मंगलवार, 4 अगस्त 2009

अथ संयम व्यथा

दोस्तों,

बचपन और जवानी में कविता करने और कविकर्म में जीवन का अर्थ खोजने की कल्पना हम ने भी की थी, मगर कहानी कभी नहीं लिखी। कहानी की विधा को समझने में हमें एक उम्र लग गई। जीवन की सतत धारा को एक सार्थक टुकड़े में पकड़ पाने की कला के साथ हम बरसों से दो-चार होते रहे हैं। बावजूद इसके कि हमने टीवी सीरियल के लिए भी माल पैदा किया और फ़िल्म की कहानी भी बनाई। मगर जैसा कि वाक्य विन्यास से स्पष्ट है कि यह दोनों कर्म मेरे भीतर कहानी की कला नाम के कोने में जो अंधेरा था उसे उजाला करने में असमर्थ रहे।

इसी कारण मैंने कभी अपना विज़िटिंग कार्ड नहीं बनवाया। कार्ड तो बनवा लेंगे मगर उस पर लिखेंगे क्या? कहानीकार? लेखक? फ़िल्मकार? किसी भी परिभाषा के सामने खरे उतरने लायक कोई कर्म तो किया नहीं आप ने? तो कार्ड बनाने का काम तब तक मुल्तवी होता रहा जब तक कि केरल के शार्ट फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'सरपत' को ले जाने के लिए यह निहायत ज़रूरी नहीं हो गया। उस पर भी सिर्फ़ नाम लिखकर ही काम चला लिया गया। एक शार्ट फ़िल्म बनाई ज़रूर है मगर क्या वह आप को फ़िल्मकार साबित करने के लिए पर्याप्त है? और दूसरा इस से बड़ा सवाल- क्या फ़िल्मकार अकेले भर ही अभय तिवारी का समूचा परिचय है? खैर!

तो कहानी के मारे हम ने तय किया कि कहानी लिखे बिना तो नहीं बनेगी बात। रुक-रुक कर, श्रम साध्य विधि से हम ने स्मृति और कल्पना का एक जाल बुनने में अपने को लगा दिया। पन्द्र बीस रोज़ गुज़र गए बात आठ- नौ पन्ने पर एक जगह जा कर अटक गई। फिर एक रोज़ इस कहानी को पगुराते-पगुराते एक दूसरा विचार मस्तक में चमका। और पहले प्रयास के अधूरेपन को हास्यास्पद बनाते हुए कुल जमा दो घंटो में ही कागज़ पर भी आ गया। प्रमोद भाई को पढ़ाया। उन्होने हिम्मत बढाई और कहा कि इसे गीत चतुर्वेदी को भेजो- वो आजकल भास्कर में साहित्य का पन्ना सम्हाल रहे हैं।

गीत ने पढ़ा, पसन्द किया और पिछले रविवार को दैनिक भास्कर की मैगज़ीन रसरंग में जगह दी। कुछ अनजान पाठकों के उत्साह वर्धक मेल भी आए पर ब्लॉग के दोस्तों ने लगता है अभी तक नहीं देखा। पहली कहानी है, उदारता की उम्मीद के साथ यहाँ छाप रहा हूँ।


अथ संयम व्यथा

ससुरा बैजनवा रस्सी छोड़ै नहीं रहा था। पण्डितजी के सीने पे दबाव बढ़ता ही जा रहा था। बैजनवा ने एक झटका दिया। पण्डितजी चरपैय्या से नीचे आ पड़े। अचानक सारा दबाव सीने से उनके अधो भाग पर आ पड़ा। लगा कि यहीं पैखाना हो जाएगा। रुक जा बैजनवा मादर.. पण्डितजी ने अपनी तरफ़ की रस्सी के तनाव को अपना बल बनाने की कोशिश करते हुए कहा। मगर बैजनवा ने उधर से एक झटका दिया। अब पण्डितजी घिसटने लगे थे। और अधोभाग पर दबाव और बढ़ गया था। लगता था कि लेटे-लेटे ही पैखाना हो जाएगा। पण्डित जी ने करवट बदली। गला सूख रहा था। मगर अभी उठने का का मन नहीं था। अधोभाग पर दबाव बना हुआ था। पण्डितजी को सुध हुई कि वे बिस्तर पर हैं और बैजनवा स्वप्न में। इस राहतेजान से उनके मन में ऐसी शांति छायी कि फिर से नींद आने लगी। इच्छा हुई कि अधोभाग पर बने वेग को पाद मारकर बाहर कर दिया जाय। परन्तु अधोभाग से जवाब आया कि महज़ पाद नहीं हूँ मैं।

पण्डितजी को स्वप्न में बैजनवा में वापस मिल जाने का डर था वरना वे बिस्तर ना छोड़ते। गला अभी भी सूख रहा था। धोती सम्हालते हुए पण्डितजी बैठक में चले आए। सुशीला और बिट्टी दोनों बैठकर ड्रम में से पुराने चावल निकाल कर उसमें से घुन बीन रहीं थीं।

चा बना दूँ दद्दा? सुशीला ने पूछा।

पण्डितजी सोचने लगे कि पहले चा पी लूँ या निबट लूँ? पण्डितजी ने बाहर झांका। मई की धूप में अभी कमी नहीं आई थी। चार बज रहे होंगे। इस लू में लोटा लेकर मैदान जाने की इच्छा नहीं हुई पण्डितजी की। क्या घर की टट्टी में निबट लूँ। इतना सोचते-सोचते वे सुशीला के सवाल को भूल गए। वेग ऐसा है कि किसी को पता भी नहीं लगेगा कि लघुकाल में दीर्घकाल की शंका का समाधान हो जाएगा। पण्डितजी गलियारा पार के टट्टी में जा बैठ गए।

धोती और लंगोट का छोर कंधे पर लपेट कर शरीर के वेगों को आज़ाद किया ही था कि अधोभाग से एक आरोही स्वर बजने लगा। पण्डितजी चौंके फिर घबराए। और वापस वेगों को गिरफ़्तार कर लिया। सुशीला और बिट्टी की बैठक में उपस्थिति ने पण्डितजी को लज्जित कर दिया था। वे क्या सोचेंगी- दद्दा इस वेला में निबट रहे हैं। उनकी ख्याति इन्द्रियजित योगी और आयुर्वेद के ऐसे अनुशासित सिपाही की है जो हवा भी तौल के पीता है। कितनी बार उन्होने सुशीला और बिट्टी को संयमित आहार के लिए घुट्टी पिलाई थी कि दिन में शौच से बचने के लिए कैसा आचरण रखा जाय। आज स्वयं पण्डितजी... हा!.. इस वेला में निबटान और वो भी ऐसी सुरीले पाद के साथ।

पण्डितजी शारीरिक वेग और मानसिक उद्वेग में फंस गए थे। शंका का समाधान करने टट्टी पर बैठे कितनी दूसरी शंकाओं की टट्टियों में अपने व्यक्तित्व को छिपाने में उलझ गए थे। पण्डितजी की राय थी कि शारीरिक वेगों को कभी न रोका जाय मगर आज अपनी राय के विरुद्ध उन्होने मस्तक को देह पर तरजीह दी। किसी तरह रोक-रोक कर शरीर का धर्म निभाया और बाहर आए। जितना समय पण्डितजी ने टट्टी की खुड्डी पर बैठकर बिताया था किसी को संशय तो नहीं होगा कि भीतर ले जानी वाली शंका लघु थी क्या? नज़र बचा कर पण्डितजी ने सुशीला और बिट्टी को देखा- दोनों निर्विकार भाव से घुन बीनने में लगीं थी। बिट्टी ने पण्डितजी की काया को गलियारे से गुज़रते देखा और उठ खड़ी हुई। पण्डितजी पानी के ड्राम के सामने खड़े सोच रहे थे कि कैसे बिना संकरा किए हस्त प्रक्षालन सम्पन्न कर लिया जाय।

बिट्टी ने पीछे से पुकारा- दद्दा!

हुँह?? उन्होने गले से ऐसे उच्चारा जैसे खदेड़ रहे हों।

पर बिट्टी भी दद्दा की सहायता के लिए पूरी तरह प्रतिज्ञा कर के उठी थी जैसे।

हाथ धुला दूँ?

पण्डितजी की आदत थी कि लघुशंका के भी उपरान्त हस्त-प्रक्षालन करते थे। तो हाथ धोने भर से राज़ ज़ाहिर नहीं होता था। तो किसी तरह गले के थूक को भीतर उतारा और हाथ आगे बढ़ा दिए। हाथ धोते हुए पण्डितजी ने सोचा कि उचित तो यह होगा कि नहा लूँ मगर पण्डितजी ऐसी किसी भी सूरत से बचना चाह रहे थे जिसमें यह सिद्द हो कि वे दीर्घशंका के अपराधी हैं। और नहा लेने से तो यह पक्का हो जाएगा कि .. नहीं-नहीं.. पाँच बजने को है। बिट्टी रस्तोगी की बिटिया को लाने जाएगी और सुशीला भी भाजी लाने साथ निकलेगी। उनके जाते ही.. पण्डितजी ने महसूस किया के वात का प्रकोप पेट में अभी भी ज़ोर मार रहा है.. पहले शरीर को अपान के वेग से मुक्त करूँगा फिर स्नान। यह सोचते हुए उन्हे पवनमुक्तासन की याद भी हो आई- सवेरे सवेरे कर लेने से शायद ऐसी स्थिति से बच जायं।

पण्डितजी यही सोचते हुए कमरे की ओर निकल पड़े। रसोई में सुशीला और बिट्टी की मद्धम सुर में कुछ वार्ता चल रही थी। साथ में भगोने की खटर-पटर भी उन्हे सुनाई दी- यानी चाय का प्रकरण पूरा होने को है। पण्डितजी ने घड़ियाल की ओर दीठ उछाली; बड़का हाथ पाँच के पास और छोटका ग्यारह के नजदीक पहुँच रहा था। एक बार चाय बन गई तो ये दोनों रवाना हो जाएंगी। पाँच मिनट की बात है। ये सोचकर पण्डितजी बिस्तर पर टिकने को ही थे कि वापस सीधे हो गए- अभी तो देह अशुद्ध है। कान वापस रसोई की दिशा में उन्मुख हो गए। गिलास में तरल द्रव गिरने का शब्द आ रहा था। चाय छन गई है, बस कुछ देर की और बात है- अधोवायु के दबाव को जैसे दिलासा देते हुए पण्डितजी ने सोचा।

नहाते के साथ ही धोती भी फ़रिया के डाल दूँगा। लेकिन निरमा की बट्टी तो कल ही शेष हो गई थी। बिट्टी को लाने को बोल देता हूँ.. नहीं-नहीं.. उस से कहूँगा तो बेकार के सवाल करेगी। ऐसे ही फरिया दूँगा। ह्म्म यही ठीक रहेगा। पण्डितजी ने अपनी योजना को मन में पक्का कर लिया। फिर ध्यान रसोई की ओर गया। चाय लेके क्यों नहीं आई अब तक सुशीला। कान लगा कर सुना तो सुशीला और बिट्टी के वार्तालाप के खुसफुस के साथ तरल द्रव में चम्मच हिलाने का शब्द आ रहा था। जब जब धातु का चम्मच धातु के गिलास से टकराता तो ऊँचे सुर की रचना हो रही थी। एक तरफ़ पण्डितजी का अधोभाग गुदा पर बनते दबाव से आक्रांत हो रहा था वहीं मानसिक तरंगे मस्तक के उस भाग में आलोड़न पैदा कर रही थीं जहाँ शब्द की व्युत्पत्ति सम्बन्धी सूचनाएं जमा थीं। वहाँ से विचार उठ रहा था कि चम्मच शब्द, सोमरस पीने के पात्र वैदिक चमस का बिगड़ा हुआ रूप है।

शरीर और मस्तक के द्वन्द्व से पण्डितजी विचलित होते जा रहे थे। अब यह दशा उनकी सहन शक्ति के परे होती जा रही थी। इसके पहले कि उनका शरीर उनके नियंत्रण से बाहर जा कर उनके लिए कोई अपमान जनक स्थिति पैदा करता, पण्डितजी ने हालात पर हस्तक्षेप करने क फ़ैसला किया। उनका इरादा तो बहुत वेग से रसोई में दाखिल होने का था मगर दो क़दम चलने के बाद ही उन्हे एहसास हो गया कि अधिक वेग नीचे के वेग को उच्च स्वर में मुक्त कर सकता है। इसलिए वे सम्हल कर पैर रखते हुए रसोई के द्वार तक पहुँचे। सुशीला चाय के गिलास में चम्मच डालकर बिट्टी से खुसफ़ुस बतियाये जा रही थी। खुसफुस इसलिए क्योंकि ऊँचे सुर में बात करने से पण्डितजी की साधना में बाधा होती है। पण्डितजी को देखकर दोनों शांत हो गईं। सुशीला किसी आदेश की आशा में उनकी ओर देखने लगी। पण्डितजी चिड़चिड़ाए हुए थे।

हो गया?

क्या?

चाय?

हाँ?

तो क्या करना है उसका?

कुछ नहीं?

मुझे दोगी या किसी और को?

.. आप ही के लिए तो..

तो दो.. कब से अगोर रहा हूँ। दिन भर तुम लोगों का खुसुर-फुसुर चलता ही रहता है। और कोई काम नहीं है।

सुशीला ने आंचल से गिलास को नीचे से पकड़ कर पण्डितजी की ओर बढ़ा दिया ताकि वो गिलास को ऊपर से पकड़ सकें जहाँ पर गिलास अपेक्षाकृत ठण्डा होगा। पण्डितजी ने गिलास पकड़ा और मुड़कर वापस कमरे में लौट गए। अब उन्हे इन्तज़ार था कि दोनों घर से बाहर निकलें तो वे अपनी क़ैद से आज़ाद हों। चाय पीने की उनकी ज़रा भी इच्छा नहीं हो रही थी। इच्छा तो ये हो रही थी कि चाय का गिलास दीवार पर दे मारें। मगर उन्होने इस इच्छा को भी शरीर के भीतर ही दबा लिया। शरीर की दशा और बुरी हो गई। किसी भी वक़्त विस्फोट हो सकता था। पण्डितजी ने सोचा कि मन को किसी ओर दिशा में लगाने से कदाचित राहत मिले। वे मन में ही गिनती गिनने लगे। गिनती तेरह तक पहुँची थी कि उन्हे सुशीला और बिट्टी गलियारे में जाते दिखे। अब कुछ ही पलों में उनकी मुक्ति हो जाएगी। निर्वाण हो जाएगा। पण्डितजी की नज़र दोनों के क़दमों पर जम गई एक-एक क़दम उनके मोक्ष की ओर बढ़ रहा था।

सुशीला और बिट्टी दरवाजे पर पहुँची। सुशीला ने कुण्डी उतारी। पहले बिट्टी बाहर निकली। सुशीला ने एक पैर बाहर निकाला और बिट्टी से कहा- सुन, आज दद्दा का जी अच्छा नहीं लग रहा। दोनों चले जायें और उनको कुछ जरूरत पड़े तो?

तो तुम रुको न जिज्जी। मैं भाजी ले के रस्तोगी की बिटिया को स्कूल से ले लूँगी।

ठीक है?

ये ले पैसे। सुशीला ने भाजी के पैसे बिट्टी को थमा दिए।

भीतर पण्डितजी की श्रवणग्रन्थियां दरवाजे की कुण्डी के शब्द पर लगी थीं। बाहर सुशीला ने सांकल कुण्डी में जमाई और इधर पण्डितजी ने देह पर से सारे बंधन खोल दिए। पूरा घर एक फड़फाड़ते पंछी के जैसे आरोही स्वर से भर गया।

19 टिप्‍पणियां:

Rising Rahul ने कहा…

कहानियों की दुनिया मे आपका स्वागत है। ये पढ़कर राग दरबारी और प्रेमचंद की छोटी बहु याद आ रही है...शब्दों का पुट कुछ कुछ वैसा ही नही लगता ?

Unknown ने कहा…

वाह री अथ संयम व्यथा...खूब लिखा है महाराज...दिल के दरवाजे खोल कर रख दिए...अब पंडित जी को रिलैक्स फील हो रहा होगा...हाहाहा

ghughutibasuti ने कहा…

इतना विचार तो शायद न्यूकलियर डील के लिए भी न किया गया हो!
:)
घुघूती बासूती

sanjay vyas ने कहा…

बढ़िया कथा रस की सृष्टि तो गयी बस एक बात है जो कहनी है. पंडित, संयम,वेग,अपानवायु इन सब शब्दों को एक साथ रखें तो एक बनाबनाया खांचा दिखने लगता है. आपकी लेखनी का वैविध्य कई छटाओं में दिखेगा ऐसी आशा है. पहली कहानी की बहुत बहुत बधाई.

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुन्दर कहनी है शैली और शिल्प भी बडिया है बधाई स्वीकार करें आशीर्वाद लिखते रहें कलम मे रवानी है कहनी समय मांम्गती है कवित तो छलते फिरते भी बन जती है कहनी को कितनी बात लिख कर काटना पडता है कई बार क 2 दिन बाद फिर देखन पडता है फिर भी कई बा र्दोबारा लिखनि पडती है मगर आपकी पहली कहनि हिट है बधाई

azdak ने कहा…

ऐसे तो न देखो..
कि धता हो जाये..

बेनामी ने कहा…

वात विकार और मनोविकार के सम्मिश्रण से पैदा हुई मर्मांतक कहानी...अच्छी है, कहानी का सबटेक्स्ट ज्यादातर लोग मिस कर रहे हैं, एक आदमी जो हगने-पादने से पहले इतना सोचता है, वह जीवन के बड़े कामों में क्या बवाल मचाएगा, मिसाल के तौर पर इन लड़कियों की शादी के मामले में....
-अनामदास

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

बधाई हो बंधु। लिखते रहिए...प्रेशंसक खुद ही आ जाएंगे।


मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर
लोग आते गए, कारवाँ बनता गया:)

डॉ .अनुराग ने कहा…

अनाम दास जी की टिपण्णी वाकई गौर करने लायक है .शुरू में पढना शुरू किया तो लगा धर्मवीर भारती के बंद गली के आखिरी मकान का अंत से मिला जुलता कुछ पढने जा रहा हूँ....पर आपने यूँ इसे यू टर्न दिया की दिमाग की नसे हिल गयी..शब्द संपदा आपके पास है ही....पर आपसे उम्मीदे दूसरी है....विषय के मामले में ....अब ये न कहियेगा ..की सिर्फ तारीफ़ की करनी चाहिए टिप्पणी में .....

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

कहानी भास्कर में पढ़ चुका हूँ। मेल करना चाहता था लेकिन उलझ गया। कहानी बहुत अच्छी है,यथार्थअपने पूरे यौवन के साथ उभर कर आया है।

Batangad ने कहा…

आह काफी आराम मिला ... अब जाके .. बड़ी देर से रोके हुए थे

अफ़लातून ने कहा…

इलाहाबाद - कानपुर का पता नहीं । बनारस में ऐसी कब्जियतपूर्ण जीवन दृष्टि की कल्पना करना दुरूह है । जहाँ प्रात: एक किमी सुर्ती मलते हुए,फिर एक किमी उसे जमा कर चला जाता है,तब बइठकर एक किमी निबटा जाता है। वायु-प्रवचन से कहानी लेखन का आगाज़ - मियाँ चिरकिन की भाँति साहित्य के बेनज़ीर चमन में यह कहानी खाद का काम करेगी ।
मेरे एक नेता पहली बार विधान सभा चुनाव जीत कर दारुल शफ़ा के कमरे में थे तथा दरवाजे की तरफ़ एक शत्रु-कोण बनाये हुक्के की सी गुड़गुड़ ध्वनि प्रसारित कर रहे थे। चूँकि गलियारे से कुछ लड़कियाँ गुजर रही थीं इसलिए एक साथी ने टोक दिया । इस पर अत्यन्त विनय के साथ उन्होंने समझाया कि ऐसा न करने पर पूरे शरीर में विष न फैलजाएगा ! अभय के पण्डितजी काशी के न थे ।
दिनेशजी को यह यौवने का यथार्थ लग रहा है । बच्चों बूढ़ों को मुक्त रखा है?
अभय भाई को बधाई ।

पुरुषोत्तम कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी कहानी है। पढ़कर मजा आ गया। आपको बहुत बधाई। ..चाय के लिए पंडित जी के इंतजार के अंश के दौरान तो हंसी रुक ही नहीं रही थी।

Farid Khan ने कहा…

भाषा और प्रसंग दोनों ही सुँदर है। मैं तो हँसते हँसते लोटपोट हो गया।
मुबारक हो।

के सी ने कहा…

कहानी के शिल्प से आप अपरिचित रहे होंगे ऐसा लगता नहीं है हाँ सावधानी ज्यादा ही बरती गयी है और आपने जितना काम किया है उसने कहानी के तत्वों से आगे का भी परिचय करवा रखा है अतः सदुपदेश की आवश्यकता न होगी. भाषा में कलात्मकता का प्रभाव जरूर है, मैं चाहता हूँ कि आप लिखें, लगातार लिखें.

अनूप शुक्ल ने कहा…

दिव्य निपटान। सबको इसे पढ़कर अलग-अलग चीजें याद आ रही हैं। हमें मनोहर श्याम जोशी का ’हरिया हरकुलीश की हैरानी’उपन्यास याद आया। और कहानी लिखें। नाम लिखें विजिटिंग कार्ड पर बहुत है जी।

सोनू ने कहा…

शब्दावली अच्छी है।

मनीषा पांडे ने कहा…

बार रे बार अभय। पहली ही कहानी में चारों खाना चित्‍त कर दिया। मैंने भास्‍कर में कहानी नहीं पढ़ी थी और न ही आपके ब्‍लॉग पर। फुरसत ही नहीं मिली। आज जब ऑफिस से लौटी तो सोचकर ही आई थी कि अभय की कहानी पढ़नी है, लेकिन मुझसे एक गलती हो गई। मैंने हाथ में खाने की थाली ली (अब मेरे जीवन में खाने का भी बड़ा रोमांस है क्‍योंकि खाना कम ही नसीब होता है)और लगी पढ़ने। हे भगवान, यही मुहूर्त मिला था मुझे ये कहानी पढ़ने के लिए। हाथ में खाने की थाली और पंडित जी का महान कर्म। सपने में भी खाना खाते वक्‍त मैं ऐसी कल्‍पना से चीखने लगती हूं। ये तो सपना भी नहीं था। अब देखना ये है कि मेरे इस खाने का क्‍या होता? कहीं रात पंडित जी की आत्‍मा न सवार हो जाए मुझ पर। राम राम राम............

मनीषा पांडे ने कहा…

वैसे हैं तो आप खासे लिक्‍खाड़। कहानी बहुत अच्‍छी है। और लिखें, लेकिन अगली कहानी पढ़ने का देश-काल-समय मुझे पहले से ही बता दी‍जिएगा।

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