर दूसरी लाइन पकड़ लेने का झटका था। कांग्रेस में पिछले कुछ समय से दो लाइनें आपस में टकराती रही हैं। एक लाइन तो साफ़ तौर पर सत्ता पर क़ाबिज़ है और जिसका मक़सद है देश में भूमण्डलीय प्रतिमानों पर पूँजीवाद का विकास करना। मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम इस लाइन के प्रवक्ता हैं। दूसरी लाइन का मक़सद है कांग्रेस के पुराने क़िले उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करना। सन १९८९ के बाद से कांग्रेस का यूपी से जो सफ़ाया हुआ है तो दुबारा वहाँ सत्ता की उसकी फ़सल बटाई पर भी काटने लायक़ भी नहीं हो सकी है।

राहुल बाबा का जादू भी निहायत बेअसर रहा है। चालीस का हो जाने के बाद भी उनके अन्दर किसी भी तरह की राजनैतिक बुद्धि पनपती नहीं दिख रही है। और कांग्रेसजन इस बात पर एकमत हैं कि सत्ता हासिल करने के लिए गांधी परिवार की किसी सदस्य का सदर की कुर्सी पर बैठना उनके लिए भाग्यशाली रहता आया है। चाहते तो वो असल में ये हैं कि राहुल के बदले प्रियंका जी टोपी पहन लें मगर सोनिया ज़िद करके बैठी हैं कि प्रधानमंत्री बनेगा तो मेरा बेटा ही। और बेटाजी भी पापाजी के नक़्शेक़दम पर चलने को बेताब हैं। लिहाज़ा दिग्विजय सिंह की घाघ बुद्धि को उनकी सेवा में लगा दिया गया है। तभी से दिग्विजय सिंह कांग्रेस की दूसरी लाइन के प्रवक्ता के रूप में उभरे हैं जिसका म़कसद, जैसा कि पहले कहा, यूपी में सत्ता हासिल करके केन्द्र में पूर्णबहुमत की सरकार में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है।

इन्दिरा गांधी के समय तक कांग्रेस का वोट तीन तरफ़ से आता था- ब्राह्मण, दलित और मुसलमान। राजीवगांधी ने १९८९ के चुनाव के बाद इन तीनों पर से अपने इज़ारेदारी गँवा दी। १९८७ के भागलपुर के दंगे और हाशिमपुराकाण्ड के बाद से मुसलमान का कांग्रेस से पूर्ण मोहभंग हो गया और उन्होने दूसरा रास्ता देखा। और १९८४ के बाद से निरन्तर एक शक्ति के रूप में बढ़ती बीएसपी के कांशीराम ने दलित को जगाकर बता दिया कि कांग्रेस उनके वोटों की हक़दार क्यों नहीं है। धीरे-धीरे दलित वोटबैंक भी कांग्रेस के हाथ से रेत की तरह खिसक गया। और इन दोनों के जाने के बाद ब्राह्मण जाति के वोट कांग्रेस को मिलते तो रहे मगर किसी बैंक की तरह नहीं। और पिछले चुनाव में तो मायावती ने वो भी छीन लिए। 

दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को समझा लिया है कि यूपी में वापसी इन जातियों का वोट मिले बिना मुमकिन नहीं है। लिहाज़ा राहुल, राजकुमार के मोहक चेहरे से बहक सकने वाले दलितो को कनविन्स करने में लगे हैं कि वो उनके कितने हितचिंतक हैं। दूसरी तरफ़ अधिक कठिन मुसलमानों को बरग़लाने का काम दिग्विजय ने अपने हाथ में लिया है। ब्राह्मणों की चिंता वो अभी नहीं कर रहे हैं क्योंकि जब सत्ता मिलती दिखाई देगी तो परम्परा से हमेशा से सत्ता के क़रीब रहने वाली ब्राह्मण जाति आसानी से वापस लौटा ली जाएगी।

इसीलिए जब से उन्हे यूपी का प्रभार मिला है मुसलमानों के भीतर मौजूद अल्पसंख्यक भय को भाने वाली बातों को कहने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। ये बहुत ही अफ़सोस की बात है कि इस देश की राजनीति की धुरी बड़े तौर पर भय से प्रचालित होती है। इस धुरी का एक पहलू है जिसमें मुसलमानों को हिन्दू कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं और उसी धुरी का दूसरा पहलू वो है जिसमें हिन्दुओं को मुसलमान कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं। वामपंथ को इनमें से खुरचन भी नहीं मिलती लेकिन वो ख़ुद अपने हाथों से इस धूल को अपनी और अपने समर्थकों की आँखों में झोंकता रहता है।

जब बाबा रामदेव को एअरपोर्ट लेने चार मंत्री पहुँचे तो उसके पीछे मनमोहन की समझौतापरस्त लाइन काम कर रही थी जो पूँजीवादी विकास के लिए शांति का माहौल चाहती है और व्यवस्था में थोड़े-मोड़े सुधार करने की भी पक्षधर है। लेकिन जब आधी रात को सोते हुए लोगों पर पुलिस को छोड़ दिया गया तो वो दिग्विजय की लाइन थी जो साफ़ तौर पर हिन्दू दिखने वाले और हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करने वाले बाबा को ठग बताकर मुसलमान को उनके हितचिन्तक होने का विश्वास दिलाना चाहते हैं। जब वे ओसामा जी के दफ़न-कफ़न के प्रति चिन्तित होते हैं तो उसके पीछे भी ही यही मंशा काम कर रही होती है।

और बाबा को आर एस एस का मुखौटा बताने के पीछे भी यही सोच है कि मुसलमानों को डराया जाय और ये बताया जाय कि कैसे वो आर एस एस के ख़िलाफ़ हैं और इसलिए उनके पक्ष में हैं। जबकि बाबा रामदेव का आर एस एस से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं। जो मुद्दे आर एस एस उठाता रहा है वो बाबा भी उठा रहा है और आर एस एस उनका समर्थन भी कर रहा है। इसी आधार पर उन्हे आर एस एस का कीच मलकर मलिन किया जा रहा है। ये दिलचस्प है कि कैसे कोई मुद्दा किसी संगठन को मलिन करता है और फिर संगठन ही दूसरे मुद्दों को छू देने भर से मैला कर देता है। अब भ्रष्टाचार आर एस एस के छू देने से मैला हो चुका है। और रही बात रामदेव की तो वो ज़ाहिरी तौर पर आर्यसमाजी परम्परा में है। आर्यसमाज भी एक समय में मुसलमानों के साथ संघर्ष की भूमिका में रहा है मगर आम मुसलमान को वो सूक्ष्म अंतर कौन समझाए। और अब आर एस एस का खौफ़ फ़ैशन में भी है तो इसीलिए दिग्विजय हर बात घुमा-फिरा कर आर एस एस की ओर मोड़ देते हैं।   

बाबा का तम्बू उखाड़कर कांग्रेस ने २०१२ के यूपी के चुनावों में  मुसलमानों के वोट पर अपनी दावेदारी पेश की है और मायावती को सीधी चुनौती दी है। क्योंकि असल में मायावती ही कांग्रेस की विरासत पर कुण्डली मारकर बैठ गई हैं। दलित, मुसलमान और ब्राह्मण का समीकरण अब उनके पास है। कांग्रेस की इस चाल को मायावती भी अच्छी तरह समझती हैं इसीलिए जब बाबा को दिल्ली से हकाला गया तो मायावती ने उनको भाव देना तो दूर यूपी की सीमा में वापस घुसने भी नहीं दिया। वो नहीं चाहतीं कि मुसलमान के बीच यह इम्प्रेशन जाय कि वो बाबा को बढ़ावा दे रही हैं। अपने व्यवहार में मायावती ने कहीं अधिक राजनैतिक परिपक्वता का मुज़ाहिरा किया है। 

कुछ भटके हुए लोग भले यह समझते रहें कि भ्रष्टाचार १९९१ के आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं मगर घुटे हुए समझदार लोग जानते हैं कि भ्रष्टाचार युगों पुराना रोग है। प्राचीन काल में था और मुग़ल काल में भी। कम्पनी के गोरे भी इस रोग से ग्रस्त थे और आज़ादी के तथाकथित मतवाले भी। बीच-बीच में जनता आजिज़ आकर हल्ला मचाती है मगर वापस ढर्रे पर लौट जाती है क्योंकि हर आदमी जो दूसरे के भ्रष्टाचार से दुखी है अपने भ्रष्ट आचरण के साथ सुखी है। बाबा रामदेव ने भी भ्रष्टाचार का झण्डा अपनी सस्ती लोकप्रियता को और भड़काने के लिए उठाया है। बाल-दाढ़ी बढ़ाकर शादी न करने से आदमी वास्तविक ब्रह्मचारी नहीं हो जाता। ब्रह्म के अलावा भी बहुत कुछ में विचरण करने वाले बाबा ने ब्लेड और शादी से सन्यास भले लिया हो सांसारिकता से सन्यास नहीं लिया है।

बाबा कितने आत्मकेन्दित और महत्वाकांक्षी हैं, ये कोई भी देख सकता है। अगर उन्हे वास्तव में भारत और भारतीय मानस में व्याप्त भ्रष्टाचार की चिंता तो है तो भ्रष्टाचार की जड़ पर वार क्यों नहीं करते? आचार पर? धर्म तो समाज की इकाई व्यक्ति को मानता है। समाज परिवर्तन की धुरी वो व्यक्ति को मानता है। इसीलिए साधु समाज को नहीं बदलता, स्वयं को बदलता है। बाबा कहाँ अनशन में जुट गए?

अनशन बापू का हथियार था और याद रहे बापू साधु नहीं, राजनीतिज्ञ थे। उनका अनशन अपने भीतर की वृत्तियों पर क़ाबू पाने के लिए नहीं था जैसा कि हर सच्चा धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति करता है, उनका अनशन राजनैतिक लक्ष्य के लिए होता था। इसलिए कोई अगर ये कहे कि बाबा तो राजनीति नहीं कर रहे थे, तो वो नासमझ हैं। सिर्फ़ चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं होती। राज्य की नीति परिवर्तन के लिए जो कुछ भी किया जाय वो सब राजनीति है।

मगर बाबा कच्चा है। वो दिग्विजय सिंह जैसा घाघ नहीं है। राजनीति उसके बस की नहीं। अच्छी राजनीति करने के लिए सिर्फ़ अच्छा आदमी होना ज़रूरी नहीं, कुटिलता ज़रूरी है। और बाबा के तो अच्छे होने पर भी सन्देह है। बाबा का असली योगदान तो यह हो सकता था कि वो व्यक्तियों के भीतर भ्रष्टाचार के अनैतिक बीज के विरुद्ध आध्यात्मिक जंग का ऐलान करे। मगर वो यह कर सकें ये बूता उनमें नहीं है। जिस व्यक्ति ने योग को महज़ शरीर को एक स्वस्थ रखने की पद्धति बना दिया उससे आप किसी आध्यात्मिक समझ की क्या उम्मीद कर सकते हैं? जिस पतंजलि के नाम पर उन्होने अपना विद्यापीठ बनाया है उनकी दो हज़ार से भी पुरानी किताब योगसूत्र में किसी आसन का कोई ज़िक़्र नहीं है, वो सिर्फ़ एक दार्शनिक-आध्यात्मिक सिद्धान्त है। आसन-बन्ध-मुद्रा वाला ये संस्करण तो गोरख और मछन्दर के बाद नौवीं-दसवीं सदी से आया है। और उसका भी ध्येय शरीर में रमना नहीं, स्थूल शरीर के पार जाना ही है। पर वो सब किसे याद है?


दिल्ली से निकाले जाने के बाद बाबा ने जिस तरह की अनावश्यक दारुणता का मुहावरा चुना है उससे कुछ लोग भले ही धोखा खा जायें पर अधिकतर लोग उनकी नौटंकी के आर-पार देख सकेंगे। 
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