बुधवार, 25 अगस्त 2010

क्रौञ्च की खरौंच


'शब्द चर्चा' पर आए दिन ज़बरदस्त शब्द संधान और शब्द विवेचना होती रहती है। कई दफ़े तो सन्देशों की संख्या पचास के भी पार चली जाती है। पिछले दिनों योगेन्द्र सिंह शेखावत ने क्रौञ्च पक्षी के बारे में शंका ज़ाहिर की। इस क्रौञ्च पक्षी की प्रसिद्धि यह है कि वाल्मीकि के कवि बनने और उसके बाद कवियों के बोझ से इस पवित्र भूमि के भारी हो जाने के पीछे यही क्रौञ्च पक्षी ज़िम्मेदार था। वह करुणगान, काव्य इतिहास का वह तथाकथित पहला श्लोक जो इस क्रौञ्च के निमित्त जन्मा वह वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के द्वितीय सर्ग में मिलता है-
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीं समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥

photo by Fraser Simpson
तमसा तट पर अपने प्राण का बलिदान दे कर जिस क्रौञ्च पक्षी ने कविता जैसी आतंकित कर देने वाली विधा को जन्म दिया है उसके प्रति पीडि़तजनों की जिज्ञासा स्वाभाविक है। आम तौर पर लोगों का विश्वास है कि यह सारस नाम को वह पक्षी है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना राजकीय पक्षी घोषित कर रखा है। उस बेचारे सारस को यह बात मालूम नहीं है और वह निष्ठावान निरीह पक्षी ग़रीब किसानों के पानी भरे खेतों में छोटे-मोटे कीड़ों से ही अपनी क्षुधातृप्ति करता है। अगर उसे पता चलता तो वो लाल बत्ती लेकर शहरों के बजबजाते ट्रैफ़िक को चीरता हुआ किसी भी रेस्तरां में जा कर अपनी पसन्द के कीटों का महाभोज पा सकता था। लेकिन उसके जीवन की कहानी शुरु से अभी तक करुणा से ही भरी हुई है। और करुण बात ये है कि रामायण में वर्णित और उसमें सहज प्राप्य, अपने साथी के प्रति जीवन भर की निष्ठा के बावजूद कुछ लोग उस के क्रौञ्च होने पर ही प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। आयें समझें कि मामला क्या है?

सारस के बारे में मुख्य आपत्ति यह है कि वह नदी किनारे नहीं बल्कि मुख्य रूप पानी भरे खेतों में पाया जाता है, यानी दलदली भूमि में पैदा होने वाले कीट उसका मुख्य आहार हैं। अब यह प्रश्न उठ ही सकता है, और जिसे चर्चा में मेरे मित्र आशुतोष ने उठाया भी कि भई क्या तमसा नदी के किनारे हरे-भरे पानी से भरे खेत नहीं हो सकते? हो सकते हैं.. कभी-कभी नदी के ठीक किनारे पर खेत मिलते हैं। मगर यहाँ वाल्मीकि के श्लोक स्वयं आड़े आ जाते हैं।
उसी प्रकरण यानी बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग के चौथे श्लोक में वे कहते हैं-
स तु तीरं समासाद्य तमसाया महामुनिः।
शिष्यमाह स्थितं पार्श्वे दृष्ट्वा तीर्थमकर्दमम॥

यह जो श्लोक के अंत में तीर्थमकर्दमम्‌ आया है इसका सन्धि विच्छेद होगा तीर्थं अकर्दमं यानी बिना दलदल का किनारा। ये हुआ एविडेन्स नम्बर वन माई लौर्ड। और ये देखिये एविडेन्स नम्बर टू, उसे सर्ग के आठवें श्लोक में-
स शिष्यहस्तादादाय वल्कलं नियतेन्द्रियः।
विचचार ह पश्यंस्तत्सर्वतो विपुलं वनम्॥

पश्यं तत्‌ सर्वतो विपुल वनं यानी वहाँ खड़े विस्तृत जंगल को देखते हुए। मतलब किनारे पर जंगल है और दलदली पानी नहीं है। ऐसी जगह सारस के लिए ज़रा भी अनुकूल नहीं है।

सारस के विरुद्ध संस्कृत के महाविद्वान वामनराव शिवराव आप्टे भी सारस की कोई सहायता न करते हुए उसकी पहले से ही करुण परिस्थिति को और भी करुण बना देते हैं। उनके संस्कृत-हिन्दी कोष में क्रौञ्च का अर्थ क्रौंच का अर्थ जलकुक्कुटी, कुररी और बगला दिया हुआ है। एक सारस का नाम दे देते तो उनका क्या घटता था क्योंकि जो नाम उन्होने दिये वे भी क्रौञ्च पर सही नहीं बैठते। जलकुक्कुटी (water hen) तो स्वयं संस्कृत नाम है और उसकी पहचान एकदम अलग पक्षी के रूप में आज तक बनी हुई है। कुक्कुट वो शब्द है जिससे भरतीय भाषाओं में मुर्गी के लिए तमाम शब्द कुकड़ी,कुकड़ा, कुकड़ो आदि बने हैं। (कुक्कुट पर भी 'शब्द चर्चा' में चर्चा हो चुकी है) बगला होना मुश्किल है क्योंकि स्वतंत्र रूप से 'बक' की अन्यत्र काफ़ी महिमा है; क्रौञ्च के साथ उसका भ्रम नहीं हो सकता।

रह गई कुररी.. कुररी के बारे में पता चलता है कि इसे sea osprey/ sea hawk/ समुदी उक़ाब कहते हैं। स्वयं आप्टे के कोष में कुररः के मायने क्रौंच और समुदी उक़ाब दोनों दिया है। अब उकाब ज़मीन पर चलते-फिरते तो नहीं दिखते, बहुत ऊपर आसमान से अपना शिकार तड़ते हैं। तो कुररी भी नहीं हो सकता। (इस परचे पर टिप्पणी करते हुए अरविन्द मिश्रा जी ने बताया है कि कुररी नाम की एक और चिड़िया होती है, जिसे अंग्रेज़ी में टर्न कहते हैं, देखें नीचे सदुपदेशों में) और सबसे प्रमुख बात यह कि इन तीनों में साथी के प्रति उस तरह की निष्ठा नहीं मिलती जिसे क्रौञ्च का विशिष्ट गुण बताया गया है। उसकी यह निष्ठा एक नहीं दो जगह बताई गई है.. उसी प्रकरण में नवां श्लोक है..
तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम्।
ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम॥

चरन्तम्‌ नपायिनम्‌ यानी कि चलते हुए वे कभी एक दूजे से अलग नहीं होते थे। दूसरे प्रमाण के रूप में आगे बारहवां श्लोक है-
वियुक्ता पतिना तेन द्विजेन सहचारिणा।
ताम्रशीर्षेण मत्तेन पत्त्रिणा सहितेन वै॥
पतिना सहचारिता यानी सदैव पति के साथ फिरती थी।

अब सारस की समस्या को और जटिल बनाते हुए किन्ही महाशय ने इन्टनेट के एक पन्ने पर क्रौञ्च की पहचान यूरेशियन कर्ल्यू के रूप में कर दी है। रहता भी ये कर्ल्यू नदी, जलाशयों के पास ही है। इस चिड़िया के पक्ष में और महत्वपूर्ण बात ये है कि इसका एक हिन्दी नाम गौंच है। वाल्मीकि के काल से (बीस हज़ार साल से दो हज़ार के बीच कोई भी समय, पाठक अपनी श्रद्धा के अनुसार काल का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं) अब तक तमसा में इतना पानी तो बह ही गया है कि क्रौञ्च जैसे कठोर आर्य शब्द को लोगों ने घिस-घिस कर नदी के पत्थर की तरह चिक्कन और कोमल गौंच बना लिया हो। (लोग आहत न हों कठोर का विशेषण आर्य संस्कृति पर किसी तरह का आक्षेप नहीं बल्कि क और ग ध्वनि का अन्तर है; क, च, ट, त, प, ध्वनियां कठोर गिनी जातीं हैं और ग, ज, ड, द, ब, ध्वनियां मृदु)

लेकिन गौंच महाशय बारहों महीने तमसा तट क्या किसी भी भारतीय तट पर नहीं टिकते। गर्मियों में उत्तरी योरोप और साइबेरिया में रहते हैं, सर्दियों में दक्षिणी योरोप, अफ़्रीका और भारत चले आते है। इस से भी क्या फ़र्क़ पड़ना था और क्रौञ्च का फ़ैसला हो ही जाता मगर सबसे दुख की बात ये पता चली कि वे यहाँ घोंसला नहीं बनाते। और चूंकि मनुष्येतर अधिकतर प्राणी सिर्फ़ प्रजनन के लिए ही मैथुन करते हैं इसलिए कामचेष्टा में लिप्त उस पक्षी युगल के यूरेशियन कर्ल्यू होने की सम्भावना कमज़ोर हो जाती है।

लेकिन दोस्तों, कहानी पिक्चर तो अभी बाक़ी है! यानी एक और सबूत, इस बार सारस के पक्ष में.. इसी प्रकरण के (ऊपर दिए गए) बारहवें श्लोक में ताम्रशीर्षेण का पद उसकी रंगत का एक राज़ खोलता है। ताम्रशीर्षेण यानी तांबे के रंग के सर वाला। अब देखिये सारस और साइबेरियन क्रेन दोनों के सर पर लाल निशान होता है। सारस में सर पर तो नहीं मगर गरदन क एक लम्बा हिस्सा लाल होता है और साइबेरियन क्रेन में ज़रा सा मगर ठीक चोंच के ऊपर।

लेकिन एक कौमन क्रेन भी है, जिसके लिए हिन्दी में नाम है- कुरुन्च, कुर्च, सिन्धी में केअन्ज, और तेलुगु में कुलंग। और मी लौर्ड, इस कुरुंच यानी कौमन क्रेन के सर पर भी लाल निशान मिलता है- ठीक सर पर! अगर भौगोलिक विवरण को अनदेखा कर दें तो इस नई जानकारी के आधार पर लगता है कि अगर कोई क्रौंच हो सकता है तो ये ही। लेकिन नहीं..

निष्कर्ष पर पहुँच जाने की ख़ुशी मैं बाधा डालने के लिए क्षमा चाहता हूँ, मगर ये कुरुंच महाराज, इनका दूसरा नाम यूरेशियन क्रेन है, भी जाड़े भर के मेहमान होते हैं और प्रजनन वहीं साइबेरिया में निपटा कर आते हैं।

हद है बताइये, नाम से लगता है कि ये कुरंच ही है..
साथी के प्रति निष्ठा के चरित्र, और अपने पूर्णकालिक भारतनिवास से लगता है कि सारस है..
और भौगोलिक विवरण से लगता है कि कर्ल्यू है..
सोचिये ज़रा, एक प्रसंग में एक पक्षी की पहचान में इतनी उलझने हैं और जबमामला अयोध्या और लंका जैसे शहरों का हो तो सर फुटव्वल कैसे न हो..

ऐसा लगता है कि वाल्मीकि ने अपने कवि होने के उस अधिकार का कुछ अधिक ही इस्तेमाल कर लिया है जिसे अब पोएटिक लिबर्टी कहा जाता है। लेकिन ये बात नहीं हो सकती क्योंकि इस प्रकरण में वाल्मीकि स्वयं एक चरित्र के रूप में दर्शाये गए हैं, यानी लिखने वाला कोई और है। और इस प्रसंग को बाद में रामायण में जोड़ दिया गया है। और जोड़ने वाले हमारे पूर्वज जो भी थे, या तो वे एक से अधिक थे जो क्रौञ्च को अपने-अपने प्रिय पक्षी के रूप में बताना चाहते थे, और उनकी खींचतान में ऐसी घालमेल हुई है कि क्रौञ्च सिर्फ़ कवि की कल्पना में पाये जाने वाला एक पक्षी बन गया है।

और अगर कोई एक ही महापुरुष थे तो खेद के साथ लिखना पड़ता है कि वे पक्षियों के बारे में अधिक नहीं जानते थे। एक अन्तिम सम्भावना और भी है- जिसे मेरे बहुत सारे मित्र जो किसी भी पुरातनता पर प्रश्नचिह्न उठाने के प्रश्न से ही ठिठर उठते हैं, लोक लेना चाहेंगे- कि ये क्रौञ्च एक ऐसा पक्षी था जो वाल्मीकि के समय में तो मिलता था मगर कलियुग में गंगा और दूसरी नदियों के पापसिक्त विषाक्त जल के कीट खा कर, पूरी प्रजाति समेत परमधाम को प्राप्त हो गया।

***
(शब्द चर्चा में हुई इस क्रौञ्च चर्चा में घुघूती बासूती, आशुतोष कुमार, नारायण प्रसाद, योगेन्द्र शेखावत, अरविन्द मिश्रा और अजित वडनेरकर ने भी भाग लिया। परचे के शीर्षक के लिए राजेन्द्र स्वर्णकार का आभारी हूँ, यह पद 'शब्द चर्चा' में वे ही लाए थे।)

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

सदाचार और छिनार


हिन्दी जगत आजकल एक नैतिक अत्याचार की भावना से उबल रहा है। निन्दा और भर्त्सना प्रस्ताव निकाले जा रहे हैं, ज़िन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाए जा रहे हैं। आप समझ ही गए होंगे कि मैं विभूति नारायण राय के कुख्यात बयान और उससे उपजी प्रतिक्रियाओं की बात कर रहा हूँ। इसके पहले कि मैं अपनी बात रखूँ मैं मैरी ई जौन नाम की एक नारीवादी के एक ईमेल का उद्धरण देना चाहूँगा। वे इसी विवाद के सन्दर्भ में लिखती हैं-

"हम उस नैतिक आघात से सहमत नहीं है जो वेश्यावृत्ति या बेवफ़ाई के उल्लेख भर से मीडिया में आता रहा है। बल्कि हम यक़ीन करते हैं कि यौनिकता के मसले गम्भीर मसले हैं, जिन पर और सार्वजनिक बहस और समझदारी की ज़रूरत है। नारीवाद के नज़रिये से यौनिकता के मामले को और समझने के लिए हमें राय जैसे लेखकों को चुनौती देनी चाहिये ना कि सार्वजनिक नैतिकता में उलझना चाहिये।"

मैरी जौन ने सहज रूप से इस मामले के मूल में बैठी समस्या को रेखांकित कर दिया है। मेरी नज़र में हिन्दी जगत से अभी तक एक भी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं आई जिसने इस मसले को नैतिक अतिक्रमण से अलग किसी नज़रिये से देखने की कोशिश की हो। उपकुलपति महोदय ने कहा, “लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने के लिए उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है।” उसके जवाब में कहा गया “..लेखिकाओं के बारे में अपमानजनक वक्तव्य.. न केवल हिंदी लेखिकाओं की गरिमा के खिलाफ है, बल्कि उसमें प्रयुक्त शब्द स्त्रीमात्र के लिए अपमानजनक है।”

देखने में दोनों एकदम विपरीत बयान मालूम देते हैं मगर एक जगह जाकर दोनों एक हो जाते हैं- राय जब वर्तमान स्त्रीलेखन को छिनाल के अपमानजनक विशेषण से नवाजते हैं तो वे छिनाल का इस्तेमाल इस अर्थ में करते हैं कि छिनालपन एक निन्दनीय कृत्य है जिस से बचा जाना चाहिये। और दूसरी तरफ़ उनका विरोध करने वाले इस बात पर आपत्ति करते हैं कि राय गरिमामय हिन्दी लेखिकाओं के लिए 'छिनाल' जैसा अपमानजनक शब्द कैसे प्रयोग कर सकते हैं? ‘छिनाल’ के अपमानजनक होने पर दोनों की सहमति है! दोनों ही परोक्ष रूप से मान रहे हैं कि स्त्री का वांछित, नैतिक रूप 'सती-सावित्री' वाला ही है।

एक और मज़े की बात यह है कि एक पेटीशन जो राय साहब को हटाने के लिए नेट पर चलाया जा रहा है, उस में और अंग्रेज़ी प्रेस में भी इस छिनार शब्द का अनुवाद प्रौस्टीट्यूट किया गया है। जो निहायत ग़लत है। प्रौस्टीट्यूट के लिए रण्डी या वेश्या शब्द है। रसाल जी के कोष में छिनार का अर्थ है व्यभिचारिणी, कुलटा, परपुरुषगामिनी, और इसकी उत्पत्ति छिन्ना+नारी से बताई गई है। इन्ही में इस शब्द की पूरी राजनीति छिपी हुई है, वो राजनीति जो इस शब्द की आड़ लेकर महिला लेखकों पर हमला करने वाले विभूति नारायण राय और उनका उच्च स्वर से विरोध करने वाले तथाकथित प्रगतिशीलता के ठेकेदारों को एक ज़मीन पर खड़ा कर देती है।

वैवाहिक सम्बन्ध से इतर दैहिक सम्बन्ध बनाने से जिसका चरित्र खण्डित होता हो, वह है छिनाल। हज़ारों सालों तक थोड़े से भी दैहिक विचलन की कड़ी से कड़ी सज़ा स्त्री को दी जाती रही है हर समाज में। आज भी कई समाज ऐसे हैं जहाँ किसी भी ‘अवैध’ सम्बन्ध की सज़ा अकेले नारी को ही मिलती है, पुरुष को कुछ नहीं। इसी तरह के दोहरे व्यवहार, दोहरी नैतिकता का नतीजा है यह छिनार का शब्द।

स्त्री को अपने शरीर का स्वामित्व नहीं है। आज भी कई समाज व नैतिक परम्पराएं उसे गर्भनिरोध या गर्भपात नहीं कराने देतीं। कई उसे परदे से बाहर नहीं आने देतीं। स्त्री सम्पत्ति है इसीलिए उसका ‘स्वामी’ होता है, उसका ‘पति’ होता है। उसकी कोख पर उसका नहीं उसके स्वामी का अधिकार है। इसीलिए अगर वह किसी अन्य से यौन सम्बन्ध बनाये या गर्भधारण करे तो पापचारिणी कहलाती है। और सन्तान भी नाजायज़ हो जाती है। बहुत हाल तक सन्तान की माता के प्रति ही पूरे सत्यापन से कहा जा सकता था, पिता के प्रति हरगिज़ नहीं। मगर फिर भी अज्ञात पिता होने से, या वैधानिक पति की सन्तान न होने से सन्तान अवैध / नाजायज़ / हरामी हो जाती थी/ है।

गर्भनिरोध आदि के ज़रिये आज स्त्री के लिए अपने शरीर पर स्वामित्व और अधिकार पाना मुमकिन हो गया है। इतिहास में पहली बार, सारे प्राणियों से अलग, आज औरत के लिए यह सम्भव है कि वह बिना गर्भधारण की चिंता किए दैहिक सुख ले सके जैसे आदमी लेता रहे हैं हमेशा। लेकिन ‘पुरुष’ मानसिकता उस की इस आज़ादी के साथ सहज नहीं है; वह उसे मातृत्व और पत्नीत्व के दायरे में ही क़ैद रखना चाहता है, जहाँ स्त्री मनुष्य नहीं, देवी होती है, सती-सावित्री होती है। स्त्री यदि भोग की, दैहिक आनन्द की बात करती है तो लोग असहज हो जाते हैं; कहते हैं कि बाक़ी सब बात करो, ये मत बात करो!

अपने साक्षात्कार में राय कहते हैं “इस पूरे प्रयास में दिक्कत सिर्फ इतनी है कि यह देह विमर्श तक सिमट गया है और स्त्री मुक्ति के दूसरे मुद्दे हाशिये पर चले गए हैं।” मेरा मानना है कि यह सलाह वैसे ही है जैसे कि बहुत सारे लोग मायावती की राजनीति से नाक-भौं सिकोड़ते हैं कि वे 'जातिवाद' फैला रही हैं। वे कहते हैं कि आरक्षण की बात मत करो, योग्यता की बात करो। इसी तरह राय कह रहे हैं “देह से परे भी बहुत कुछ ऐसा घटता है जो हमारे जीवन को अधिक सुन्दर और जीने योग्य बनाता है” मेरा कहना है कि ज़रूर होगा और ज़रूर है मगर जिस आधार से स्त्री वर्ग को हज़ारों सालों से पीड़ित किया गया हो वो थोड़ी आज़ादी मिलने पर उस आधार की उपभोग न करे, तो ये कैसे आज़ादी है? स्त्री का शोषण और उत्पीड़न उसकी देह के आधार पर ही हुआ है, तो अब यह लाज़िमी है कि उसकी आज़ादी के संक्रमण में दैहिक विमर्श एक केन्द्रीय भूमिका में रहे। और फिर सबसे बड़ी बात ये भी है कि स्त्रियां स्वयं तय करेंगी कि वे किस बारे में लिखना चाहेंगी और किस बारे में नहीं।

अंत में मैं एक बात यह भी कहूँगा कि इस मसले पर विभूति नारायण राय के जो विचार हैं उनसे मैं ज़रूर असहमत हूँ, मगर निजी तौर पर मुझे उनमें ऐसा कुछ भी नहीं लगता कि जिस पर इस तरह का 'राजनीतिक' बावेला खड़ा किया जाय। ये सब साहित्य की अन्दरूनी बहस के मसले हैं इन पर ज़ोरदार बहस होनी चाहिये न कि लोगों का मुँह बन्द करने की कोशिशें। छिनाल जैसा शब्द अपमानजनक ज़रूर है और 'नैतिक' आधार पर ग़लत भी, परन्तु उसी नैतिकता के आधार पर जिसकी ऊपर चर्चा की गई। दूसरी ओर छिनार के समान्तर अंग्रेज़ी के 'स्लट 'और 'बिच' जैसे शब्द, अपमानजनक बने रहते हुए भी, सहज इस्तेमाल में आ गए हैं और नारीवाद ने भी उन के अर्थों को पुनर्परिभाषित कर के समाज को अपना रवैया बदलने पर मजबूर किया है।

पिछले दिनों रवीश कुमार ने भी पंजाब में आए एक नए बदलाव को पकड़ा। हज़ारों सालों से उत्पीड़ित दलित सीना ठोंक कर गा रहे हैं-अनखी पुत्त चमारा दे। जबकि दलित मामलों के प्रति संवेदनशील उत्तर प्रदेश में इसी शब्द के इस्तेमाल पर सज़ा हो सकती है।

हिन्दी समाज की नैतिकता के रखवाले शब्दों के प्रति कुछ अधिक ही संवेदनशील है और समाज के 'सदाचार उन्नयन अभियान' में संलग्न हैं। उल्लेखनीय है कि शब्दों को लेकर सदाचारी और असहिष्णु रवैये की एक अभिव्यक्ति जौर्ज औरवेल के ‘१९८४’ जैसे समाज में भी होती है।



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