गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

दिल्ली में देखें सरपत

अक्सर दोस्तों की शिकायत रहती है किस तरह से मेरी लघु फ़िल्म 'सरपत' देखना मुमकिन हो.. सत्ताइस फ़रवरी को नई दिल्ली के इन्डिया इन्टरनेशनल सेन्टर में दिन के डेढ़ बजे कोई भी टहलते हुए जा कर सरपत देख सकता है। यह प्रदर्शन मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन के द्वारा आयोजित फ़िल्म फ़ेस्टिवल 'पर्सिस्टेन्स रेज़िसटेन्स के तहत हो रहा है। देश-दुनिया की चिन्ताओं से दो-चार होती और तमाम फ़िल्में भी इस फ़ेस्टिवल में दिखाईं जा रही है। फ़िल्म प्रेमी ज़रूर जायें और आनन्द लें।

पूरा कार्यक्रम इस पते पर देखें!

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

हिन्दी में कौन स्टार है?

पिछले दिनो कुछ रोज़ दिल्ली के अन्तराष्ट्रीय पुस्तक मेले में बीते। कई दोस्तो से मिलना हुआ। कुछ किताबें ख़रीदी और बहुत सारी देखीं। मेले मे ही लाल्टू के कविता संग्रह 'लोग ही चुनेंगे रंग’ और गीत चतुर्वेदी के संग्रह 'आलाप में गिरह' के लोकार्पण में भी शिरकत हो गई। मित्र बोधिसत्व की नई किताब ’ख़त्म नहीं होती बात’ का भी विमोचन हुआ। बोधि उसमें नहीं पहुँच सके और संयोग से मैं भी मेले में होने के बावजूद नहीं पहुँच सका। जब पहुँचा तो किताब को मोक्ष मिल चुका था।

मेले में ख़ूब भीड़ थी। हिन्दी किताबों के हॉल नम्बर १२ में तो गज़ब की भीड़ थी। सभी प्रकाशकों के बड़े-बड़े स्टॉल्स थे। राजकमल प्रकाशन और वाणी प्रकाशन के तो इतने बड़े स्टॉल थे कि विमोचन करने और गपियाने के लिए एक अलग जगह निकाली गई थी। ये जगहें हिन्दी के लेखकों और विचारकों के आपस में टकराने का अड्डा भी थीं। मैं भी वहीं-कहीं उस संघर्षण के आस-पास बना हुआ था। तमाम दोस्त -ब्लॉगर और ग़ैर-ब्लॉगर- मिल रहे थे। दोस्तों और किताबों से भरी-भरी ये दुनिया बड़ी भली लग रही थी।

ऐसे ही किसी भले-भले पल में मेरे कान में लाउडस्पीकर से गूँजती आवाज़ आई कि राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक माहेश्वरी जी पाठकों के साथ, सीधी बातचीत और सुझावों के लिए उपलब्ध हैं। मेरे भीतर एक घंटी सी बजी। मेरे मन में हिन्दी किताबों की दुनिया को लेकर जो बाते हैं, उसे एक सही मंच पर कहने का इस से बेहतर मौक़ा नही मिलेगा। मैं राजकमल के स्टॉल की ओर चल पड़ा। वहाँ अनुराग वत्स पहले से मौजूद थे। अशोक जी एक गोल मेज़ पर दो-चार लोगों से गुफ़्तगू कर रहे थे। मैं बातचीत शुरु होने का इन्तज़ार करने लगा। पाँच-दस मिनट यूँ ही बीत गए तो समझ आया कि मंच जैसा कुछ होगा नहीं, जो भी कहना-सुनना है वो ऐसे ही मेज़ पर आमने-सामने बैठ कर होना है। तो हम ने जा कर अशोक जी की गोल मेज़ के गिर्द कुर्सियाँ सम्हाल लीं।मैं ने उनसे जो कहा उसका सार कुछ ऐसे हो सकता है;

मैंने अशोक जी से सवाल किया कि हिन्दी लेखक का हाल अंग्रेज़ी के लेखक की तुलना में इतना मरियल क्यों है? क्या वह इसलिए है कि वह घटिया लेखक है या इसके कुछ और कारण है? भारत का मध्यवर्ग हिन्दी की किताबें नहीं पढ़ता लेकिन अंग्रेज़ी की किताबें ख़रीदता रहता है। हिन्दी साहित्य की दुनिया में कोई स्टार लेखक क्यों नहीं है?

जबकि हिन्दुस्तान के अंग्रेज़ी साहित्य की ओर देखिये तो तस्वीर एक्दम लग नज़र आती है। अंग्रेज़ी का प्रकाशन उद्योग न सिर्फ़ अपनी किताबों को लेकर एक आक्रामक रणनीति अपनाता है बल्कि अपने लेखको को चढ़ाने में भी जी-जान लगा देता है। अभी हाल के बुकर पुरुस्कार विजेता लेखक अरविन्द अडिगा की मिसाल लीजिये। उनकी किताब को बेहद मामूली गिनता हूँ मैं और दूसरे पढ़ने वाले भी। मगर सच्चाई ये है कि ये राय हमने किताब ख़रीदने कर पढ़ने के बाद क़ायम की है। आज अंग्रेज़ी के परिदृश्य में हाल ऐसा है कि किताब बाद में आती है लेखक पहले ही स्टार हो जाते हैं। प्रकाशक अपनी मार्केटिंग से ऐसा माहौल बना देते है, आम लोगों के मन में ऐसी जिज्ञासा पैदा कर देते हैं कि उनके मन में किताब ख़रीदने की प्रेरणा जाग उठती है।

उनके इस काम में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों तरह का मीडिया उनका ख़ूब सहयोग करता है। वे पुरस्कारों के ज़रिये लेखकों का बाज़ार गर्म करना जानते हैं और साथ ही लगातार अख़बारों में बैस्टसैलर सूची प्रकाशित करके पाठकों को ख़रीदी जा सकने वाली किताबों के प्रति धकेलते भी रहते हैं। जबकि हिन्दी में कोई प्रकाशक ऐसा करने में रुचि नहीं रखता और पु्रस्कारों की तो अलग राजनीति ही चल पड़ी है। उस पर बात करुंगा तो विषयान्तर हो जाएगा।

मैं यह नहीं कहता कि प्रकाशन उद्योग मार्केटिंग की दूसरी हद पर जा कर कचरे को हमारे गले में ठेलने लगे। लेकिन ये भी क्या बात हुई कि बाज़ार की ताक़त का इस्तेमाल अ़च्छी चीज़ के प्रसार के लिए करने से भी क़तरा जायं। पूरा प्रकाशन उद्योग पाठकों के बीच अपना माल बेचने के लिए किसी भी तरह की रणनीतियों के प्रति पूरी तरह उदासीन है। क्यों? क्या अख़बारों और टीवी के ज़रिये लेखकों और उनकी किताबों के प्रति जिज्ञासा पैदा करना इतना दुरूह है? क्यों हिन्दी के पास आज एक भी स्टार लेखक नहीं है?

विनोद कुमार शुक्ल एक अप्रतिम लेखक हैं, उनका लेखन हिन्दी में ही नही विश्व साहित्य में अनोखा है, अद्वितीय है। उदय प्रकाश भी बेहद मक़बूल कथाकार हैं। लेकिन हिन्दी साहित्य की दुनिया के बाहर कोई उनके नाम भी नहीं जानता? जबकि अरविन्द अडिगा के नाम से बच्चों की परीक्षा में सवाल बनाया जा सकता है, क्यों? क्यों नहीं विनोद जी या उनके जैसे दूसरे साहित्यकारों को एक स्टार की बतौर चढ़ाया जा सकता?

मज़े की बात ये है कि अगर हिन्दी के पास कोई स्टार है तो वो एक लेखक नहीं एक आलोचक है- नामवर सिंह। ये बात मैं बिना उनकी आलोचकीय गरिमा पर कोई आक्षेप किए हुए कर रहा हूँ। आलोचक की साहित्य में अपनी जगह है लेकिन वो लेखक के लिए पाठक के हृदय में जो मुहब्बत जो अपनापन होता है, उसका स्थानापन्न कतई नहीं हो सकता।

अशोक जी ने मेरी बात शांति से सुनी और माना कि यह स्थिति का सही चित्रण है। लेकिन उनका कहना था कि हिन्दी में स्टार लेखक नहीं है यह कहना ठीक नहीं; कुँवर नारायण और कृष्णा सोबती भी किसी स्टार से कम नहीं। बैस्ट्सैलर सूची का आइडिया उन्हे अच्छा लगा पर अख़बारो के वर्तमान बाज़ारीकरण की सूरत में उसके आर्थिक पक्ष को पूरा कर पाने में ख़ुद को असमर्थ बताया।

उनसे जिरह करने के बजाय मैंने अपना दूसरा सवाल अशोक जी से इसी आर्थिक पक्ष के मुतल्ल्कि किया। हिन्दी में लेखकों और अनुवादकों को पैसे क्यों नहीं मिलते? जबकि अंग्रेज़ी में ये हाल नहीं है? इस के जवाब में उनका कहना था कि हिन्दी किताबों का अर्थशास्त्र जितनी गुंज़ाइश देता है, उतना वह अवश्य करते हैं। मैं ने उनसे कहा कि पुस्तक मेले में हिन्दी प्रकाशकों ने जितनी जगह ले रखी है और उन पर जिस तरह से जनता टूटी हुई है, उसे देखकर तो यह बिलकुल नहीं लगता कि हिन्दी साहित्य में कोई अर्थशास्त्रीय संकट है।

"मैं जिन-जिन लेखकों को जानता हूँ, उनमें से किसी ने अपनी किताब से पाँच-दस हज़ार से कमाई की बात नहीं बताई। हो सकता है कमलेशवर की किताब ’कितने पाकिस्तान’ या सुरेन्द्र वर्मा की ’मुझे चाँद चाहिये’ से अच्छी रॉयल्टी बनी हो, लेकिन वह उतनी नहीं हो सकती कि वे एक रोमान्टिक्स लिखकर पंकज मिश्रा की तरह जीवन की असुरक्षाओं से मुक्त हो पहाड़ो में विचरण करते रहें। अनुवादक के हाल तो पूछिये ही मत।" यह कहते-कहते अशोक जी का कोई फ़ोन आ गया। कुछ और लोग आ गए, वे उनसे मुख़ातिब हुए। मैं समझ गया मेरा समय समाप्त हुआ। मैं ने उन्हे मेरी बात सुनने का धीरज दिखाने के लिए धन्यवाद किया। और उन्होने खड़े होकर, हाथ मिला कर मुझे विदा किया।

मैं अशोक जी से यह नही कह पाया कि पुस्तकालयों से अलग आम पाठकों के बीच भी किताब का एक बाज़ार होता है, लेकिन हिन्दी प्रकाशक उसके प्रति उदासीन है। वेदप्रकाश शर्मा की किताबों के विज्ञापन आप को बस स्टेशन्स वगैरह पर दिख जायेंगे, लेकिन उदय प्रकाश की नहीं। क्या यह इसलिए है कि वेदप्रकाश पूरी तरह पाठकों पर निर्भर है और उदयप्रकाश के प्रकाशक पुस्तकालयों पर?

हिन्दी राजभाषा है और हर सरकारी संस्थान में हिन्दी की किताबें ख़रीदने का एक बजट होता है, चाहे वो किताबें पढ़ने वाला हो या न हो। इन संस्थाओं में कौन सी किताबें आएंगी और कौन सी नहीं यह फ़ैसला भी ऊँचे राजकीय अधिकारियों द्वारा सिफ़ारिश के आधार पर लिया जाता है। विडम्बना यह है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकालयों की यह ख़रीद ही हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सबसे बड़ी बाधा बन गई है। बैठे-बैठे माल बिकता हो तो उस के लिए इधर-उधर दौड़ने की क्या ज़रूरत? जिसके चलते प्रकाशक आम पाठक को न तो किताब बेचने का कोई वितरण-तंत्र विकसित करने के लिए मशक्कत करते हैं और न उनके बीच प्रचार-प्रसार की कोई व्यवस्था। की बात यह है कि हिन्दी किताबों की दुकानों के सम्पूर्ण अभाव के बावजूद हिन्दी साहित्य बना हुआ है और पढ़ा भी जा रहा है। मेले में आई भीड़ इसका साफ़ सबूत है।

पुस्तकालयों में किताबों की सिफ़ारिश करने वाले ही सचमुच आज हिन्दी प्रकाशकों के लिए असली स्टार्स हैं| प्रकाशकों के लिए और लेखकों के लिए भी। क्योंकि उनकी राय से ही प्रकाशक तय करते हैं कि किताब छपने योग्य है कि नहीं। तो इस तरह से राजतंत्र में भीतर तक धँसे यही गणमान्य जन लेखकों के भी माई-बाप हो जाते हैं। जबकि वेदप्रकाश शर्मा बिना किसी आलोचक की परवाह किए सीना चौड़ा कर के अपना सस्ता साहित्य छापता जाता है क्योंकि वह पाठको से सीधे सम्पर्क में है।



*अभी हाल में हिन्दी के कवि देवी प्रसाद मिश्र को उनकी डॉक्यूमेन्टरी ’फ़ीमेल न्यूड’ के लिए राष्ट्रीय पुरुस्कार मिला है। इस की कहीं चर्चा नहीं है। एक कवि की अभिव्यक्ति के दूसरे इलाक़े में ऐसी उपलब्धि अंग्रेज़ी की दुनिया में अछूती न रह जाती। देवी भाई से मेरा परिचय इलाहाबाद के दिनों से है। मैं उनकी फ़िल्म अभी देख नहीं सका हूँ, लेकिन कविताओं में वे जितना संतुलन और संयोजन बरतते हैं उस से कल्पना की जा सकती है कि फ़िल्म ज़रूर पुरस्कार योग्य होगी। देवी भाई को मेरी बहुत बधाईयां और शुभकामनाएं।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

क्या बेच रहे हैं शाहरुख़ ख़ान?

कल माई नेम इज़ ख़ान रिलीज़ होने वाली है। शाहरुख़ उम्मीद कर रहे होंगे कि यह फ़िल्म थ्री ईडियट्स से भी बड़ी ओपेनिंग लेगी और उस से भी बड़ी हिट साबित होगी। मुम्बई के कुछ सिनेमाघरों में शिवसेना के कार्यकर्ता इसका विरोध कर रहे हैं लेकिन वह विरोध असल में नुक़सान पहुँचाने के बजाय फ़ाएदा पहुँचा रहा है।

मेरी ये बात कुछ लोगों को अजीब लग सकती है मगर सच्चाई ये है कि शाहरुख़ ख़ान और शिवसेना की यह लड़ाई बहुत ही सोच-समझ कर लड़ी जा रही है। और इसमे सचेत पहल की है शाहरुख़ ने।

आई पी एल के ऑक्शन के दूसरे-तीसरे दिन एन डी टी वी २४x७ पर आकर उन्होने आई पी एल के उस फ़ैसले पर तीखी प्रतिक्रिया करते हुए सवाल खड़ा किया, जिसमें आठों टीम के मालिकों ने सम्भवतः किसी ‘गुप्त समझौते’ के तहत किसी भी पाकिस्तानी खिलाड़ी को नहीं ख़रीदा। भारत सरकार के ऐसे फ़ैसले में किसी भी तरह की कोई भी भूमिका होने की बात तो अब पाकिस्तान में भी ख़ारिज की जा चुकी है।

तो टीम ओनर्स ने यह फ़ैसला क्यों किया? शिल्पा शेट्टी और प्रीति ज़िन्टा ने बतलाया कि वे पाकिस्तानी खिलाडि़यों को सुरक्षा देने में असमर्थ थे। यह सुरक्षा का सवाल इस भय से उपज रहा है कि देश में किसी भी वक़्त पाकिस्तानी आतंकवादी एक और २६/११ जैसा हमला कर सकते हैं; ख़ुद पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भी इस बारे में कोई गारन्टी देने को तैयार नहीं है।

ऐसे हमले की सूरत में देश की जनसंख्या का एक हिस्सा एक बार फिर हर पाकिस्तानी के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाएगा और पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आई पी एल से निकालने की माँग करने लगेगा और उन्हे खिलाना एक सुरक्षा मुद्दा बन जाएगा।

तो इस तरह के किसी भी झंझट से बचने के लिए- हर अच्छा बिज़नेसमैन अपने जोखिम को न्यूनतम रखना चाहता है- आई पी एल टीम ओनर्स ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को न ख़रीदने का फ़ैसला किया। यह अच्छा राजनीतिबोध नहीं था, मगर अच्छा बिज़नेसबोध ज़रूर था।

शाहरुख़ ने आई पी एल टीम ओनर्स के फ़ैसले में भागीदारी की और कोई पाकिस्तानी खिलाड़ी नहीं ख़रीदा। वे चाहते तो जिसे चाहते ख़रीद लेते, मगर नहीं ख़रीदा? क्यों नहीं ख़रीदा? बिज़नेसबोध की वजह से नहीं ख़रीदा।

तो फिर तीन रोज़ बाद एन डी टी वी २४x७ पर आकर इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ बयान देने की क्या ज़रूरत थी? भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों पर टीका-टिप्पणी करने की क्या ज़रूरत थी? और आस्टेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमले के ख़िलाफ़ शिवसेना द्वारा आस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों को न खेलने देने की धमकी की कड़ी आलोचना करने की क्या ज़रूरत थी? क्या शाहरुख़ राजनीतिकर्मी हैं? वे तो बिज़नेसमैन हैं। आज के पहले तो उन्होने कोई राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं की। इस मसले पर क्यों की? इस मसले में इस तरह के बयान देने के क्या उनका कोई हित सिद्ध होता है? जी, होता है।

हर फ़िल्म मनोरंजन का ज़रिया होता है। लेकिन मनोरंजन की भी राजनीति होती है। कुछ फ़िल्में उस राजनीति को मोटे शब्दों में रेखांकित करती हैं कुछ और इश्क़िया की तरह बच कर निकल जाती हैं। माई नेम इज़ ख़ान की एक राजनीति है। यह वह राजनीति है जो कुछ आतंकवादियों के चलते मुसलमानों को दुनिया भर में शिकार बनाए जाने का विरोध करती है। मैं इस राजनीति के साथ हूँ। लेकिन शाहरुख़ इस राजनीति का इस्तेमाल अपने बिज़नेस हितों को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं।

मुझे लगता है कि उन्होने ख़ूब सोच-समझ कर शिवसेना के साथ यह पंगा लिया है। और शिवसेना उन पर हमला कर के, उनको विक्टिमाइज़ कर के उनके हाथों में खेल रही है। और शाहरुख़ को अपनी फ़िल्म का एक मेटा-नैरिटिव बनाने में मदद कर रही है। मीडिया से किसी भी समझदारी की उम्मीद करना बेकार है वे बिकने के लिए कुछ भी कर लेंगे। और प्रगतिशील मीडिया प्रगतिशीलता के लिए कुछ भी कर लेगा।

अपने शीर्ष से धकेले गए दो लोग आपस में लड़ कर एक दूसरे को मदद कर रहे हैं। दोनों अपनी खोई गद्दी हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं। एक मराठी मानुस के नए चैम्पियन राज ठाकरे से और दूसरे बॉलीवुड के सबसे अधिक बिकने वाले नए बादशाह आमिर ख़ान से।

तो शाहरुख़, शिवसेना की मदद से अपने आप को- एक मुसलमान को- विक्टिम के रूप में प्रोजेक्ट कर के यह उम्मीद कर रहे हैं कि मोरक्को से लेकर इन्डोनिशिया, इंगलैण्ड, और अमेरिका का मायूस मुसलमान उनकी फ़िल्म की टिकट ख़रीदेगा, दो घण्टे आँसू बहाएगा और शाहरुख़ ख़ान को थ्री ईडियट्स से ज़्यादा कमाई करवा कर वापस बादशाह बनवा देगा।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

खिचड़ी पोस्ट

पिछले दिनों कई बातें ऐसी रहीं जिन्हे ब्लाग पर डालना चाहता था लेकिन मसरूफ़ियत के चलते टलती रहीं। आज काम पूरा हो गया और दिल्ली रवाना हो रहा हूँ तो सनद के तौर पर यहाँ चिपका रहा हूँ।

* सण्डे के टाइम्स (३१ जनवरी) में स्वप्न दास गुप्ता ने भाषा पर बात की है, लिखते हैं- “हिन्दी अपने आत्मसम्मान की कमी से उबर नहीं सकी है; हिन्दी एक ज़माने से उर्दू के सामने एक हीन भावना से पीड़ित है और एक विकसित भाषा के रूप में विकसित न हो पाने की ज़िल्लत से भी ग्रस्त है।”

वो आगे कहते हैं, “भारत में अंग्रेज़ी विचार, अमूर्त चिन्तन और व्यापार की भाषा है जबकि लोक व्यवहार की। और ये फ़ारसी-हिन्दुस्तानी के पुराने समीकरण का दोहराव है, और इसीलिए नेहरू जी को जब राष्ट्र को सम्बोधित करना था (ट्रिस्ट विद डेस्टिनी...) तो अंग्रेज़ी में बात की और जब वोट माँगने की बारी आई तो हिन्दी अपना ली।”

बात निराधार नहीं और विचारणीय है।

* उसी अख़बार में पाकिस्तान से नदीम पराचा लिखते हैं कि अविभाजित हिन्दुस्तान में मुसलमानों को तब अचानक अस्तित्व का संकट लगने लगा जब अंग्रेज़ों के साथ लोकतंत्र की व्यवस्था लागू करने की बात होने लगी, उन्हे लगा कि वे अल्पमत में हो जाएंगे। और कभी ख़लीफ़ा को कुछ न समझने वाले भारतीय मुसलमानों का एक हिस्सा अपनी पहचान को, हिन्दुओं से तोड़कर अरब और तुर्की से जोड़कर देखने लगा। और ये बात इस हद तक गई कि वे लड़ाके जिनका हिन्दुस्तान से कोई लेना-देना भी न था, वे मुसलमानों के हीरो बन गए, जैसे गोरी और गज़नी (पाकिस्तान की मिसाइलों के नाम इसी नाम पर हैं)। हिन्दुओं का एक अतिवादी हिस्सा ऐसे नए नायक गढ़ने लगा। और इस विचार को वैचारिक दाना-पानी इक़बाल से मिला जिनकी नज़र में संयुक्त हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष व्यापक मुस्लिम एकता के ख़िलाफ़ था। हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिकता के कारण नदीम अचानक उपजे हिन्दू फ़ासिज़्म और मुसलमानों के बीच अल्पसंख्यक होने की मानसिकता के एक हवाई बौद्धिकीकरण में देखते हैं। नदीम पाकिस्तानी समाज की तकलीफ़ों की जड़ भी यहीं देखते हैं कि लोग एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन, इराक़, अफ़्ग़ानिस्तान और कश्मीर के मुसलमानों के दुख पर आँसू बहाते हैं और दूसरी ओर देश के भीतर मुसलमानों पर आए अज़ाब पर से नज़र फेर लेते हैं। जबकि पूरा देश मुसलमानों का है फिर भी एक तरह की अल्पसंख्यक मानसिकता बनी हुई है।

नदीम की बात में दम है। मैं ख़ुद पिछले दिनों इक़बाल के शिकवा और जवाबे शिकवा पर नज़र डाल कर सोचता रहा हूँ कि किसे तरह की मानसिकता है ये, क्या रोना रोया जा रहा है अल्लाह से कि मुसलमानों के साथ नाइंसाफ़ी हुई जब कि उन्होने तुम्हारे लिए जेहाद किया था? अगर ब्राह्मण ऐसा रोना रोयें तो, क्षत्रिय रोयें तो? इक़बाल में एक सूफ़ी तत्व ज़रूर है लेकिन वे बड़े तौर पर प्रतिक्रियावादी और प्रतिगामी चिंतक और शाएर हैं।

*१२ जनवरी को एक्सप्रेस में खबर थी कि तिरुअनन्तपुरम में मलयालम लेखक पॉल ज़कारिया पर सी पी एम के कार्यकर्ताओं ने हमला किया। ज़कारिया ने पार्टी के भीतर औरत-मर्द के रिश्तों को लेकर मौजूद पिछड़े चिंतन की आलोचना की थी। हुआ ये था कि एक कांग्रेस नेता के किसी स्त्री से ‘अनैतिक सम्बन्ध’ का पर्दाफ़ाशा करने के लिए उन्होने उस नेता को रंगे हाथ पकड़ने के लिए एक मकान का घेरा डाला और पुलिस के हवाले कर दिया। ज़कारिया का मानना था कि सी पी एम चर्च की तरह सेक्स के प्रति संकीर्ण नज़रिये को बढ़ावा दे रही है, जबकि पिछली पीढ़ी के पार्टी के भूमिगत नेताओं का सेक्स के लेकर काफ़ी उदार नज़रिया था। उन्होने कहा कि हालत ये आ गई है अपनी पत्नी के साथ घूमना भी ख़तरनाक होता जा रहा है। लेकिन वापस सी पी एम ने ज़कारिया की मज़म्मत की।

पॉल ज़कारिया एक अनोखे और अद्भुत कथाकार हैं, जो चर्च से लोहा लेते रहे हैं। लेकिन अब सी पी एम भी उन्हे विचार की आज़ादी नहीं दे रही। पूछा जाना चाहिये कि सी पी एम शिव सेना और बजरंग दल से कैसे अलग है? लोगों को बेडरूम में तो आज़ादी दो! लेकिन यहाँ झण्डे के रंग से नैतिकता पर फ़र्क नहीं पड़ता। हर पार्टी का अगर बस चले तो तस्लीमा नसरीन को जूते से मारे, नहीं मारते क्योंकि उसे मारने के लिए हैदराबाद के मुसलमान हैं ना।

देखिये लोगों ने नारायण दत्त तिवारी के बिस्तर के पाये काट डाले। अस्सी के पार का एक जवान अब कुछ भी दम-ख़म रखता है इस पर ख़ुश होने और उस से प्रेरणा लेने के बजाय लोग गरियाने लगे? दो लोगों के बीच आपसी सहमति से जो कुछ होता है वह आप के लिए नैतिक भले न हो, पर उन्हे उस अनैतिकता की आज़ादी होनी चाहिये। नारायण दत्त से इस्तीफ़ा लेने के बजाय उन पर संगठित वेश्यावृत्ति को बढ़ावा देने का मुक़द्दमा चलता तो बात जाएज़ लगती क्योंकि वेश्यावृत्ति अपराध नहीं है, वेश्यावृत्ति करवाना अपराध है।

*इश्कि़या देख ली। मनोरंजक है। छोटे शहरों की दुनिया में धँसती नहीं उनकी नुकीली, पथरीली सच्चाई का अच्छा इस्तेमाल कर लेती है कुछ मस्ती रचने में। ऐसा लगता है कि पूरी फ़िल्म यह सोचकर लिखी गई है कि ताली पिटवानी है और पिटवा लेती है। अगर यह दबाव न लेती तो इश्किया और बेहतर फ़िल्म हो सकती थी। हॉलीवुडी की वेस्टन फ़िल्मों की संरचना पर आधारित है और अपने को किसी भी राजनैतिक झुकाव से मुक्त रखती है। ये बात फ़िल्म को भारी नहीं होने देती और शायद मेरी उस से यही शिकायत भी है। संवाद चुटीले हैं लेकिन भाषा, उर्दू, हिन्दी, भोपाली और न जाने क्या-क्या होती रहती है। अरशद लुभाते हैं लेकिन नसीर को देखकर लगता है कि कुछ नया देखने का अब बचा नहीं।
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