सोमवार, 18 जुलाई 2011

वे दिन



रात के कोई दस बजे थे। सड़कों पर ट्रैफ़िक की नदी का वेग कुछ मन्द ज़रूर हुआ था पर थमा न था। काली रात में तारों की चमक भी थी। मगर शहर धूल और धुएँ की मोटी चादर से ढका हुआ था। सर उठा कर देखने पर आसमान तो दिखता था पर तारे नहीं। हैलोजेन की रौशनी में नहाई सड़कों पर फ़िसलते स्कूटर पर सवार अजय तक कोई चमक नहीं पहुँचती थी पर शांति का मन न जाने कैसे उस तारों भरी रात के रूमान में नहाया हुआ था। अजय तो चाहता था कि वो कार से चलें मगर शांति ने ही इसरार किया कि पुराने दिनों की तरह स्कूटर से चलते हैं। और पुराने दिनों की याद में ही उसने स्कूटर अजय को ही चलाने दिया। पीछे की सीट पर से तेज़ी से गुज़रती दुनिया एक बहाव सी मालूम देती है। कभी-कभी सिर्फ़ बहना ही अच्छा लगता है।

सुनील, अजय का सहकर्मी है, नई-नई शादी हुई है उसकी। वैसे तो नवविवाहित दुनिया की ओर अधिक रुख़ करते नहीं। एक दूसरे को खोजने के लिए ही समय कम पड़ता है। इसलिए सुनील और नीता ने जब उन्हं खाने का न्योता दिया तो उन्है हैरत हुई और खुशी भी। किसी नवदम्पति को देखकर हमेशा एक सुख का अनुभव होता है। उनमें किसी फूल की तरह प्रकृति का चरम सौन्दर्य झलकता है। मुश्किल से ही उनके बीच  कभी कोई विवादी स्वर लगता है। एक दूसरे के संग पूरी तरह राज़ी, एक दूसरे में पूरी तरह रमे हुए, एक दूसरे में ही बसे हुए-जमे हुए। उनसे मिलने के ख़याल से ही शांति में एक उत्सुकता जाग गई थी। और जब ये तय किया कि वे बच्चों को छोड़कर जायेंगे तो उसे वे दिन याद आने लगे जब वो स्वयं एक नवविवाहिता थी। वे दिन भी क्या दिन थे। उन दिनों में भी संसार था, लोग थे, समाज था पर जैसे कोई कुछ अहमियत नहीं रखता था सिवाय उन दोनों के। मानो वे कमल के पत्ते की तरह संसाररूपी जल पर रहकर भी उससे गीले नहीं होते थे। अपनी भावनाओं के द्वीप में वे आदम और हव्वा की तरह निर्दोष रूप से रहते थे। वही निर्दोषपन शांति को उनके प्रति एक अनोखे आकर्षण से भरे हुए था।   

दरवाज़ा नीता ने खोला। साँवला रंग लेकिन खिला हुआ। आम तौर पर पीला रंग साँवली देह पर नहीं जाता। पर उसकी देह में कुछ ऐसी कांति थी कि हलकी पीली साड़ी उस पर ख़ूब फब रही थी। सुनील को शांति ने अजय के साथ पहले भी देखा है। पर उसे उसकी नवविवाहिता नीता के साथ एक अलग सुनील को देखना था। दोनों अजय और शांति से अलग-अलग होकर मिल रहे थे फिर भी जैसे एक दूसरे को थामे हुए थे हर पल। उनकी एक-एक चेष्टा एक दूसरे के बन्धन में थी। हाथ छूटे हुए थे मगर नज़रों से बँधे थे, नज़रो से छूटते तो मुद्राओं से बँधे रहते। उनके हाथ और पैर भी अनायास ही एक दूसरे की ओर उन्मुख रहते। वो अजय और शांति को देखकर मुस्करा रहे थे, हँस रहे थे, पर असल में उनकी एक-एक मुस्कान का स्रोत और लक्ष्य वे स्वयं थे। उनको देखकर शांति में भी अजय के प्रति उसके गहरे और पुराने प्रेम का रंग घुलने लगा, फिर से प्रेम का वही स्वाद मिलने लगा।

घर छोटा था पर सुरुचिपूर्ण था। उनकी दुनिया की तरह उनकी गृहस्थी भी सीमित थी। एक कोने में एक सितार भी रखा हुआ था। शांति को उत्सुकता हुई। नीता ने बताया कि वो बजाती है। और कुछ सुनाने की फ़रमाईश करने पर बजाने को राज़ी भी हो गई। संगीत सुनना और संगीतकार के सामने बैठकर सुनना और उसे देखना, दोनों एकदम अलग अनुभव हैं। नीता  राग के भावों को साज़ से ही नहीं अपने पूरे शरीर से भी अभिव्यक्त कर रही थी। शांति को उसका ये अंदाज़ बड़ा मोहक मालूम दिया और वह उन भावों में इतना डूब गई कि उसने कब अजय की बाँह कसके पकड़ ली उसे पता ही न चला। भावों की तरंगे उसके शरीर से अजय की देह में रिसने लगीँ। पर उधर से आने वाले भाव इतने अनुकूल नहीँ थे। शांति को लगा जैसे अजय उसकी पकड़ में बहुत सहज नहीं है। उसको अजय के शरीर में एक तरह के तनाव का अनुभूति हुई। शायद अजय उस संगीत का उतना आनन्द नहीं ले पा रहा था जितना शांति। सुनील का तो कहना ही क्या, वो तो प्रेम में डूबा था। उस पूरे माहौल में अजय के बदन से उमड़ता वो तनाव ही उसे विवादी स्वर लगा। शांति ने उस असहजता को वर्जित मानकर उसका हाथ छोड़ दिया। और उसे ज़रा अहमियत न देते हुए भूल भी गई।

तक़रीबन डेढ़ घंटे बाद जब वे घर वापस जाने के लिए नवदम्पति से विदा लेकर लिफ़्ट में सवार हुए तब तक शांति अजय की असहजता और तनाव दोनों को भूल चुकी थी। उस की तबियत पर उन क्षणों में भी संगीत के रुमान का रंग तारी था। लिफ़्ट का दरवाज़ा बंद होते ही वे अकेले हो गए। उन दिनों में ऐसे मौक़ों पर अजय जो करता था उसे सोचकर शांति के मन में झुरझुरी सी हो गई। उसने चाहा कि उन दिनों की तरह अजय उस पर झुक आए और हलके से चूम ले। उसने तिरछी नज़रों से देखा- अजय उदासीनता से कहीं परे देख रहा था। शांति ने चाहा कि वो ही उसे चूम ले। वो उसकी तरफ झुकी भी पर लिफ़्ट का दरवाज़ा खुला और अजय बिना उसकी ओर देखे आगे बढ़ गया। शांति गिरते-गिरते बची।

लौटते में भी शांति ने स्कूटर अजय को ही चलाने दिया। आसमान तब भी तारों से गछा हुआ था। और इस बार रात से रूमान नहीं बरस रहा था। उलटे शांति के मन से सारा रूमान रात की कालिमा में घुलता जाता था। बिना टूटे भी कैसे प्यार का धागा इतना ढीला पड़ जाता है कि उससे उदासी के सिवा कुछ और नहीं बुना जाता- बिना सोचे भी शांति इस ख़याल के सहारे ठहर गई।

रसोई में पानी की ख़ाली बोतलें भरते हुए शांति अजय से अपने रिश्ते के बारे में ही सोचती रही। अजय भी फ़्रिज से ठण्डा पानी लेने रसोई में चला आया। वे दिन होते तो अजय धीरे से आकर उसकी कमर में बाँहें डाल कर उसकी गरदन को चूम लेता। उसने चूमा भी मगर शांति की कल्पना में। वास्तविकता के तल पर फ़्रिज का दरवाज़ा खोले  अजय चुपचाप गटगट पानी पीता रहा। शांति के मन में बस एक ही सवाल घुमड़ रहा था और बहुत रोकने पर भी वो उसके मुँह से निकल ही गया- अब तुम मुझे प्यार नहीं करते न?

यह सुनते ही अजय को ज़ोर का ठसका लगा और वो खाँसने लगा।


***

(कल के दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई)

चित्र - वैन गौ

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपनी सामान्य जिन्दगी में औरों के जीवन की प्रगाढ़ता सदा ही उदासी के तार बुनती है।

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

सच में, मज़ा आ गया ;-) बस आप उंडेलते रहिये हम पान और स्नान जारी रखे हुए हैं ;-)

मीनाक्षी ने कहा…

@प्रवीणजी की सोच से न शांति सहमत होगी न मैं हूँ ...अजय ने खाँसने के बाद क्या जवाब दिया होगा...इसे भी विस्तार दीजिए...

रंजना ने कहा…

सच है,अजय का उत्तर जानने की उत्कंठा बलवती हो गयी...

सुन्दर ताना बुना है आपने...

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